आज मैं आपको संभाजी महाराज के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं का इतिहास उनकी जीवनी के स्वरूप मी प्रस्तुत कर रहा हूँ।
घटक | जानकारी |
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पहचान | मराठा साम्राज्य के दूसरे महान छत्रपति |
जन्म | १४ मई, १६५७ को पुरंदर किला, पुणे, महाराष्ट्रा, भारत |
राज्याभिषेक | २० जुलाई १६८० को पन्हाला किला |
शासनकाल | २० जुलाई १६८० – ११ मार्च १६८९ |
माता-पिता | माता: सईबाई, पिता: छत्रपति श्री शिवाजी महाराज |
पत्नी | येसूबाई |
संतान | बड़ी बेटी: भवानीबाई, बेटा: शाहूजी भोसले |
निधन | ११ मार्च १६८९ में औरंगज़ेब के कहने पर निष्ठुर तरीकों से हत्या| |
संभाजी महाराज का बचपन
संभाजी राजा केवल ढाई वर्ष के थे जब उनकी माता सईबाई की मृत्यु हो गई थी। ऐतिहासिक सबूतों की कमी के कारण उनकी माँ की मृत्यु का कारण अभी तक ज्ञात नहीं है।
उस समय जीजाबाई (उनकी दादी) थीं जिन्होंने संभाजी राजा के चरित्र को बनाने की ज़िम्मेदारी ली थी।
निश्चित ही उनके पास एक और शिवाजी महाराज बनाने की क्षमता थी। संभाजी राजा को संस्कृत सिखाने के लिए जीजाबाई ने एक पंडित (शिक्षक) की नियुक्ति की।
संभाजी राजे को जिजामाता द्वारा शिक्षा
भारत के महान शासक शिवाजी महाराज के पुत्र होने के नाते, संभाजी महाराज में भी नेतृत्व गुण, सटीक बुद्धि, लोगों के लिए करुणाभाव, महिलाओं के लिए सम्मान और अन्याय के प्रति गुस्सा था।
जीजाबाई ने उन्हें राज्य और किलों में अनुशासन, समस्याओं का विवरण देने में काफी मदद की।
संभाजी महाराज ने अपने गुरु द्वारा दिए शिक्षा के कारण युद्ध कौशल, युद्ध की रणनीति, राजनीति, संस्कृत, विज्ञान, अर्थ शास्त्र आदि विषयों में महारत हासिल की। वह संस्कृत के साथ लोगों को न्याय देने के लिए प्रसिद्ध होने के कारण उन्हें “महापंडित” की उपाधि से नवाजा गया।
९ साल की उम्र में, उन्हें मुगल दरबार में राजनीति का हिस्सा बनाना पड़ा। पुरंदर के संधि के मुताबिक उन्हें मुग़ल दरबार में मनसबदारी स्वीकार करनी पड़ी।
संभाजी महाराज का व्यक्तित्व
संभाजी महाराज नियमित सूर्य नमस्कार और कसरत करते । जिसके कारण उनका शरीर काफी ज्यादा मजबूत था।
छत्रपति संभाजी राजे की ऊँचाई लगभग ६’२” थी और वजन तक़रीबन ११० किलोग्राम था।
संभाजी महाराज की विद्वत्ता
कहते है, “जीवन में अगर कुछ नहीं सीखना चाहो तो पूरी जिंदगी कम पड जाए और कुछ सीखने की चाह मन में हो तो कम समय में आप बहुत कुछ हासिल कर जाओगे।
ऐसी ही कुछ बात थी छत्रपति संभाजी महाराज की। जिस उम्र में बच्चे खेल-कूद में लगे रहते थे, उस में छोटे संभाजी ने काफी कुछ हासिल किया था।
१४ वर्ष की आयु में, संभाजी महाराज १४ विभिन्न भाषाओं में कुशल हो गए। इसमें मराठी, अंग्रेजी, उर्दू, पुर्तगाली, संस्कृत, मुगल भाषाएँ, सभी दक्षिण भारतीय भाषाएँ, सभी डेक्कन भाषाएँ, आदि शामिल थीं।
संभाजी महाराज द्वारा लिखित पुस्तकें
इतनाही नहीं उन्होंने छोटी उम्र में तीन पुस्तकें भी लिखी। जिसमे बुधभूषण, नखशिखांत या नायिका भेद, और सात शासक ये किताबे शामिल है।
पुरंदर की संधि
पुरंदर की संधि यह विषय छत्रपति शिवाजी महाराज के संबंध में है। लेकिन कुछ हद तक संभाजी महाराज का इतिहास भी, इसी विषय से संबंधित है।
मिर्जा जय सिंह ने शिवाजी महाराज से एक वचन लिया था। वचन के अनुसार शिवाजी राजे को अपने पुत्र संभाजी के साथ मुगल दरबार में जाना था। शिवाजी महाराज ने मिर्जा जय सिंह को किए वादे के अनुसार पिता-पुत्र दिल्ली आए थे।
इसलिए कम उम्र में भी संभाजी राजे राजनीति का शिकार हो गए। लेकिन इस वजह से उन्हें एक कुशल राजनीतिज्ञ बनने में मदद हुई।
संभाजी महाराज का विवाह
छत्रपति शिवाजी महाराज ने राजनीतिक लाभ के लिए अपनी इच्छा के विरुद्ध आठ विवाह किए। संभाजी राजा का विवाह भी एक राजनैतिक लाभ मिलने के इरादे से हुआ था।
उस समय बालविवाह की परंपरा प्रचलित थी। इस प्रथाअंतर्गत शादी बहुत छोटी उम्र में की जाती थी। संभाजी महाराज का भी विवाह कम उम्र में हो गया।
यदि पिलगिरराव शिरके अगर स्वराज्य में शामिल हो गए, तो यह मराठों को कोंकण क्षेत्र में बसने में मदद होगी। इस विचार से, शिवराय ने संभाजी राजे का विवाह पिलगीराव शिर्के की बेटी जिउबाई के साथ लगाया। विवाह के बाद, मराठा परंपरा के अनुसार, जीउबाई का नाम बदलकर “येसूबाई” रखा गया।
छत्रपति शिवाजी महाराज का देहांत
शिवाजी महाराज के मृत्यु के वक्त, संभाजी राजे को पन्हाला किले में नजर बंद किया था।
निर्दोष सोयराबाई
कुछ लोगों का मानना है कि, सोयराबाई ने शिवाजी महाराज के दरबार में कुछ प्रभावशाली मंत्रियों की मदद से संभाजी राजा को छत्रपति बनने से रोकने की साजिश रची।
तो कुछ लोग शिवजी महाराज को जहर देने के मामले में भी उनकी पत्नी सोयराबाई का नाम लेते हैं। हालांकि, सोराबाई के खिलाफ अब तक ऐसा कोई सबूत नहीं मिला है।
इन कहानियों के विपरीत रायगढ़ में छत्रपति संभाजी महाराजद्वारा सोयराबाई को सम्मानित किया गया था।
संभाजी महाराजद्वारा दण्डित मंत्रीगण
शिवाजी महाराज के मृत्यु समय रायगढ़ में मौजूद मंत्रियों में शिवराय के सूर्निस अन्नाजी दत्तो थे। साथ में नीलकंठ मोरे शिरप्रधान, प्रल्हाद पंत, गंगाधर जनार्दन, रामचंद्र नीलकंठ, आबाजी महादेव, जोशी राव, बाळ प्रभू आदि अष्टप्रधान मंडल के सदस्य थे।
इनके अलावा दूसरे मंत्रियों में हैबतराव निंबाळकर, संताजी घोरपडे, समशेर बहाद्दर, बहिर्जी घोरपडे, विश्वासराव, मुधोजीराव, शिधोजिराव निंबाळकर, गणोजीराजे, शिर्केमालेकर, हीरोजी फर्जंद, बाबाजी घाटगे, संभाजी कावजी, बाबाजी कदम, महादजी नाईक पाणसंबळ, सूर्याजी मालुसरे, कृष्णाजी नाईक, महादजी नाईक, बहिर्जी नाईक, निळोजी पंत (प्रधान पुत्र), प्रल्हाद पंत, गंगाधरपंत (जनार्दनपंत के पुत्र), रामचंद्र नीलकंठ, रावजी सोमनाथ, आबाजी महादेव, जोतीराव, बाळप्रभू चिटणीस (बालाजी आवजी) आदि मंत्रीगण शामिल थे।
संभाजी राजेने न्याय करते समय आरोप पत्र में केवल २२ मंत्रियों का नाम था। उपरोक्त मंत्रियों में से २२ को आरोप पत्र में शामिल किया गया था। इन २२ मंत्रों में, बालप्रभु चिटनिस (बालाजी के बजाय) भी मौजूद थे। लेकिन उन्हें दंडित करने के बाद पता चला की, वे पूरी तरह से निर्दोष हैं।
मंत्रियों द्वारा साजिश की जानकारी होने पर, संभाजी राजे को पन्हाला से निकलना जरुरी था। इसलिए उन्हें किलेदार से लड़ना पड़ा, जिसमें वह किलेदार मारा जाता है।
स्वराज के दोषियों को संभाजी महाराज ने दी हुई कठोर सजा
पन्हाला के बाद, संभाजी राजे को रायगढ़ किले को वापस जितना पड़ा। हंबिरराव मोहिते शिवाजी महाराज की सेना के सेनापति और सोयराबाई के बड़े भाई थे। हंबिरराव मोहितेने संभाजी महाराज को रायगढ़ जीतकर अपने शासन में लाने में मदद की।
रायगढ़ जितने पर संभाजी राजे ने अन्नाजी दत्तो, पेशवा मोरोपंत पिंगले और शिर्के जैसे उपरोक्त गद्दार मंत्रियों को कैद कर लिया। कुछ को हाथी के पैरों के नीचे कुचल देने का तो और कुछ को ऊँचे पहाड़ी से धक्का देने की सजा दी।
शंभुराजे ने छोटी उम्र से न्याय प्रणाली को समझकर अपराध के अनुरूप सजा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसलिए उन्हें एक “न्याय प्रिय शासक” के रूप में जाना जाता है। कार्यकाल में संभाजी महाराज ने अन्याय और बेईमानी कभी भी बर्दाश्त नहीं की।
संभाजी महाराज का राज्याभिषेक
जब संभाजी राजे छत्रपति बने, तब मराठों और मुग़लों तथा अन्य विदेशियों के बीच कई संघर्ष हुए। संभाजी महाराज का इतिहास इसी संघर्षों के बारे में जानकारी देता है।
शिवजी महाराज की मृत्यु के तीन महीने बाद, संभाजी महाराज का राज्याभिषेक समारोह पन्हाला किले में आयोजित किया गया था। हिन्दू रीतिनुसार युवराज संभाजी पर राज्याभिषेक की विधि संपन्न की गयी।
संभाजी महाराज का बुरहानपुर पर हमला
युवराज संभाजी अब छत्रपति बन गए थे। छत्रपति शंभुराजे ने लोगों की दुर्दशा, दरिद्रता और धान की कमी को महसूस किया।
इसलिए राज्य में गरीबी और धान की कमी को दूर करने के विचार से १६८० में औरंगज़ेब की खान देश की राजधानी बुरहानपुर पर हमला किया। इस हमले में मराठों को विशाल मुगल खजाना हाथ लगा था।
संभाजी महाराज के इतिहास में बुरहानपुर का हमला बहुत प्रसिद्ध था। क्योंकि छत्रपति बनने के बाद संभाजी महाराज की यह पहली लड़ाई थी।
इस लड़ाई में, मुग़ल सेना बुरी तरह पराजित हो गई। साथ में २०,००० मराठा सैनिकों ने बुरहानपुर को लूट लिया।
बादशाह औरंगज़ेब के खिलाफ बगावत
औरंगज़ेब के चौथे पुत्र अकबर द्वितीय ने मुगल साम्राज्य के खिलाफ विद्रोह किया। और आगे की विद्रोह योजना बनाने के लिए वह महाराष्ट्र के औरंगाबाद में गया। इसलिए बादशाह औरंगज़ेब भी अकबर द्वितीय को पकड़ने के लिए औरंगाबाद गया।
औरंगाबाद में हुए युद्ध में औरंगज़ेब ने अकबर द्वितीय को परास्त किया। बड़ी मुश्किल से अकबर द्वितीय वहाँ से भाग निकलने में सफल हो जाता है। हार के बाद, वह रायगढ़ में संभाजी महाराज के छत्रछाया में शरण लेनी पड़ी थी।
संभाजी महाराज की मैसूर विजय यात्रा
१६८१ में, संभाजी राजा ने वोडियार राजवंश के खिलाफ दक्षिणी मैसूर अभियान की शुरवात की। मैसूर में तब वोडियार राजवंश का राज था। तत्कालीन “वोडियार चिक्कदेवराय” एक बहुत ही चिड़चिड़े राजा था।
संभाजी महाराजने भेजे संधिप्रस्ताव को अस्वीकार कर, उसने मराठा सेना पर हमला किया। परिणामस्वरूप, संभाजी महाराजने भी अपनी विशाल सेना के साथ धाबा बोल दिया।
संभाजी महाराज के सामने आत्मसमर्पण करने के बजाय, उन्होंने मराठा सेना पर हमला किया। परिणामस्वरूप, संभाजी महाराज ने अपनी विशाल सेना ले ली और घृणा से लड़े और लड़ाई जीत ली।
चिक्कदेवराय ने संभाजी महाराज के सामने आत्मसमर्पण करते हुए भविष्य में स्वराज के अभियान में योगदान देने का वादा किया। १६८२ और १६८६ के बीच, चिक्कादेवराय ने स्वराज के लिए योगदान भी किया।
लेकिन इसके बाद उसने मराठों की मदद करने से इनकार कर दिया। इसलिए, संभाजी महाराज ने सन १६८६ में मैसूर पर कब्ज़ा कर लिया।
संभाजी महाराज का जंजीरा अभियान
जंजीरा किले को भारतीय इतिहास में अपराजित किला कहा जाता है। क्योंकि यह किला आख़िर तक कोई जीत नहीं पाया था।
इस किले के नज़दीक जाने तक इसका प्रवेश द्वार दिखाई नहीं देता। यह इस किले की विशेषता मानी जाती है।
शिवाजी महाराज ने पहले ही सिद्धि के प्रभाव को जंजीरा द्वीप तक सीमित कर दिया था। इसके बाद शंभू राजे ने १६८२ में फिर से सिद्धि के खिलाफ अभियान चलाया और लगातार ३० दिनों तक हमला किया।
मराठों ने किले को भारी क्षति पहुँचाई, लेकिन किले की सुरक्षा को पूरी तरह से तोड़ने में सफल नहीं हुए। तब संभाजी महाराज ने सेना के लिए किनारे से जंजीरा किले तक बाँध बनाकर मार्ग तैयार करना शुरू किया।
उस समय, किला हार जाने के डर से सिद्दी ने औरंगज़ेब से हाथ मिलाया। इसलिए मराठाओं के इस प्रयास को विफल करने के लिए औरंगज़ेब ने उत्तर दिशा से स्वराज पर हमला किया।
इस प्रकार, जंजीरा किले पर कब्ज़ा करने से पहले ही संभाजी महाराज को बीच में मोहिम छोड़कर जाना पड़ा। जंजीरा जितने की ज़िम्मेदारी सरसेनापती को सौंप कर शंभु राजे मुग़लों का प्रतिकार करने के लिए निकल गए। लेकिन दुर्भाग्य से बाकि मराठा सेना को अभियान में सफलता नहीं मिली। इस प्रकार, यह जंजीरा अभियान बीचमें ही छोड़ना पड़ा।
संभाजी महाराज के इतिहास में यह एकमात्र युद्ध है जो पूरी तरह से नहीं जीता गया था। फिर भी इस अभियान में संभाजी राजे हारे भी नहीं थे। क्योंकि इस अभियान में सिद्धी को भारी नुकसान हुआ था।
पुर्तगाली किलों और नगरों पर संभाजी महाराज की स्वारी
सिद्धि पर किये असफल हमले के बाद, संभाजी महाराज ने अपने सेनापति को पुर्तगालियों के अंजादीव के किले पर कब्ज़ा करने के लिए भेज दिया।
मराठों ने नए युद्धपोतों और सैन्य ठिकानों के निर्माण के लिए किले को नौसैनिक अड्डे में बदलने की योजना बनाई थी। लेकिन किसी कारण से जनरलों को अभियान को छोड़ना पड़ा और अंजादिव किले से रायगढ़ लौटना पड़ा।
संभाजी महाराज का पुर्तगाली अभियान
फिर संभाजी महाराज को पुर्तगालियों से निपटने के लिए खुद अभियान चलाना पड़ा। संभाजी राजे ने सभी उपनिवेशों और पुर्तगाली किलों पर कब्ज़ा कर लिया।
बिशप
ईसाई मंत्रियों के वरिष्ठ सदस्य जिनके पास धार्मिक और प्रशासनिक शक्तियाँ होती थी। बिशप धार्मिक नेता के रूप में चुने जाते थे और मंत्रियों की देखरेख भी किया करते थे।
पुर्तगालियों की स्थिति इतनी बुरी हो गई थी कि, वे अंजादिव से कैथेड्रल (बिशप के अधिकार के तहत ईसाई चर्च की मुख्य इमारत) में भाग गए। जहां पुर्तगाली बिशप और अधिकारियों ने चर्च के तहखाने में शरण ली। वहाँ सबने उनकी मुक्तता और उद्धार के लिए प्रार्थना की।
पुर्तगालियों ने व्यापार में मुगलों की मदद की और मुगलों को अपने क्षेत्र से गुजरने की अनुमति दी थी। संभाजी महाराज का इस हमले का मुख्य उद्देश्य मुगलों और पुर्तगालियों के बीच हुए गठबंधन को तोड़ना था।
संगमेश्वर जहाँ मुग़लों ने संभाजी महाराज को बंदी बनाया
संभाजी महाराज ने भारत से मुग़लों को पूरी तरह से उखाड़ने की योजना बनाई। आगे की योजना बताने के लिए संभाजी महाराज ने संगमेश्वर में एक गुप्त बैठक बुलाई थी।
गनोजी शिर्के संभाजी महाराज, संभाजी महाराज के बहनोई थे।
जिसने संभाजी महाराज से जहागीर देने की माँग की, जिसे देने से महाराज ने साफ मना कर दिया था। इसलिए, लालची गनोजी शिर्के ने मुग़लों के साथ हाथ मिलाया।
गनोजी ने मुगल सेना प्रमुख मुकर्रबखान को बताया कि संभाजी महाराज संगमेश्वर है। केवल मराठा सेना ही संभाजी राजे द्वारा उनके अभियान के दौरान उपयोग किए जाने वाले गुप्त मार्गों के बारे में जानते थे। गनोजी ने मुकर्रखान को संगमेश्वर के सभी गुप्त रास्तों के बारे में बताया।
संभाजी महाराज ने कुछ प्रमुखों और वफादार मंत्रियों को संगमेश्वर आमंत्रित किया था। गुप्त बैठक के बाद गाँववालों के आग्रह पर संभाजी महाराज और कुछ समय के लिए वह रुक गए।
उन्होंने केवल २०० सैनिकों, दोस्त और सलाहकार कवि कलश और अन्य २५ वफादार सलाह कारों को छोड़कर बाकि सारी मराठा सेना को रायगढ़ भेज दिया।
जब संभाजी महाराज गाँव से निकल रहे थे, तब ५००० मुग़ल सैनिकों ने उन्हें और उनके साथियों को घेर लिया।
युद्ध के परिणाम की पर्वा किये बिना सभी सरदार और साथियों ने बहादुरी से लड़ाई लड़ी। दुश्मन सेना उनके मुकाबले कई गुना बड़ी थी। सभी मराठा सैनिक और सरदार असाधारण पराक्रम दिखाते हुए वीर गति को प्राप्त हुए।
स्किर्मिश गाँव में एक भयानक नर संहार हुआ। संभाजी राजा की सेना ने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया। लेकिन शत्रु संख्या ज्यादा होने के कारण दुर्भाग्य से संभाजी महाराज इसकी घेराबंदी से बहार निकलने में असफल रहे।
मुझे उम्मीद है कि आपको संभाजी महाराज का इतिहास पसंद आया होगा। कृपया संभाजी राजे की इस विस्तृत जीवनी को सोशल मीडिया पर शेयर करें।