छत्रपति शिवाजी महाराज- सत्रवीं शताब्दी के आदर्श राजा

by अक्टूबर 10, 2019

आपने अबतक कई राजा-महाराजों की कहानियाँ सुनी होगी। पर आज में आपको ऐसे राजा की कहानी साझा कर रहा हूँ, जिसने न सिर्फ खुद का राज्य खड़ा किया बल्कि उन्होंने हर हिंदुस्तानी के दिल पर राज किया। वो कोई और नहीं बल्कि छत्रपति शिवजी महाराज ही थे, जिन्होंने अपना पूरा जीवन प्रजा के कल्याण हेतु समर्पित किया।

मेरा इरादा किताब लिखने का था पर कुछ लोग शायद उतने भी पैसे न दे पाए। इसलिए में छत्रपति शिवजी महाराज की जीवनी जिसमे लगभग बारह हजार से ज्यादा शब्द है, में यहाँ निशुल्क आपके साथ शेयर कर रहा हूँ। क्योकि, यह ब्लॉग ज्यादा से ज्यादा लोग पढ़े यही मेरे लिए काफी है।

फिर भी में यह जीवनी मुफ्त में दे रहा हूँ, ऐसा बिलकुल नहीं कहूँगा। क्योकि, आपको इस ब्लॉग को सोशल मीडिया और आपके दोस्तों, परिवारजनों को शेयर करना है, इसीको आप इसका मूल्य समझे।

भलेही शेयर करना आप के हाथ में हो, लेकिन अगर आप भविष्य में इस ब्लॉग जैसे मास्टरपीस ब्लॉग्स पढ़ना चाहते हो, कृपा करके शेयर जरूर करे।

मुझे लगता है कि, यह जीवनी निश्चित रूप से इतिहास प्रेमियों के लिए एक दिलचस्प होगी। फिर भी, इसे एक बार में पढ़ना या सुनना शायद संभव ना हो इसलिए कृपया ब्लॉग को बुकमार्क कर लें, ताकि आपको वही से शुरू करने में दिक्कत ना हो।

यदि हम छत्रपति शिवराय की प्रशंसा करना चाहें, तो यह जीवनी भी शायद पर्याप्त नहीं होगी। फिर भी यदि हम संक्षेप में वर्णन करना चाहें, तो वे पूरे इतिहास में एकमात्र ऐसे राजा थे, जिनका जन्म राजा के रूप में नहीं हुआ था। यानी वे किसी रियासत का राजकुमार नहीं थे।

दुश्मनों से घिरे रहने के बजाय, उन्होंने मराठा साम्राज्य की स्थापना और विस्तार काफी हद तक किया। अगर हम इतिहास पढ़ें तो भारतीय इतिहास में कई राजा थे। जिन्होंने शिवाजी महाराज से प्रेरणा ली।

उनके सहित बहुत सारे भारतीय स्वतंत्रता सेनानी भी थे, जिन्होंने हिंदुस्तान के स्वतंत्रता के लिए कई बलिदान दिए। लेकिन, अब सवाल यह है, कि क्या वाकई हम हमारी आजादी का सही इस्तेमाल कर रहे हैं?

छत्रपति शिवाजी राजे ने मराठी लोगों को “स्वराज्य” के लिए जीने और लड़ने का कारण दिया। यदि आप इस जीवनी को पढ़ेंगे, तो मुझे उम्मीद है कि आपको हमारी स्वतंत्रता का सही तरीके से उपयोग करने का एक कारण भी मिल जायेगा।

आरंभ करने से पहले बताना चाहता हूँ की छत्रपति शिवाजी राजे के कई नाम थे। तो उनके जीवन काल के अनुसार मैंने नीचे उनके मराठी नामों का प्रयोग किया है।

संक्षिप्त जानकारी

घटकमाहिती
परिचयमराठा साम्राज्य के संथापक तथा पहले छत्रपति
जन्म१९ फरवरी, १६३०
माता-पितामाता: जिजाबाई, पिता: शहाजी राजे भोसले
कारकीर्द१६७४-१६८० (राज्याभिषेक के बाद)
पत्नीसईबाई निंबाळकर, सोयराबाई मोहिते, काशीबाई जाधव, सगुणाबाई, सकवारबाई गायकवाड, गुणवंताबाई पुतळाबाई पालकर, लक्ष्मीबाई
संतानपुत्र: छत्रपति संभाजी महाराज, छत्रपति राजाराम महाराज, बेटियां: सकुबाई निंबालकर, राणुबाई जाधव, अंबिकाबाई महाडिक, राजकुमारी बाई शिर्के
सहयोगी और सरदारतानाजी मालुसरे, बाजी पासलाकर, मुरारजी देशपांडे, बाजीप्रभु देशपांडे

नमस्कार दोस्तों, आज में श्री छत्रपति शिवाजी महाराज की जीवनी उनके जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं की मदद से मैं आज आपके सामने प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ। में यह शिवराय की जीवनी शुरू करना चाहता हु उनके जयजयकार से,

प्रौढ़ प्रताप पुरंदर, क्षत्रिय कुलावतंस, सिंहासनाधिश्वर, महाराजाधिराज……महाराज…शिव छत्रपती श्री शिवाजी महाराज की जय!!

परम प्रेरणास्रोत – माता जीजाबाई

जीजाबाई बुलढाणा की राजकुमारी के साथ-साथ लखुजीराव जाधव की बेटी भी थीं। लखुजीराव निज़ाम के सेनापति थे, इसलिए बहुत कम उम्र से ही वे वास्तविक स्वतंत्रता के महत्व को समझ गए थे।

वह स्वतंत्रता निश्चित रूप से बाहरी शासकों द्वारा दी गई जागीर से नहीं आई थी।

इसलिए, जब जीजाबाई जीजामाता बनीं, तो उन्होंने उन्ही मूल्यों के साथ शिवबा को बड़ा किया। जिजामाता शिवबा को रोज शूरवीर महाभारत, रामायण तथा महान राजा-महाराजों की कहानियां सुनाती थीं।

छोटे शिवबा को अर्जुन के वीर व्यक्तित्व की कहानियाँ सुनाने पर शिवबा भी अपने कोमल हाथों में तलवार लिए बोलता, “में भी बड़े होकर अधर्मियों का नाश करूँगा!”

ये देखकर जिजामाता के अंतर्मन को लगता की, सच में यदि ऐसा होता, तो कितना अच्छा होता।

पर किसे पता था की, माँ भवानी की यही इच्छा थी की शिवबा के हाथों धर्म के रक्षा हेतु स्वराज्य का पवित्र कार्य शुरू होनेवाला था।

जीजाबाई द्वारा दी गई शिक्षाएं और मूल्य

शिवबा के बचपन में बहुत दोस्त थे। शिवबा जब भी दोस्तों के साथ घर जाते वहा खाना भी खाते। उन्होंने अपने जीवनकाल में कभी भी जातिवाद का पालन नहीं किया। यह वास्तव में असाधारण व्यवहार था, क्योंकि समकालीन शाही परिवार अस्पृश्यता और जातिवाद का पालन करते थे।

लोग मानना है,

“पैसा कमाना आसान हो सकता है, लेकिन लोगों को कमाना मुश्किल होता है!”

छोटे शिवबा ने अपनी माता के आदर्शो को सर्वपरी मानते हुए इस तरह की अत्याचारी परंपरा का पालन नहीं किया। यही एक कारण है, कि उन्होंने समाज के हर स्तर के लोगों का दिल जीत लिया।

उनके तानाजी, बाजीप्रभु, येसोजी जैसे कई सारे मित्र बने। वे सभी लोग स्वराज्य की शपथ के साथ एकसाथ बंधे हुए थे।

अतुलनीय जासूस विभाग

शिवराय दुश्मन की हर हरकत पर नजर रखते थे। शत्रु को जानकारी के बिना, उससे जानकारी प्रदान करना कठिन होता है। कई बार जासूसों को अपनी जान जोखिम में डालनी पड़ती है।

मराठों के गुप्तचर प्रमुख बहिरजी नाइक किसी भी रूप में भेष बदलने के लिए निपुण थे। शिवराय के अलावा कोई भी रूप बदलने के बाद उन्हें पहचान नहीं पाता था। बहिर्जी नाइक जैसे दिग्गज गुप्तचरों के वजह से वे स्वराज्य की ताकत बन गए।

छत्रपति शिवाजी महाराज की राजमुद्रा

प्रतिपच्चंद्रलेखेव वर्धिष्णुर्विश्ववंदिता | शाहसुनोः शिवस्यैषा मुद्रा भद्राय राजते ||

राजमुद्रा का अर्थ

प्रतिपदा के चंद्र के समान बढ़ने वाली विश्व में वंदनीय ऐसी शहाजी के पुत्र शिवाजी (राजे की) यह राजमुद्रा सिर्फ प्रजा के कल्याण के लिए विराजमान होती हैं|

छत्रपति के जन्म से पहले भारत की हालत

१५२७ ई. में बहमनी सल्तनत का विघटन हो गया और वह पांच टुकड़ों में बंट गया। उनमें से दो सल्तनतें थी अहमदनगर के निजाम शाह और विजापुर के आदिल शाह।

सुल्तान निज़ाम शाह और आदिल शाह

शिवराय के शासन से पहले, भारत के राजाओं और सम्राटों ने लोगों पर बहुत अत्याचार और शोषण किया। राजा और अधिकारी देश के लोगों के बारे में नहीं सोच रहे थे। तो दूसरी तरफ, दक्षिण में सम्राट कृष्णदेवराय जैसे शक्तिशाली हिंदू राजा थे। जो राज्य के लोगों का बहुत ख्याल रखते हैं। वह अपने शानदार राज्य और प्रभावी शासन के लिए जाने जाता थे।

इसके अलावा, महाराष्ट्र मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित था| पहले थे अहमदनगर के सुल्तान निजामशाह और दूसरे विजापुर के सुल्तान आदिलशाह। निज़ामशाह और आदिलशाह के बीच हमेशा संघर्ष होता था। लगातार लड़ाई के कारण, इस राज्य के लोग बहुत दुखी और हताश थे। दोनों राज्यों के बीच संघर्ष के कारण लोगों को बहुत परेशानी उठानी पड़ती थी। कई लोग बेवजह मारे जाते थे|

प्रजा का दुःख समझकर जिस समय मन में स्वतंत्रता का विचार भी लाना संभव नहीं था, ऐसे समय में उन्होंने स्व-शासन यानि स्वराज्य का सपना देखा | और न केवल सपना देखा, बल्कि अपनी बुद्धी, युद्ध कौशल (गनिमी कावा) और कुशल राजनीति का परिचय देते हुए उसे पूरा भी किया |

इसके विपरीत दक्षिण भारत के एक सम्राट श्री कृष्णदेवराय थे। उन्होंने न केवल लोगों का ख्याल रखा बल्कि लोगों को उचित न्याय भी दिया। उनका “विजयनगर” नाम का राज्य भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध है।

इतिहासकारों का मानना है कि छत्रपति शिवराय ने भी सम्राट श्री कृष्णदेवराय की पुस्तकें पढ़ी थी। उनके शासनकाल ने शिवराय को हिंदवी स्वराज्य स्थापित करने के लिए भी प्रेरित किया।

इसलिए, ठीक विजयनगर के अष्ट दिग्गज की तरह, छत्रपति शिवराय ने भी “अष्ट प्रधान मंडल” की एक प्रभावी प्रशासन प्रणाली की स्थापना की।

समकालीन संत-महात्मा

शिवराय के जन्म से पहले श्री चक्रधर स्वामी, संत नामदेव, संत ज्ञानेश्वर, संत एकनाथ, संत तुकाराम, संत रामदास स्वामी जैसे संत हुए। इन संतों द्वारा लोगों को दया, अहिंसा, भक्ति, ईश्वर की सेवा, धैर्य और भाईचारे की शिक्षा मिली।

छत्रपति शिवाजी महाराज का जन्म

शिवनेरी किला

शिवनेरी किला
छत्रपति शिवजी महाराज का जन्मस्थान, छायाचित्र का श्रेय: प्रभात८०५१

शिवाजी राजे का जन्म १९ फरवरी, १६३० को पुणे जिले के पास शिवनेरी किले में हुआ था।

शिवराय के पिता का नाम शहजी राजे था | जो विजापुर के सुल्तान आदिलशाह के दरबार में सेना प्रमुख थे।

शिवराय के जन्म के समय, उनके पिता शहजी राजे मुगल आक्रमण का मुकाबला करने के लिए अभियान पर गए थे।

महाराष्ट्र में शिव जयंती वर्ष में दो बार मनाई जाती है। आप कहेंगे दो बार जन्मदिन कैसे मनाया जा सकता है? इसका जवाब है, दो अलग-अलग कालक्रम | एक है ग्रेगोरियन कालक्रम और दूसरा है मराठी कालक्रम। ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार, शिवाजी महाराज का जन्मदिन १९ फरवरी को आता है। और मराठी कैलेंडर के अनुसार, छत्रपति शिवराय की जन्म तिथि फाल्गुन विद्या तृतीया (फाल्गुन महीने के तीसरे दिन, यह दिन सालाना फरवरी या मार्च में आता है) के दिन आती है।

इस प्रकार, साल में शिवाजी महाराज जयंती दो बार मनाई जाती हैं। इस दिन, महाराष्ट्र में शिव जयंती उत्सव में शोभा यात्रा निकलती हैं | इस दिन राजधानी रायगढ़ के किल्ले में बड़ा खुशी का माहौल होता है। शिवराय की प्रतिमा को सुंदर फूलों से सजाया जाता है। छत्रपति शिवाजी महाराज की जयजयकार के साथ आसमान गूंज उठता हैं। हजारो की संख्या में लोग यह देखने किल्ले रायगढ़ जाते हैं।

जयंती का अर्थ है जन्मोत्सव, भारत में हम सभी महान नेताओं, महात्माओं, तथा समाजसेवकों की जयंती मनाते है। तो दूसरी ओर पुण्यतिथि का मतलब होता है मृत्युदिन, यह दिन धूम-धाम से जलसों का आयोजन करके तो नहीं मनाया जाता। लेकिन इस दिन उन महान व्यक्तित्वों का पुण्यस्मरण जरूर किया जाता है।

छत्रपति शिवाजी महाराज का जन्मस्थान
शिवाजी महाराज का जन्म स्थान, छायाचित्र का श्रेय: धनंजय दी ९७३०

छत्रपति शिवाजी का बचपन और प्रारंभिक जीवन

गुरु दादोजी कोंडदेव ने शिवाजी महाराज सात वर्ष के थे तब उनकी प्राथमिक शिक्षा शुरू की। दादोजी कोंडदेव ने उन्हें भाला, पट्टा, तलवार आदि का इस्तेमाल सिखाया। शस्त्र के साथ में पंडितों और माता जीजाबाई द्वारा शास्त्र यानी संस्कृत, राजनीति, कूटनीति जैसे महत्वपूर्ण विषयों की भी शिक्षा दी। बचपन में, उनकी माँ जीजाबाई उन्हें रामायण, महाभारत और अन्य नायकों की कहानियाँ सुनाया करती थीं।

शिवाजी महाराज सम्राट श्रीकृष्णदेवराय जैसे महान राजा से काफी प्रेरित थे। सम्राट श्रीकृष्णदेवराय सोलवी शताब्दी में दक्षिण भारत के एकमात्र शक्तिशाली हिंदू राजा थे। छोटी उम्र से ही शिवाजी महाराज के पास एक अच्छा नेता बनने के लिए आवश्यक सभी कौशल थे।

छत्रपति शिवाजी महाराज की ऊंचाई और वजन

शिवराय का वजन: इंग्रज अधिकारी हेनरी औक्सिन डेन के रिकॉर्ड के अनुसार ६६ किलोग्राम था| राज्याभिषेक के समय शिवाइज राजे के वजन जितना स्वर्ण तोला गया था| जिसे सुवर्ण तुला की विधि कहते है| तब उनका वजन १६० पाउंड का मतलब ७३ किलोग्राम था। लेकिन अगर उनके कपड़े, गहने, कट्यार, तलवार, श्री विष्णु की मूर्ति आदि का वजन हटाने पर उनका असली वजन लगभग १४५ पाउंड होना चाहिए, जो कि ६६ किलोग्राम है।

शिवाजी राजे का कद: शिवराय की ऊँचाई इतिहासकारो के मुताबिक लगभग १६८ सेमी, ५ फीट ६ इंच होनी चाहिए।

रायरेश्वर मंदिर में स्वराज्य की शपथ

बहुत कम उम्र में, शिवाजी महाराज ने स्वराज के लिए विश्वसनीय साथियों का गठन करना शुरू किया| उन्होंने गुप्त मार्गों के बारे में जानकारी भी इकट्ठा की। फिर एक दिन अचानक से शिवराय अपने साथियों को लेकर रायरेश्वर के मंदिर गए|

अपने साथियों के सामने उन्होंने बोलना शुरू किया, “दोस्तों आज में आपसे हम सबके बारे में बात करना चाहता हूँ| आज वैसे देखा जाये तो हमारा सब कुछ सही चल रहा है| सबको किसी की कमी महसूस नहीं होती| पर फिर भी मई आपसे सवाल करना चाहता हूँ| क्या आप सही में अंदर से खुश है? क्या आपपे कोई हुकूमत करे, और उसके सहारे हम अपना जीवनव्यापान करे, क्या यह आपको मंजूर है?” क्या आप दुसरो की गुलामी कर जीना पसंत है?”

शिवाजी राजे अब गुस्से से लाल हो गए थे| अब उनके साथी मित्र एकसाथ होकर बोले, “आप बोले तो हम आपने प्राण त्याग देंगे| आप बस बोलो हमें क्या करना है?”

शिवाजी राजे बोले, “भाइयों अब समय आ गया है, अपनी मिट्टी को गुलामी की जंजीरो से आज़ाद करने का| तो आओ हम आज साथ में भगवान महादेव के सामने यह प्रण लेते हैं की, जब तक इस स्वतंत्रता के लिए प्यासे हिंदुस्तान को आज़ादी का पानी पीला नहीं देते, हम चैन से नहीं बैठेंगे| ये हिंदवी स्वराज्य होना चाहिए, यह तो परमेश्वर की इच्छा हैं| तो आओ इस इच्छा को हम मिलकर पूरा करें|”

छत्रपति शिवराय के उद्द्गार:

ये हिंदवी स्वराज्य होना चाहिए; यह श्री की इच्छा है!

महिलाओं का सम्मान करें; अन्यथा कठोर दंड दिया जाएगा।

एक बार मैं मौत को स्वीकार कर लूंगा, लेकिन गुलामी नहीं!

– छत्रपति शिवाजी महाराज

स्वराज्य के लिए छत्रपति शिवाजी महाराज की दौड़

शिवराय ने सोलह वर्ष की आयु में, अपने साथियों, सैनिकों और हथियारों को इकट्ठा करना शुरू कर दिया था। उन्होंने तोरना किले से अपना अभियान शुरू किया। तोरना किला आदिलशाह के उपेक्षित किलों में से एक था। दूसरी और इसकी सुरक्षा के लिए पर्याप्त सैनिक नहीं थे। शिवराय ने किले पर नजर रखी और मौका मिलते ही, कुछ सैनिकों के साथ किले पर कब्ज़ा कर लिया। इस प्रकार शिवाजी राजे ने स्वराज्य की नींव रखी। किला बहुत बड़ा होने के कारन, महाराज ने इस किले को “प्रचंडगढ़” नाम दिया।

युद्ध में आक्रमक वृति के वजह, समझदारी से अपनी शक्ति का उपयोग करना शिवराय अच्छी तरह जानते थे। कुछ लोग गनिमी कावा को पीछे से किया हुआ वार हमला समझते हैं। तो उनको में बताना चाहता हूँ, की ऐसा नहीं हैं। गनिमी कावा एक युद्ध प्रणाली हैं, जिसमें कम सैनिकों के साथ अपनो से कई गुना शक्तिशाली दुश्मन के साथ लढना होता हैं। तब कम सैनिकों के साथ खुले मैदान में लढना संभव नहीं होता। इसीलिए इस युद्ध प्रणाली में दुश्मन के ठिकाने का पता लगाकर, उसपर नजर रखकर सही मौका देखकर उसपर हमला करते हैं।

शिवराय की भवानी तलवार

मराठी लोगों का मानना है कि भवानी तलवार भवानी माता की दी हुई तलवार थी। भवानी माता शक्ति की देवी हैं और उन्हें आदि शक्ति भी कहा जाता है, जिसका अर्थ हिंदू धर्म की सर्वोच्च देवी है।

जैसा कि इस विषय के बारे में जनता की धार्मिक मान्यताएँ हैं, मैं इस पर बहस नहीं करना चाहता कि यह सही है या नहीं। लेकिन, एक बात तय है, यह तलवार महाराज की बेहद खास थी।

मेरा मानना है कि, छत्रपति भवानी देवी के बहुत बड़े भक्त थे, इसलिए उन्होंने अपनी तलवार को अपनी इष्ट देवी का नाम दिया होगा।

उन्होंने अपने जीवनकाल में कई तलवारों का इस्तेमाल किया, लेकिन उनकी तुलजाई (तुलजा फिरंगा), भवानी और जगदंबा नाम की तीन तलवारें मराठी लोगों के बीच बहुत प्रसिद्ध है।

उन तलवारों में जगदंबा तलवार वर्तमान में रॉयल कलेक्शन ट्रस्ट, सेंट जेम्स पैलेस, लंदन में थी, जो इंगलैंड की रानी का निजी संग्रहालय था।

मराठा साम्राज्य की पहली राजधानी

तोरणा किले के पास एक और किला था। वह किला पूरी तरह से बना नहीं था। शिवाजी महाराज ने उस किले पर कब्जा कर लिया और अधूरे किले का काम पूरा किया। शिवाजी राजे ने इस किले का नाम राजगढ़ रखा। शिवराय ने राजगढ़ को स्वराज्य (मराठा साम्राज्य) की पहली राजधानी बनाई। बाद में, उसे रायगढ़ स्थानांतरित कर दिया गया। इसी तरह, राजगढ़ के बाद, उन्होंने कोंढाणा, लोहगढ़, पन्हाला, सज्जनगढ़, रोहिड़ा, आदि कई किलों पर कब्जा कर लिया।

रिश्तेदारों को लेकर शिवाजी महाराज की नीति

छत्रपति शिवाजी महाराज ने हमेशा रिश्तेदारों की तुलना में जिम्मेदारी को अधिक महत्वपूर्ण माना। बहुत कम लोग जानते हैं कि, शिवाजी महाराज का एक सौतेला भाई था जिसका नाम भी “संभाजी”, जो हमेशा स्वराज्य के रास्ते में आने की कोशिश करता।

शिवराय के बहनोई बालाजी ने भी स्वराज्य के खिलाफ एक अभियान चलाया। इसलिए महाराज को उनके खिलाफ लड़ना पड़ा। इसके अलावा, जब उनके भाई संभाजी उनके रास्ते में आये। तब शिवराय ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और उन्हें दूर दक्षिण के क्षेत्र में स्वराज्य का काम करने के लिए भेज दिया।

शिवराय ने स्वराज्य के मार्ग पर आने वाले किसी को भी माफ नहीं किया। वह व्यक्ति चाहे फिर परिवार से हो या समाज के किसी भी जाती-वर्ग से। उन्होंने हमेशा परिवार और लोगों को निष्पक्ष दृष्टिकोण से देखा। शिवाजी राजे प्रजा पर अपनी संतान जैसा प्रेम करते थे। शायद यही कारन है, लोगों के मन में आज भी, उनके प्रति उतना ही आदरभाव और प्रेम हैं, जितना उनके कार्यकाल में उनसे लोग करते थे।

जावली पर शिवाजी राजे की जीत

इसके बाद, शिवाजी महाराज ने “जावली” पर कब्जा करने की योजना बनाई, जो बहुत चुनौतीपूर्ण थी। जावली में “रायरी” किला था, जो चारों तरफ से घने जंगलो से घिरा था। उन घने जंगलों में दिन में भी धुप जमीं पर नहीं पहुँच पाती थी । इसलिए ऐसे घने जंगलों से तोफे, बारूद आदि भारी युद्धोपयोगी सामाग्री ले जाना कठिन था। जंगल, नदी, खाइ, पहाड़ियां मराठों की दोस्त थी, उनके लिए जंगलों में घूमना, पहाड़ियां चढ़ाना, नदियां पार करना बायें हाथ का खेल था। इसके विपरीत नए लोगों के लिए जावली जैसे जंगों में घूमना आसान नहीं था। इसलिए बड़ी से बड़ी सेनाये भी जावली के जंगलों में आने से डरती थी। जिसके कारण रायरी को जितना आसान नहीं था।

रायड़ी का किला सह्याद्रि पर्वतश्रृंखला में ८५० मीटर (२७०० फुट) ऊँचा था। रायरी और जावली सर करने के बाद, महाराज ने रायरी को “रायगढ़” नाम दिया। स्वराज की राजधानी अधिक सुरक्षित होनी चाहिए, इसलिए महाराज ने राजगढ़ से राजधानी रायगढ़ स्थानांतरित कर दी। इस प्रकार “रायगढ़” स्वराज की नई राजधानी बन गई।
जावली में हुयी इस जीत को स्वराज्य के हित में एक महत्वपूर्ण कदम माना जाता हैं। क्योंकि, इस जीत के बाद स्वराज्य का प्रान्तीय क्षेत्र बढ़कर लगभग दुगुना हो गया था।

अश्वारूढ़ छत्रपति शिवाजी महाराज
शिवाजी महाराज तसवीर, छायाचित्र का श्रेय: राजा रवि वर्मा

आदिलशाह का स्वराज्य पर हमला

रायरी और जावली को हिरासत में लेने के बाद विजापुर में तहलका मच गया। तब आदिलशाही दरबारका का काम संभाल रही थी, बड़ी साहेबिन। दरबारमे एक से बढ़कर एक सरदार उपस्थित थे। बड़ी साहेबिन ने दरबारमे पूछा, “क्या इस पुरे दरबार में एक भी नहीं, जो शिवाजी को जिन्दा या मुर्दा यहाँ ला सके?” तब वाई का सुभेदार सरदार अफजलखान अपनी दाढ़ी सहलाते हुए आगे आया। उसने शिवराय को जिंदा या मुर्दा पकड़ने का विडा उठाया।

अफज़खान की स्वराज्य पर चाल

अफज़खान ने बीजापुर से दस हजार सैनिकों के साथ कूच किया। तब शिवराय राजगढ़ से तुरंत प्रतापगढ़ गए। क्योंकि, घने जंगलो से होकर इतनी बड़ी सेना, गोला-बारूद, हथियार ले जाना मुश्किल था। उस समय, अफ़ज़ल खान ने शिवराय को एक संदेशपत्र लिखा। जिसमें शिवाजी राजे से किले वापस कर दें और साथ में आदिलशाह के अधीन होकर काम करे, ऐसा अनुरोध किया। शिवाजी महाराज अफज़खान कितना कपटी हैं, यह अच्छी तरह से जानते थे।

शिवराय ने अफजलखान को लिखा, “मैं सारे किले लौटाने के लिए तैयार हूँ, मैं आपका दोषी हूँ। तो कृपा कर आप प्रतापगढ़ आईये, क्योंकि मुझे वहाँ आने से डर लगता हैं। अफज़खान उस जवाब को सुनकर बहुत खुश हुआ। उसने सोचा, शिवाजी तो डरपोक और कायर हैं, इससे मेरा क्या मुकाबला ! इस तरह अंत में अफज़खान प्रतापगढ़ आने के लिए तैयार हुआ।

छत्रपति शिवाजी राजेद्वारा अफजल खान का वध

निश्चित समय पर, शिवराय और अफज़लखान दोनों दस अंगरक्षकों के साथ मिलने के लिए सहमत हुए। शिवराय शामियाना में जाने के बाद, अफज़लखान शिवराय को गले लगाने के लिए आगे आया। अफज़लखान के महाकाय देह के सामने शिवराय छोटे लग रहे थे। जब शिवाजी राजे अफज़लखान के गले लगे तब उसने उनका सिर दाहिने बगल में दबाया और खंजर से जोरदार प्रहार किया।

हालांकि, शिवराय को इस तरह की दुर्घटना होने पहले से अनुमान था। इसलिए, शिवाजी महाराज ने पहले से ही कवच पहन रखा था। कपटी अफज़लखान के वार से शिवराय बाल-बाल बच गए। दूसरे ही क्षण, शिवाजी राजे ने हाथ में लगे बाघनखों से अफज़लखान का पेट फाड़ दिया।

तब, दगा-दगा चिल्लाते हुए, हाथी जैसा अफज़लखान जमीं पर गिर पड़ा।

शिवाजी राजे के प्रहार से अफज़लखान की आंतें बाहर निकल आयी। अफज़लखान की यह आवाज सुनकर सय्यद बंडा नाम का उसका अंगरक्षक अंदर आता है। अंदर आते ही उसने शिवाजी राजे पर पीछे दांडपट्टा से प्रहार किया। समय रहते शिवराय का अंगरक्षक जीवा महाला शामियाने में आकर उस प्रहार को अपने उपर लेता हैं। दूसरे क्षण में जीवा महाला अपने पट्टे के एक प्रहार से सय्यद बंडा को मौत के घाट उतरता हैं।

इस तरह शिवराय पहली बार अफज़लखान के जाल से अपने दूरदृष्टि, सतर्कता और सूझ-बुझ के कारन बचे। तो दूसरी बार सय्यद बंडा जैसे धूर्त से अपने विश्वसनीय साथी अंगरक्षक जीवा महाला के कारन बचे। मराठा साम्राज्य के इतिहास में प्रतापगढ़ की यह भेट बहुत महत्वपूर्ण कदम था। क्योंकि मराठा साम्राज्य का पूरा भविष्य इस भेट पर निर्भर था।

भेट के बाद शिवराय ने प्रतापगढ़ के घने वन में छुपे मराठा सैनिको को लड़ाई का संकेत दिया। लड़ाई का संकेत मिलते ही, घात लगाए बैठे मराठा सैनिक “हर हर महादेव” की गर्जना करते हुए आदिलशाही सेना पर टूट पड़े। अचानक से किये इस करारे हमले से आदिलशाही सेना बौखला गयी। मराठा सैनिको ने दुश्मन सेना को संभालने का मौका ही नहीं दिया। देखते ही देखते मराठा सेना ने आदिलशाही फ़ौज को नेस्तनाबूद कर दिया।

आदिलशाही सेना पराजित हुयी इस बात की खबर हवा की तरह चारो दिशाओ में फैल गयी। शिवाजी महाराज के इस पराक्रम से आदिलशाह गुस्से से आगबबूला हो गया।

पन्हाला की घेराबंदी

सन १६६० में, आदिलशाह ने मराठों को हराने के लिए अपने विशेष सरदार को भेजा। उसका नाम था, सिद्धि जौहर, जो एक क्रूर सेना सेनानी था। उसने ४०,००० आदिलशाही सैनिकों के साथ पन्हाला किले को घेर लिया। पन्हाला किले में शिवराय अटक गए। शिवाजी महाराज जल्द से जल्द आत्मसमर्पण कर दे, इसलिए सिद्दी जोहर ने उसकी तरकीब आजमाई। उसने पन्हाला के पास वाले गावो के निर्दोष लोगों पर अत्याचार करना शुरू कर दिया।

पन्हाला अम्बरखाना प्रवेशद्वार
शिवराय द्वारा जीते हुए किलों में से विशेष किला- पन्हाला किले का अंबरखाना प्रवेशद्वार, छायाचित्र का श्रेय: अंकुर पी.

पन्हाला किले पर स्थिति गंभीर

पन्हाला किले के खाद्य भंडार समाप्त हो रहे थे। इसलिए, शिवाजी राजे को घेराबंदी से बाहर निकलना बहुत जरुरी था।

शिवा कासिद का बलिदान

शिवराय के दैनिक जीवन में सहायता के लिए उनका एक सेवक था। जिसका नाम था शिवा कासिद, वह बिलकुल शिवाजी राजे की तरह ही दिखता था। उस समय, उनके साथ विश्वसनीय सरदार थे जिनका नाम बाजीप्रभु देशपांडे था। उन्होंने शिवराय को सुझाव दिया की, शिवा कासिद को अपनी जगह पालखी में बिठाया जाए। तब शिवाजी महाराज ने शिवा कासिद को बुलाकर पूछा, क्या इस काम को पूरा कर सकोगे। शिवा कासिद बोला, “राजे, यह मेरा सौभाग्य होगा, अगर में स्वराज्य के काम में थोड़ा भी सहयोग कर पाऊँ!”

शिवराय ने रात को किले से निकलने की योजना बनाई। बारिश का मौसम था, बाहर भारी बारिश हो रही थी, उपर से रात का घना अंधेरा। घेराबंदी से बचना आसान नहीं था, इसलिए दुश्मन को विचलित करना जरुरी था। शिवा काशिद ने शिवाजी महाराज के कपड़े, सिर पर जिरटोप, गले में कवड़े की माला पहनी। और सौ मावलों के साथ वह महाराज की पालखी में बैठकर आगे जाता हैं। तो दूसरी तरफ, शिवाजी महाराज की पालखी ६०० चुनिंदा मावलों को लेकर खुफिया रास्ते से आगे बढ़ती हैं।

बाहर निकलने के बाद शिवा कासिद की पालकी कुछ देर में दुश्मनो के हाथ लग जाती हैं। आदिलशाही सेना इस गलतफहमी में गाफिल रहने लगी की, शिवाजी महाराज को पकड़ लिया गया हैं। दूसरी और सिद्धी जौहर ने कभी शिवाजी राजे को पहले नहीं देखा था। लेकिन कुछ देर में अफजलखान का पुत्र फजलखान आता हैं, जिसने शिवाजी महाराज का चेहरा देखा था। उसने जांच करने पर सिद्धि जौहर को पता चल जाता हैं की, ये तो शिवाजी महाराज नहीं हैं। शिवा कासिद शिवाजी राजे नहीं हैं यह असली पहचान सामने आते ही, शिवा कासिद का सर धड़ से अलग कर दिया जाता हैं।

शिवराय का घेराबंदी भेदकर विशालगढ़ की ओर प्रस्थान

शिवराय घेराबंदी तोड़कर निकल गए, यह बात सुनकर सिद्धी जौहर गुस्से से लाल हो जाता हैं। वह तुरंत शिवाजी महाराज का पीछा करने के लिए एक बड़ी सेना के साथ सिद्धि मसूद को भेजता है। आखिरकार, घोड़ खिंड के पास में मसूद की सेना शिवराय के सैनिको के नजदीक आ जाती हैं।

बाजीप्रभु देशपांडे की स्वराज्यभक्ति

शिवाजी महाराज अपने साथी सरदार बाजीप्रभु देशपांडे से बोले, “बाजी, अब विशालगढ़ तक पहुँचना मुश्किल, इसलिए चलो पीछे मुड़कर गनीमों का सामना करें।” तब बाजीप्रभु बोले,”राजे, कृपा कर आप आगे जाए, मैं आधे मावलों के साथ यही पर गनीमों को रोकता हूँ।

आप जब तक विशालगढ़ नहीं पहुँच जाते, आपसे वादा करता हूँ, मेरे जितेजी एक भी गनीम को इस घोडखिंड की घाटी पार नहीं करने दूँगा।” शिवराय बोले,”नहीं बाजी, नहीं। में तुम्हे सबकुछ जानते हुए भी अकेले मृत्यु के मुँह में कैसे ढकेल दूँ। हम दोनों साथमे गनीमों का सामना करेंगे, जो होगा वो देखा जायेगा। मृत्यु से भयभीत होकर भागनेवालो में से हम नहीं।”

बाजीप्रभु बोले,”राजे, गनीम भी तो यही चाहता हैं, की मराठाओं के स्वराज्य के सपने को चूर-चूर करा जाए। लाख मरे तो भी चलेगा पर लोखों का पालनहार जीना चाहिए। मेरे जैसे सैकड़ो बाजी आपको मिल जायेंगे, पर आप जैसे राजा हमें फिर से नहीं मिलेंगे।”

शिवाजी महाराज बाजीप्रभु से आखिरी बार गले मिलते है।

शिवराय बाजीप्रभु जैसे साथी को अकेले नहीं छोड़ना चाहते थे। पर स्वराज्य के पवित्र कार्य को आगे बढ़ाने के लिए उनका जिन्दा रहना जरुरी था। शिवराय बाजीप्रभु से बोले की, “हम विशालगढ़ पहुंचते ही तीन बार तोपें दागने के लिए कहेंगे, उन तोपों का आवाज सुनते ही तुम खिंड छोडके विशालगढ़ की और प्रस्थान करो।”

समय कीमती था, और दुश्मन की पीठ पर, शिवराय ने दिल पर पत्थर रख कर विशालगढ़ की ओर कूच किया। बाजीप्रभु ने अपने राजा को पालखी से जाते हुए, आखिरी बार मुजरा किया। धीरे-धीरे पालखी आखों ओझल होती गयी।

घोडखिंड की लड़ाई

बाजीप्रभु ने आदिलशाही सेना से लड़ाई के लिए अपनी तैयारी शुरू कर दी। सभी मावलों (मराठा सैनिकों) के साथ बाजीप्रभु ने अपनी रणनीति बनाना आरंभ किया। सभी सैनिकों ने गनिमी कावा युद्धनीति के तहत पत्थर इकट्ठा करना शुरू किया। सभी मावले घोडखिंड के द्विभागीय ऊँचे पहाड़ो पर अपने नियुक्त स्थान पर छिप गए।

बाजीप्रभु देशपांडे का बलिदान

कुछ ही देर में सिद्धि मसूद के फौज के पहले दस्ते ने घोड़खिंड में प्रवेश किया। बाजीप्रभु ने उस सेना टुकड़ी को घोड़खिंड के बीचोबीच आने तक प्रतीक्षा की। दुश्मन बीचोबीच आते ही बाजीप्रभु ने दुश्मनों पर पत्थरों की वर्षा करने का आदेश दिया। हर हर महादेव की गर्जना कर मराठा मावले आदिलशाही सेना पर टूट पड़े। ऊंचाई से किये इस हमे से पहला दस्ता बुरी तरह से चित हो गया। बचे कुछ सैनिकों को निचे खड़े समशीरधारक मावले काट डालते हैं।

इसी तरह सरदार बाजीप्रभु देशपांडे ने मुठ्ठीभर मराठा मावलों के साथ सैकड़ो आदिलशाही सैनिकों का खात्मा किया। लेकिन सिद्धि मसूद की सेना संख्या में कई गुना अधिक थी। बाजीप्रभु रक्त में सन्न हुए बाजीप्रभु दोनों हाथों में तलवार लिए दुश्मनो से लड़ रहे थे।

अंततः मसूद के सैनिक बाजीप्रभु को घेर लेते हैं, और उन पर हर तरफ से हमला करते हैं। अब बाजीप्रभु गंभीर रूप से घायल होकर ज़मीन पर गिर गए। इतने में तीन बार आकाश में तोपों की कड़कड़ाहट सुनाई दी। बाजीप्रभु बोले, “राजे गड पर सुरक्षित पहुंच गए, मैंने अपना कर्त्तव्य पूरा किया, अब में खुशी से मर सकूंगा।” इस तरह से स्वराज्य के प्रति अपार निष्ठा रखनेवाले बाजीप्रभु देशपांडे का अंत हो गया।

कभी-कभी, हमारी मातृभूमि रक्त के लिए आह्वान करती है, तब बाजीप्रभु जैसे देशभक्त अपने रक्त का अभिषेक करके, अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता बनाए रखते हैं। ऐसे वीर योद्धा को शत-शत नमन!

पन्हाला किले में से बाजीप्रभु देशपांडे का स्मारक

पन्हाला किल में बाजीप्रभु देशपांडे का स्मारक
पन्हाला किले में बाजी प्रभु देशपांडे की मूर्ति, छायाचित्र का श्रेय: अंकुर पी.

छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा शाहिस्ताखान को सजा

मराठो का बंदोबस्त करने औरंगजेब ने उसके चाचा शाहिस्ताखान को डेक्कन भेज दिया। औरंगजेब की कमान में, शाहिस्ताखान ने १.५ लाख मुगल सैनिकों के साथ स्वराज्य पर चढ़ाई की। शिवाजी राजे उसके शरण में आये, इसलिए उन्होंने गाँवों को लूटने, मंदिरों को नुकसान पहुँचाने और किसानों की फसलों को नुकसान पहुँचाना शुरू किया। उसने लाल महल पर कब्ज़ा कर वहा अपना डेरा बिछाया। उस समय, शिवराय ने शाहिस्तेखान को ठिकाने लगाने के लिए लाल महल जाने का साहसिक निर्णय लिया।

लाल महल जाने का निर्णय बहुत ही आत्मघाती था, पर स्वराज्य का नुकसान रोकने हेतु शाहिस्तेखान को सबक सिखाना जरुरी था। क्योंकि डेढ़ लाख की सेना से घिरे महल में जाना आत्महत्या करने जैसा ही था। लेकिन महाराज बहुत दृढ़निश्चयी। उन्होंने उनके चुनिंदा साथियों को लेकर एक विवाह की बारात के माध्यम से पुणे में प्रवेश किया।

सन १६६३ में, महाराज ने बड़ी चतुराई के साथ लाल महल की दीवार को तोड़कर किले में प्रवेश किया। थोड़ी देर मे जब महल में खबर फैलती गयी, कि शिवजी ने महल में प्रवेश किया हैं। इतना काफी था, शाहिस्तेखान की नींद हराम करने के लिए। उसे समझ नहीं आ रहा था की क्या करे, और कहा छिपे।

कुछ महिलाये जानती थी की, शिवराय महिलाओं की जाँच नहीं करेंगे, क्योंकि वो उनका सम्मान करते हैं। इसलिए, शाहिस्तेखानने महिलाओं के कपडे पहने और महिलाओं के बिच जाकर छुप गया। तब शिवाजी राजे के एक साथी ने शाहिस्तेखान को स्त्रयों के भेस में भी पहचान लिया। तब वह साथी चिल्लाया, “महाराज, खान!”

शाहिस्तेखान पहचान में आते ही, शिवराय उसका पीछा करते हैं। दूसरा कोई रास्ता नजर न आने पर, शाहिस्तेखान बालकनी से निचे कूदा। पर कूदते समय शाहिस्तेखान के हाथ की तीन उँगलियाँ शिवाजी महाराज के तलवार से कट जाती हैं।

लाल महल में से
छत्रपति शिवाजी महाराज ने शाहिस्तेखान की उंगलियां काट दीं इस प्रसंग का नक़्क़ाशीदार उत्कीर्णन, छायाचित्र का श्रेय: अभय भोसले

शायद आप यह पढ़ने में रूचि रखते है,

लक्ष्मीबाई- झाशी की अद्भुत क्रन्तिकारी

पुरंदर किले की घेराबंदी

निश्चित रूप से पुरंदर का किला पुणे के दक्षिण में शिवाजी राजे का एक बहुत ही महत्वपूर्ण किला था। सूरत लूटने के बाद, औरंगज़ेब उग्र हो गया और सेनापति मिर्जा जय सिंह और दिलेर खान के साथ विशाल सेना भेजी।

पुरंदर किले के किले सेनानायक और किल्लेदार थे मुरारबाजी देशपांडे। वे छत्रपति शिवाजी महाराज के साहसी योद्धाओं में से एक थे।

मुझे उम्मीद है कि आपको छत्रपति शिवाजी महाराज की जीवनी पसंद आयी होगी। अगर आपको यह लेख पसंद आया हो, तो इसे सोशल मीडिया पर शेयर करना न भूलें। आपका यह छोटा प्रयास हमें आपके लिए अधिक रोचक सामग्री तैयार करने में मदद करता है।

पुरंदर की लड़ाई

मुरारबाजी हिंदवी स्वराज्य के प्रति बहुत वफादार थे। मुरारबाजी केवल ७०० सैनिकों के साथ युद्ध के लिए तैयार हो गए। उसने किले से हमला शुरू किया और किले की ऊंचाई का फायदा उठाते हुए बहुत सारे सैनिकों को बाणों से छन्नी कर डाला।

लड़ाई के आखिरी दौर में वे दोनों हाथों में तलवारें लिए शत्रु पर टूट पड़े। मुरारबाजी ने कई मुगल सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। मुरारबाजी कुछ ही सैनिकों के साथ लड़े, लेकिन उन्होंने मुगल सेना में तबाही मचा दी।

दिलेर खान ने मुरारबाजी के जबरदस्त साहस को देखा और उन्हें एक अच्छी तनख्वाह और इनाम के रूप में जमीन के साथ बड़ी नौकरी का प्रस्ताव रखा। तब मुरारबाजी ने दिलीर खान से कहा कि,

“मैं औरंगज़ेब के खेमे में रहने के बजाय अपनी जान कुर्बान करना पसंद करूँगा! मेरी मेहनत की रोटी मुझे मीठी लगती है…!!”

पुरंदर की संधि

शिवराय ने चतुराई से मिर्जा जय सिंह से बात की। महाराज बोले, “आप राजपूत है इसलिए आप हमारी परेशानी और दर्द को समझ सकते है। मुग़ल अत्याचार से जनता तकलीफ में है, इसलिए उनका दिल्ली के तख़्त पर होना मुनासिब नहीं। अगर आप बोले तो दिल्ली में भी हिन्दवी स्वराज्य का ध्वज लहार सकता है, चाहे तो आप बैठे गद्दी पर।”

लेकिन, मिर्जा जय सिंह बहुत धूर्त था उसने छत्रपति शिवराय को दिल्ली जाकर मुगल सम्राट से मिलने के लिए कहा।

इस संधि के अनुसार महाराज ने अपने २३ किले और चार लाख होण तक आय होनेवाली भूमि मुगलों को दे दी। १८वीं शताब्दी में मराठा और मुगलों के बीच यह संधि हुई थी।

Subscribe To Our Newsletter

Subscribe To Our Newsletter

Join our HN list to receive the latest blog updates from our team.

You have Successfully Subscribed to HN list!

Subscribe Now For Future Updates!

Join and recieve all future updates for FREE!

Congrats!! Now you are part of HN family!

Pin It on Pinterest