परिचय
आपने अबतक कई राजा-महाराजों की कहानियाँ सुनी होगी। पर आज में आपको ऐसे राजा की कहानी साझा कर रहा हूँ, जिसने न सिर्फ खुद का राज्य खड़ा किया बल्कि उन्होंने हर हिंदुस्तानी के दिल पर राज किया। वो कोई और नहीं बल्कि छत्रपति शिवजी महाराज ही थे, जिन्होंने अपना पूरा जीवन प्रजा के कल्याण हेतु समर्पित किया।
प्राचीन काल से लेकर पुरातन काल तक, कई अलग-अलग क्षेत्रों के भारतीय राजाओं ने विदेशी दासता और अन्यायपूर्ण शासन के खिलाफ लड़ाई लड़ी।
भारतीय इतिहास में छत्रपति शिवाजी महाराज का उल्लेख इन महान राजाओं में किया जाता है। उनकी महानता में कई चीजों का योगदान था, जिनमें से एक थी गरीब जनता के प्रति उनकी संवेदनशीलता।
उनके मजबूत नेतृत्व और स्व-शासन के जुनून ने उन्हें जीवन भर कई वफादार साथी दिए। यह शिवराय ही थे जिन्होंने इस स्वराज्य के साथियों को एक साथ लाया और स्वराज्य का निर्माण कराया। उन्होंने न केवल महाराष्ट्र में बल्कि दक्षिण भारत में भी स्वराज्य का विस्तार किया।
दुश्मनों से घिरे रहने के बजाय, उन्होंने मराठा साम्राज्य की स्थापना और विस्तार काफी हद तक किया। अगर हम इतिहास पढ़ें तो भारतीय इतिहास में कई राजा थे। जिन्होंने शिवाजी महाराज से प्रेरणा ली।
मैं इस छत्रपति शिवाजी महाराज की जीवनी के जरिये उनका इतिहास उनके जीवन में घटित महत्वपूर्ण घटनाओं की सहायता से आपके समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ।
यदि हम छत्रपति शिवराय की प्रशंसा करना चाहें, तो यह जीवनी भी शायद पर्याप्त नहीं होगी। फिर भी यदि हम संक्षेप में वर्णन करना चाहें, तो वे पूरे इतिहास में सम्राट चन्द्रगुप्त के अलावा एकमात्र ऐसे राजा थे, जिनका जन्म राजा के रूप में नहीं हुआ था। यानी वे किसी रियासत के राजकुमार नहीं थे।
मेरे ख्याल से, यह जीवनी निश्चित रूप से इतिहास प्रेमियों के लिए एक दिलचस्प होगी। फिर भी, इसे एक बार में पढ़ना शायद संभव ना हो, इसलिए कृपया ब्लॉग को बुकमार्क कर लें, ताकि बाद में आपको पढ़ने में दिक्कत ना हो।
आरंभ करने से पहले बताना चाहता हूँ की छत्रपति शिवाजी राजे के कई नाम थे। तो उनके जीवन काल के अनुसार मैंने नीचे उनके मराठी नामों का प्रयोग किया है। उनके जीवनकाल के अनुसार नीचे दिए उनके मराठी नामों का प्रयोग मैने इस जीवनी में किया है।
नाम
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जीवन काल
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शिवबा, बाल शिवाजी
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बाल्यावस्था
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शिवराय, शिवाजी महाराज, शिवाजी राजे
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राज्याभिषेक से पहले
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छत्रपति शिवराय, छत्रपति शिवाजी महाराज, छत्रपति शिवाजी राजे
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राज्याभिषेक के बाद
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संक्षिप्त जानकारी
तथ्य
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जानकारी
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परिचय
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मराठा साम्राज्य के संस्थापक और प्रथम छत्रपति
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जन्म की तारीख
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१९ फरवरी, ईसवी १६३०
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जन्म स्थान
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शिवनेरी किला, पुणे जिला, महाराष्ट्र
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माता-पिता
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पिता: , शाहजीराजे भोसले, माता: जीजाबाई
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अवधि
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ईसवी १६७४ – ईसवी १६८०
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पत्नी
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साईबाई निंबालकर, सोयराबाई मोहिते, काशीबाई जाधव, सगुनाबाई, सकवारबाई गायकवाड़, गुणवंताबाई, पुतालाबाई पालकर, लक्ष्मीबाई
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संतान
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बेटे: छत्रपति संभाजी महाराज, छत्रपति राजाराम महाराज, बेटीयाँ: सखूबाई निंबालकर, रानूबाई जाधव, अंबिकाबाई महाडिक, राजकुमारीबाई शिर्के
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साथी और सरदार
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तानाजी मालुसरे, बाजी पासलाकर, मुरारबाजी देशपांडे, बाजीप्रभु देशपांडे
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परम प्रेरणास्रोत – माता जीजाबाई
जीजाबाई बुलढाणा की राजकुमारी के साथ-साथ लखुजीराव जाधव की बेटी भी थीं। लखुजीराव निज़ाम के सेनापति थे, इसलिए बहुत कम उम्र से ही वे वास्तविक स्वतंत्रता के महत्व को समझ गए थे।
वह स्वतंत्रता निश्चित रूप से बाहरी शासकों द्वारा दी गई जागीर से नहीं आई थी।
इसलिए, जब जीजाबाई जीजामाता बनीं, तो उन्होंने उन्ही मूल्यों के साथ शिवबा को बड़ा किया। जिजामाता शिवबा को रोज शूरवीर महाभारत, रामायण तथा महान राजा-महाराजों की कहानियां सुनाती थीं।
छोटे शिवबा को अर्जुन के वीर व्यक्तित्व की कहानियाँ सुनाने पर शिवबा भी अपने कोमल हाथों में तलवार लिए बोलता, “में भी बड़े होकर अधर्मियों का नाश करूँगा!”
ये देखकर जिजामाता के अंतर्मन को लगता की, सच में यदि ऐसा होता, तो कितना अच्छा होता।
पर किसे पता था की, माँ भवानी की यही इच्छा थी की शिवबा के हाथों धर्म के रक्षा हेतु स्वराज्य का पवित्र कार्य शुरू होनेवाला था।
जीजाबाई द्वारा दी गई शिक्षाएं और मूल्य
शिवबा के बचपन में बहुत दोस्त थे। शिवबा जब भी दोस्तों के साथ घर जाते वहा खाना भी खाते। उन्होंने अपने जीवनकाल में कभी भी जातिवाद का पालन नहीं किया। यह वास्तव में असाधारण व्यवहार था, क्योंकि समकालीन शाही परिवार अस्पृश्यता और जातिवाद का पालन करते थे।
लोग इस बात को भली भाँति मानते है,
“पैसा कमाना आसान हो सकता है, लेकिन लोगों को कमाना मुश्किल होता है!”
छोटे शिवबा ने अपनी माता के आदर्शो को सर्वपरी मानते हुए इस तरह की अत्याचारी परंपरा का पालन नहीं किया। यही एक कारण है, कि उन्होंने समाज के हर स्तर के लोगों का दिल जीत लिया।
उनके तानाजी, बाजीप्रभु, येसोजी जैसे कई सारे मित्र बने। वे सभी लोग स्वराज्य की शपथ के साथ एकसाथ बंधे हुए थे।
अतुलनीय जासूस विभाग
शिवराय दुश्मन की हर हरकत पर नजर रखते थे। शत्रु को जानकारी के बिना, उससे जानकारी प्रदान करना कठिन होता है। कई बार जासूसों को अपनी जान जोखिम में डालनी पड़ती है।
मराठों के गुप्तचर प्रमुख बहिरजी नाइक किसी भी रूप में भेष बदलने के लिए निपुण थे। शिवराय के अलावा कोई भी रूप बदलने के बाद उन्हें पहचान नहीं पाता था। बहिर्जी नाइक जैसे दिग्गज गुप्तचरों के वजह से वे स्वराज्य की ताकत बन गए।
शिव छत्रपति के जन्म से पहले का भारत
शिवाजी महाराज के शासनकाल से पहले, भारत के राजा-महाराजाओं ने जनता पर बेहद अत्याचार और शोषण किया था। राजाओं और प्रादेशिक अधिकारि देश की जनता के बारे में नहीं सोचते थे। दक्षिण में सम्राट कृष्ण देवराय जैसे शक्तिशाली हिंदू राजा थे। जो राज्य की जनता का अच्छे से ख्याल रखा करते थे। वह अपने विख्यात साम्राज्य विजयनगर और प्रभावी प्रशासन के लिए प्रसिद्ध थे।
अहमदनगर के सुल्तान निज़ामशाह और बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह के अधीन महाराष्ट्र मुख्यतः दो भागों में विभाजित था। अत: निज़ामशाह और आदिलशाह के बीच सदैव संघर्ष होता था। लगातार लड़ाई के कारण इस राज्य की जनता बहुत दुखी और हताश थी। दोनों राज्यों के बीच संघर्ष के कारण जनता को बहुत कष्ट सहना पड़ता।
शिवराय ने सबसे पहले प्रजा की दुर्दशा देखी और ऐसे समय में जब स्वतंत्र राज्य की कल्पना भी संभव नहीं थी, उन्होंने सबसे पहले स्वशासन का सपना देखा। अपनी बुद्धि, युद्ध कौशल (गनिमी कावा) और अद्वितीय राजनीति के माध्यम से न केवल सपना देखा बल्कि उसे साकार भी किया।
महान संतों का महाराष्ट्र
शिव के जन्म से पहले और उनके समय में ऐसे कई संत हुए जिन्होंने न केवल महाराष्ट्र में बल्कि पूरे भारत में भक्ति आंदोलन को चरम पर पहुंचाया। उनकी शिक्षाओं से विशेषकर महाराष्ट्र में एक नई परंपरा का उदय हुआ। इसका एक उदाहरण आषाढ़ी-कार्तिकी वारि हैं जो हर साल महाराष्ट्र के विभिन्न तीर्थस्थलों से पंढरपुर तक जाती हैं।
इसी समय दौरान, संत नामदेव और संत ज्ञानेश्वर के समय में वारकरी संप्रदाय का उदय हुआ। इस संप्रदाय ने विठ्ठल की भक्ति, सात्विक आचरण के महत्व पर जोर दिया।
शिवराय के जन्म से पहले श्री चक्रधर स्वामी, संत नामदेव, संत ज्ञानेश्वर, संत एकनाथ, संत तुकाराम, संत रामदास स्वामी जैसे संत थे। इन संतों ने लोगों को दया, अहिंसा, भक्ति, ईश्वर सेवा, साहस, भाईचारे का पाठ पढ़ाया।
जन्म
शिवाजी राजे का जन्म १९ फरवरी, १६३० को पुणे जिले के पास शिवनेरी किले में हुआ था। शिवराय के पिता का नाम शहजी राजे था | जो विजापुर के सुल्तान आदिलशाह के दरबार में सेना प्रमुख थे। शिवराय के जन्म के समय, उनके पिता शहजी राजे मुगल आक्रमण का मुकाबला करने के लिए अभियान पर गए थे।
महाराष्ट्र में शिव जयंती वर्ष में दो बार मनाई जाती है। आप कहेंगे दो बार जन्मदिन कैसे मनाया जा सकता है? इसका जवाब है, दो अलग-अलग कालक्रम | एक है ग्रेगोरियन कालक्रम और दूसरा है मराठी कालक्रम। ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार, शिवाजी महाराज का जन्मदिन १९ फरवरी को आता है। और मराठी कैलेंडर के अनुसार, छत्रपति शिवराय की जन्म तिथि फाल्गुन विद्या तृतीया (फाल्गुन महीने के तीसरे दिन, यह दिन सालाना फरवरी या मार्च में आता है) के दिन आती है।
इस प्रकार, साल में शिवाजी महाराज जयंती दो बार मनाई जाती हैं। इस दिन, महाराष्ट्र में शिव जयंती उत्सव में शोभा यात्रा निकलती हैं | इस दिन राजधानी रायगढ़ के किल्ले में बड़ा खुशी का माहौल होता है। शिवराय की प्रतिमा को सुंदर फूलों से सजाया जाता है। छत्रपति शिवाजी महाराज की जयजयकार के साथ आसमान गूंज उठता हैं। हजारो की संख्या में लोग यह देखने किल्ले रायगढ़ जाते हैं।
जयंती का अर्थ है जन्मोत्सव, भारत में हम सभी महान नेताओं, महात्माओं, तथा समाजसेवकों की जयंती मनाते है। तो दूसरी ओर पुण्यतिथि का मतलब होता है मृत्युदिन, यह दिन धूम-धाम से जलसों का आयोजन करके तो नहीं मनाया जाता। लेकिन इस दिन उन महान व्यक्तित्वों का पुण्यस्मरण जरूर किया जाता है।
बचपन और प्रारंभिक जीवन
गुरु दादोजी कोंडदेव ने शिवाजी महाराज सात वर्ष के थे तब उनकी प्राथमिक शिक्षा शुरू की। दादोजी कोंडदेव ने उन्हें भाला, पट्टा, तलवार आदि का इस्तेमाल सिखाया। शस्त्र के साथ में पंडितों और माता जीजाबाई द्वारा शास्त्र यानी संस्कृत, राजनीति, कूटनीति जैसे महत्वपूर्ण विषयों की भी शिक्षा दी। बचपन में, उनकी माँ जीजाबाई उन्हें रामायण, महाभारत और अन्य नायकों की कहानियाँ सुनाया करती थीं।
शिवाजी महाराज सम्राट श्रीकृष्णदेवराय जैसे महान राजा से काफी प्रेरित थे। सम्राट श्रीकृष्णदेवराय सोलवी शताब्दी में दक्षिण भारत के एकमात्र शक्तिशाली हिंदू राजा थे। छोटी उम्र से ही शिवाजी महाराज के पास एक अच्छा नेता बनने के लिए आवश्यक सभी कौशल थे।
शिवाजी महाराज की राजमुद्रा
प्रतिपच्चंद्रलेखेव वर्धिष्णुर्विश्ववंदिता | शाहसुनोः शिवस्यैषा मुद्रा भद्राय राजते ||
– शिवाजी महाराज
राजमुद्रा का अर्थ
प्रतिपदा के चंद्र के समान बढ़ने वाली विश्व में वंदनीय ऐसी शहाजी के पुत्र शिवाजी (राजे की) यह राजमुद्रा सिर्फ प्रजा के कल्याण के लिए विराजमान होती हैं।
ऊंचाई और वजन
शिवराय का वजन: इंग्रज अधिकारी हेनरी औक्सिन डेन के रिकॉर्ड के अनुसार ६६ किलोग्राम था| राज्याभिषेक के समय शिवाइज राजे के वजन जितना स्वर्ण तोला गया था| जिसे सुवर्ण तुला की विधि कहते है| तब उनका वजन १६० पाउंड का मतलब ७३ किलोग्राम था। लेकिन अगर उनके कपड़े, गहने, कट्यार, तलवार, श्री विष्णु की मूर्ति आदि का वजन हटाने पर उनका असली वजन लगभग १४५ पाउंड होना चाहिए, जो कि ६६ किलोग्राम है।
शिवाजी राजे का कद: शिवराय की ऊँचाई इतिहासकारो के मुताबिक लगभग १६८ सेमी, ५ फीट ६ इंच होनी चाहिए।
रायरेश्वर के मंदिर में स्वराज्य स्थापना की शपथ
बहुत कम उम्र में, शिवाजी महाराज ने स्वराज के लिए विश्वसनीय साथियों का गठन करना शुरू किया| उन्होंने गुप्त मार्गों के बारे में जानकारी भी इकट्ठा की। फिर एक दिन अचानक से शिवराय अपने साथियों को लेकर रायरेश्वर के मंदिर गए।
अपने साथियों के सामने उन्होंने बोलना शुरू किया, “दोस्तों आज में आपसे हम सबके बारे में बात करना चाहता हूँ। आज वैसे देखा जाये तो हमारा सब कुछ सही चल रहा है। सबको किसी की कमी महसूस नहीं होती| पर फिर भी मई आपसे सवाल करना चाहता हूँ| क्या आप सही में अंदर से खुश है? क्या आपपे कोई हुकूमत करे, और उसके सहारे हम अपना जीवनव्यापान करे, क्या यह आपको मंजूर है?” क्या आप दुसरो की गुलामी कर जीना पसंत है?”
शिवाजी राजे अब गुस्से से लाल हो गए थे| अब उनके साथी मित्र एकसाथ होकर बोले, “आप बोले तो हम आपने प्राण त्याग देंगे| आप बस बोलो हमें क्या करना है?”
शिवाजी राजे बोले, “भाइयों अब समय आ गया है, अपनी मिट्टी को गुलामी की जंजीरो से आज़ाद करने का। तो आओ हम आज साथ में भगवान महादेव के सामने यह प्रण लेते हैं की, जब तक इस स्वतंत्रता के लिए प्यासे हिंदुस्तान को आज़ादी का पानी पीला नहीं देते, हम चैन से नहीं बैठेंगे। ये हिंदवी स्वराज्य होना चाहिए, यह तो परमेश्वर की इच्छा हैं। तो आओ इस इच्छा को हम मिलकर पूरा करें।”
ये हिंदवी स्वराज्य होना चाहिए; यह तो श्रीं की इच्छा।
– शिवाजी महाराज
स्वराज्य के लिए दौड़
शिवराय ने सोलह वर्ष की आयु में, अपने साथियों, सैनिकों और हथियारों को इकट्ठा करना शुरू कर दिया था। उन्होंने तोरना किले से अपना अभियान शुरू किया। तोरना किला आदिलशाह के उपेक्षित किलों में से एक था।
दूसरी और इसकी सुरक्षा के लिए पर्याप्त सैनिक नहीं थे। शिवराय ने किले पर नजर रखी और मौका मिलते ही, कुछ सैनिकों के साथ किले पर कब्ज़ा कर लिया। इस प्रकार शिवाजी राजे ने स्वराज्य की नींव रखी। किला बहुत बड़ा होने के कारन, महाराज ने इस किले को “प्रचंडगढ़” नाम दिया।
युद्ध में आक्रमक वृति के वजह, समझदारी से अपनी शक्ति का उपयोग करना शिवराय अच्छी तरह जानते थे। कुछ लोग गनिमी कावा को पीछे से किया हुआ वार हमला समझते हैं। तो उनको में बताना चाहता हूँ, की ऐसा नहीं हैं। गनिमी कावा एक युद्ध प्रणाली हैं, जिसमें कम सैनिकों के साथ अपनो से कई गुना शक्तिशाली दुश्मन के साथ लढना होता हैं।
तब कम सैनिकों के साथ खुले मैदान में लढना संभव नहीं होता। इसीलिए इस युद्ध प्रणाली में दुश्मन के ठिकाने का पता लगाकर, उसपर नजर रखकर सही मौका देखकर उसपर हमला करते हैं।
शिवाजी राजे की भवानी तलवार
मराठी लोगों का मानना है कि भवानी तलवार भवानी माता की दी हुई तलवार थी। भवानी माता शक्ति की देवी हैं और उन्हें आदि शक्ति भी कहा जाता है, जिसका अर्थ हिंदू धर्म की सर्वोच्च देवी है।
जैसा कि इस विषय के बारे में जनता की धार्मिक मान्यताएँ हैं, मैं इस पर बहस नहीं करना चाहता कि यह सही है या नहीं। लेकिन, एक बात तय है, यह तलवार महाराज की बेहद खास थी।
मेरा मानना है कि, छत्रपति भवानी देवी के बहुत बड़े भक्त थे, इसलिए उन्होंने अपनी तलवार को अपनी इष्ट देवी का नाम दिया होगा।
उन्होंने अपने जीवनकाल में कई तलवारों का इस्तेमाल किया, लेकिन उनकी तुलजाई (तुलजा फिरंगा), भवानी और जगदंबा नाम की तीन तलवारें मराठी लोगों के बीच बहुत प्रसिद्ध है।
उन तलवारों में जगदंबा तलवार वर्तमान में रॉयल कलेक्शन ट्रस्ट, सेंट जेम्स पैलेस, लंदन में थी, जो इंगलैंड की रानी का निजी संग्रहालय था।
स्वराज्य की पहली राजधानी
तोरणा किले के पास एक और किला था। वह किला पूरी तरह से बना नहीं था। शिवाजी महाराज ने उस किले पर कब्जा कर लिया और अधूरे किले का काम पूरा किया। शिवाजी राजे ने इस किले का नाम राजगढ़ रखा।
शिवराय ने राजगढ़ को स्वराज्य (मराठा साम्राज्य) की पहली राजधानी बनाई। बाद में, उसे रायगढ़ स्थानांतरित कर दिया गया। इसी तरह, राजगढ़ के बाद, उन्होंने कोंढाणा, लोहगढ़, पन्हाला, सज्जनगढ़, रोहिड़ा, आदि कई किलों पर कब्जा कर लिया।
रिश्तेदारों के प्रति शिवराय की नीति
छत्रपति शिवाजी महाराज ने हमेशा रिश्तेदारों की तुलना में जिम्मेदारी को अधिक महत्वपूर्ण माना। बहुत कम लोग जानते हैं कि, शिवाजी महाराज का एक सौतेला भाई था जिसका नाम भी “संभाजी”, जो हमेशा स्वराज्य के रास्ते में आने की कोशिश करता।
शिवराय के बहनोई बालाजी ने भी स्वराज्य के खिलाफ एक अभियान चलाया। इसलिए महाराज को उनके खिलाफ लड़ना पड़ा। इसके अलावा, जब उनके भाई संभाजी उनके रास्ते में आये। तब शिवराय ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और उन्हें दूर दक्षिण के क्षेत्र में स्वराज्य का काम करने के लिए भेज दिया।
शिवराय ने स्वराज्य के मार्ग पर आने वाले किसी को भी माफ नहीं किया। वह व्यक्ति चाहे फिर परिवार से हो या समाज के किसी भी जाती-वर्ग से। उन्होंने हमेशा परिवार और लोगों को निष्पक्ष दृष्टिकोण से देखा।
शिवाजी राजे प्रजा पर अपनी संतान जैसा प्रेम करते थे। शायद यही कारन है, लोगों के मन में आज भी, उनके प्रति उतना ही आदरभाव और प्रेम हैं, जितना उनके कार्यकाल में उनसे लोग करते थे।
जावली पर शिवराय की विजय
इसके बाद, शिवाजी महाराज ने “जावली” पर कब्जा करने की योजना बनाई, जो बहुत चुनौतीपूर्ण थी। जावली में “रायरी” किला था, जो चारों तरफ से घने जंगलो से घिरा था। उन घने जंगलों में दिन में भी धुप जमीं पर नहीं पहुँच पाती थी ।
इसलिए ऐसे घने जंगलों से तोफे, बारूद आदि भारी युद्धोपयोगी सामाग्री ले जाना कठिन था। जंगल, नदी, खाइ, पहाड़ियां मराठों की दोस्त थी, उनके लिए जंगलों में घूमना, पहाड़ियां चढ़ाना, नदियां पार करना बायें हाथ का खेल था।
इसके विपरीत नए लोगों के लिए जावली जैसे जंगों में घूमना आसान नहीं था। इसलिए बड़ी से बड़ी सेनाये भी जावली के जंगलों में आने से डरती थी। जिसके कारण रायरी को जितना आसान नहीं था।
रायरी का किला सह्याद्रि पर्वतश्रृंखला में ८५० मीटर (२७०० फुट) ऊँचा था। रायरी और जावली सर करने के बाद, महाराज ने रायरी को “रायगढ़” नाम दिया। स्वराज की राजधानी अधिक सुरक्षित होनी चाहिए, इसलिए महाराज ने राजगढ़ से राजधानी रायगढ़ स्थानांतरित कर दी। इस प्रकार “रायगढ़” स्वराज की नई राजधानी बन गई।
जावली में हुयी इस जीत को स्वराज्य के हित में एक महत्वपूर्ण कदम माना जाता हैं। क्योंकि, इस जीत के बाद स्वराज्य का प्रान्तीय क्षेत्र बढ़कर लगभग दुगुना हो गया था।
अफ़ज़ल खान का स्वराज्य पर आक्रमण
रायरी और जावली को हिरासत में लेने के बाद विजापुर में तहलका मच गया। तब आदिलशाही दरबारका का काम संभाल रही थी, बड़ी साहेबिन। दरबारमे एक से बढ़कर एक सरदार उपस्थित थे।
बड़ी साहेबिन ने दरबारमे पूछा, “क्या इस पुरे दरबार में एक भी नहीं, जो शिवाजी को जिन्दा या मुर्दा यहाँ ला सके?” तब वाई का सुभेदार सरदार अफजलखान अपनी दाढ़ी सहलाते हुए आगे आया। उसने शिवराय को जिंदा या मुर्दा पकड़ने का विडा उठाया।
अफज़खान की स्वराज्य पर चाल
अफज़खान ने बीजापुर से दस हजार सैनिकों के साथ कूच किया। तब शिवराय राजगढ़ से तुरंत प्रतापगढ़ गए। क्योंकि, घने जंगलो से होकर इतनी बड़ी सेना, गोला-बारूद, हथियार ले जाना मुश्किल था। उस समय, अफ़ज़ल खान ने शिवराय को एक संदेशपत्र लिखा। जिसमें शिवाजी राजे से किले वापस कर दें और साथ में आदिलशाह के अधीन होकर काम करे, ऐसा अनुरोध किया। शिवाजी महाराज अफज़खान कितना कपटी हैं, यह अच्छी तरह से जानते थे।
शिवराय ने अफजलखान को लिखा, “मैं सारे किले लौटाने के लिए तैयार हूँ, मैं आपका दोषी हूँ। तो कृपा कर आप प्रतापगढ़ आईये, क्योंकि मुझे वहाँ आने से डर लगता हैं। अफज़खान उस जवाब को सुनकर बहुत खुश हुआ। उसने सोचा, शिवाजी तो डरपोक और कायर हैं, इससे मेरा क्या मुकाबला ! इस तरह अंत में अफज़खान प्रतापगढ़ आने के लिए तैयार हुआ।
अफजल खान का वध
निश्चित समय पर, शिवराय और अफज़लखान दोनों दस अंगरक्षकों के साथ मिलने के लिए सहमत हुए। शिवराय शामियाना में जाने के बाद, अफज़लखान शिवराय को गले लगाने के लिए आगे आया।
अफज़लखान के महाकाय देह के सामने शिवराय छोटे लग रहे थे। जब शिवाजी राजे अफज़लखान के गले लगे तब उसने उनका सिर दाहिने बगल में दबाया और खंजर से जोरदार प्रहार किया।
हालांकि, शिवराय को इस तरह की दुर्घटना होने पहले से अनुमान था। इसलिए, शिवाजी महाराज ने पहले से ही कवच पहन रखा था। कपटी अफज़लखान के वार से शिवराय बाल-बाल बच गए। दूसरे ही क्षण, शिवाजी राजे ने हाथ में लगे बाघनखों से अफज़लखान का पेट फाड़ दिया।
तब, दगा-दगा चिल्लाते हुए, हाथी जैसा अफज़लखान जमीं पर गिर पड़ा।
शिवाजी राजे के प्रहार से अफज़लखान की आंतें बाहर निकल आयी। अफज़लखान की यह आवाज सुनकर सय्यद बंडा नाम का उसका अंगरक्षक अंदर आता है। अंदर आते ही उसने शिवाजी राजे पर पीछे दांडपट्टा से प्रहार किया।
समय रहते शिवराय का अंगरक्षक जीवा महाला शामियाने में आकर उस प्रहार को अपने उपर लेता हैं। दूसरे क्षण में जीवा महाला अपने पट्टे के एक प्रहार से सय्यद बंडा को मौत के घाट उतरता हैं।
इस तरह शिवराय पहली बार अफज़लखान के जाल से अपने दूरदृष्टि, सतर्कता और सूझ-बुझ के कारन बचे। तो दूसरी बार सय्यद बंडा जैसे धूर्त से अपने विश्वसनीय साथी अंगरक्षक जीवा महाला के कारन बचे। मराठा साम्राज्य के इतिहास में प्रतापगढ़ की यह भेट बहुत महत्वपूर्ण कदम था। क्योंकि मराठा साम्राज्य का पूरा भविष्य इस भेट पर निर्भर था।
भेट के बाद शिवराय ने प्रतापगढ़ के घने वन में छुपे मराठा सैनिको को लड़ाई का संकेत दिया। लड़ाई का संकेत मिलते ही, घात लगाए बैठे मराठा सैनिक “हर हर महादेव” की गर्जना करते हुए आदिलशाही सेना पर टूट पड़े।
अचानक से किये इस करारे हमले से आदिलशाही सेना बौखला गयी। मराठा सैनिको ने दुश्मन सेना को संभालने का मौका ही नहीं दिया। देखते ही देखते मराठा सेना ने आदिलशाही फ़ौज को नेस्तनाबूद कर दिया।
आदिलशाही सेना पराजित हुयी इस बात की खबर हवा की तरह चारो दिशाओ में फैल गयी। शिवाजी महाराज के इस पराक्रम से आदिलशाह गुस्से से आगबबूला हो गया।
पन्हाला की घेराबंदी
सन १६६० में, आदिलशाह ने मराठों को हराने के लिए अपने विशेष सरदार को भेजा। उसका नाम था, सिद्धि जौहर, जो एक क्रूर सेना सेनानी था। उसने ४०,००० आदिलशाही सैनिकों के साथ पन्हाला किले को घेर लिया।
पन्हाला किले में शिवराय अटक गए। शिवाजी महाराज जल्द से जल्द आत्मसमर्पण कर दे, इसलिए सिद्दी जोहर ने उसकी तरकीब आजमाई। उसने पन्हाला के पास वाले गावो के निर्दोष लोगों पर अत्याचार करना शुरू कर दिया।
पन्हाला किले पर स्थिति गंभीर
पन्हाला किले के खाद्य भंडार समाप्त हो रहे थे। इसलिए, शिवाजी राजे को घेराबंदी से बाहर निकलना बहुत जरुरी था।
स्वराज्य के लिए शिवा काशीद का बलिदान
शिवा कासिद का बलिदान
शिवराय के दैनिक जीवन में सहायता के लिए उनका एक सेवक था। जिसका नाम था शिवा कासिद, वह बिलकुल शिवाजी राजे की तरह ही दिखता था। उस समय, उनके साथ विश्वसनीय सरदार थे जिनका नाम बाजीप्रभु देशपांडे था। उन्होंने शिवराय को सुझाव दिया की, शिवा कासिद को अपनी जगह पालखी में बिठाया जाए।
तब शिवाजी महाराज ने शिवा कासिद को बुलाकर पूछा, क्या इस काम को पूरा कर सकोगे। शिवा कासिद बोला, “राजे, यह मेरा सौभाग्य होगा, अगर में स्वराज्य के काम में थोड़ा भी सहयोग कर पाऊँ!”
शिवराय ने रात को किले से निकलने की योजना बनाई। बारिश का मौसम था, बाहर भारी बारिश हो रही थी, उपर से रात का घना अंधेरा। घेराबंदी से बचना आसान नहीं था, इसलिए दुश्मन को विचलित करना जरुरी था।
शिवा काशिद ने शिवाजी महाराज के कपड़े, सिर पर जिरटोप, गले में कवड़े की माला पहनी। और सौ मावलों के साथ वह महाराज की पालखी में बैठकर आगे जाता हैं। तो दूसरी तरफ, शिवाजी महाराज की पालखी ६०० चुनिंदा मावलों को लेकर खुफिया रास्ते से आगे बढ़ती हैं।
बाहर निकलने के बाद शिवा कासिद की पालकी कुछ देर में दुश्मनो के हाथ लग जाती हैं। आदिलशाही सेना इस गलतफहमी में गाफिल रहने लगी की, शिवाजी महाराज को पकड़ लिया गया हैं। दूसरी और सिद्धी जौहर ने कभी शिवाजी राजे को पहले नहीं देखा था। लेकिन कुछ देर में अफजलखान का पुत्र फजलखान आता हैं, जिसने शिवाजी महाराज का चेहरा देखा था।
उसने जांच करने पर सिद्धि जौहर को पता चल जाता हैं की, ये तो शिवाजी महाराज नहीं हैं। शिवा कासिद शिवाजी राजे नहीं हैं यह असली पहचान सामने आते ही, शिवा कासिद का सर धड़ से अलग कर दिया जाता हैं।
शिवराय का घेराबंदी भेदकर विशालगढ़ की ओर प्रस्थान
शिवराय घेराबंदी तोड़कर निकल गए, यह बात सुनकर सिद्धी जौहर गुस्से से लाल हो जाता हैं। वह तुरंत शिवाजी महाराज का पीछा करने के लिए एक बड़ी सेना के साथ सिद्धि मसूद को भेजता है। आखिरकार, घोड़ खिंड के पास में मसूद की सेना शिवराय के सैनिको के नजदीक आ जाती हैं।
घोडखिंड की लड़ाई
शिवाजी महाराज अपने साथी सरदार बाजीप्रभु देशपांडे से बोले, “बाजी, अब विशालगढ़ तक पहुँचना मुश्किल, इसलिए चलो पीछे मुड़कर गनीमों का सामना करें।” तब बाजीप्रभु बोले,”राजे, कृपा कर आप आगे जाए, मैं आधे मावलों के साथ यही पर गनीमों को रोकता हूँ।
आप जब तक विशालगढ़ नहीं पहुँच जाते, आपसे वादा करता हूँ, मेरे जितेजी एक भी गनीम को इस घोडखिंड की घाटी पार नहीं करने दूँगा।” शिवराय बोले,”नहीं बाजी, नहीं। में तुम्हे सबकुछ जानते हुए भी अकेले मृत्यु के मुँह में कैसे ढकेल दूँ। हम दोनों साथमे गनीमों का सामना करेंगे, जो होगा वो देखा जायेगा। मृत्यु से भयभीत होकर भागनेवालो में से हम नहीं।”
बाजीप्रभु बोले,”राजे, गनीम भी तो यही चाहता हैं, की मराठाओं के स्वराज्य के सपने को चूर-चूर करा जाए। लाख मरे तो भी चलेगा पर लोखों का पालनहार जीना चाहिए। मेरे जैसे सैकड़ो बाजी आपको मिल जायेंगे, पर आप जैसे राजा हमें फिर से नहीं मिलेंगे।”
शिवाजी महाराज बाजीप्रभु से आखिरी बार गले मिलते है।
शिवराय बाजीप्रभु जैसे साथी को अकेले नहीं छोड़ना चाहते थे। पर स्वराज्य के पवित्र कार्य को आगे बढ़ाने के लिए उनका जिन्दा रहना जरुरी था। शिवराय बाजीप्रभु से बोले की, “हम विशालगढ़ पहुंचते ही तीन बार तोपें दागने के लिए कहेंगे, उन तोपों का आवाज सुनते ही तुम खिंड छोडके विशालगढ़ की और प्रस्थान करो।”
समय कीमती था, और दुश्मन की पीठ पर, शिवराय ने दिल पर पत्थर रख कर विशालगढ़ की ओर कूच किया। बाजीप्रभु ने अपने राजा को पालखी से जाते हुए, आखिरी बार मुजरा किया। धीरे-धीरे पालखी आखों ओझल होती गयी।
घोडखिंड की लड़ाई
बाजीप्रभु ने आदिलशाही सेना से लड़ाई के लिए अपनी तैयारी शुरू कर दी। सभी मावलों (मराठा सैनिकों) के साथ बाजीप्रभु ने अपनी रणनीति बनाना आरंभ किया। सभी सैनिकों ने गनिमी कावा युद्धनीति के तहत पत्थर इकट्ठा करना शुरू किया। सभी मावले घोडखिंड के द्विभागीय ऊँचे पहाड़ो पर अपने नियुक्त स्थान पर छिप गए।
बाजीप्रभु देशपांडे का बलिदान
कुछ ही देर में सिद्धि मसूद के फौज के पहले दस्ते ने घोड़खिंड में प्रवेश किया। बाजीप्रभु ने उस सेना टुकड़ी को घोड़खिंड के बीचोबीच आने तक प्रतीक्षा की। दुश्मन बीचोबीच आते ही बाजीप्रभु ने दुश्मनों पर पत्थरों की वर्षा करने का आदेश दिया। हर हर महादेव की गर्जना कर मराठा मावले आदिलशाही सेना पर टूट पड़े। ऊंचाई से किये इस हमे से पहला दस्ता बुरी तरह से चित हो गया। बचे कुछ सैनिकों को निचे खड़े समशीरधारक मावले काट डालते हैं।
इसी तरह सरदार बाजीप्रभु देशपांडे ने मुठ्ठीभर मराठा मावलों के साथ सैकड़ो आदिलशाही सैनिकों का खात्मा किया। लेकिन सिद्धि मसूद की सेना संख्या में कई गुना अधिक थी। बाजीप्रभु रक्त में सन्न हुए बाजीप्रभु दोनों हाथों में तलवार लिए दुश्मनो से लड़ रहे थे।
अंततः मसूद के सैनिक बाजीप्रभु को घेर लेते हैं, और उन पर हर तरफ से हमला करते हैं। अब बाजीप्रभु गंभीर रूप से घायल होकर ज़मीन पर गिर गए। इतने में तीन बार आकाश में तोपों की कड़कड़ाहट सुनाई दी।
बाजीप्रभु बोले,
“राजे गड पर सुरक्षित पहुंच गए, मैंने अपना कर्त्तव्य पूरा किया, अब में खुशी से मर सकूंगा।”
– बाजी प्रभु देशपांडे
इस तरह से स्वराज्य के प्रति अपार निष्ठा रखनेवाले बाजीप्रभु देशपांडे का अंत हो गया।
कभी-कभी, हमारी मातृभूमि रक्त के लिए आह्वान करती है, तब बाजीप्रभु जैसे देशभक्त अपने रक्त का अभिषेक करके, अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता बनाए रखते हैं। ऐसे वीर योद्धा को शत-शत नमन!
शाहिस्तेखान को सबक
मराठो का बंदोबस्त करने औरंगजेब ने उसके चाचा शाहिस्ताखान को डेक्कन भेज दिया। औरंगजेब की कमान में, शाहिस्ताखान ने १.५ लाख मुगल सैनिकों के साथ स्वराज्य पर चढ़ाई की।
शिवाजी राजे उसके शरण में आये, इसलिए उन्होंने गाँवों को लूटने, मंदिरों को नुकसान पहुँचाने और किसानों की फसलों को नुकसान पहुँचाना शुरू किया। उसने लाल महल पर कब्ज़ा कर वहा अपना डेरा बिछाया। उस समय, शिवराय ने शाहिस्तेखान को ठिकाने लगाने के लिए लाल महल जाने का साहसिक निर्णय लिया।
लाल महल जाने का निर्णय बहुत ही आत्मघाती था, पर स्वराज्य का नुकसान रोकने हेतु शाहिस्तेखान को सबक सिखाना जरुरी था। क्योंकि डेढ़ लाख की सेना से घिरे महल में जाना आत्महत्या करने जैसा ही था। लेकिन महाराज बहुत दृढ़निश्चयी। उन्होंने उनके चुनिंदा साथियों को लेकर एक विवाह की बारात के माध्यम से पुणे में प्रवेश किया।
सन १६६३ में, महाराज ने बड़ी चतुराई के साथ लाल महल की दीवार को तोड़कर किले में प्रवेश किया। थोड़ी देर मे जब महल में खबर फैलती गयी, कि शिवजी ने महल में प्रवेश किया हैं। इतना काफी था, शाहिस्तेखान की नींद हराम करने के लिए। उसे समझ नहीं आ रहा था की क्या करे, और कहा छिपे।
कुछ महिलाये जानती थी की, शिवराय महिलाओं की जाँच नहीं करेंगे, क्योंकि वो उनका सम्मान करते हैं। इसलिए, शाहिस्तेखानने महिलाओं के कपडे पहने और महिलाओं के बिच जाकर छुप गया। तब शिवाजी राजे के एक साथी ने शाहिस्तेखान को स्त्रयों के भेस में भी पहचान लिया। तब वह साथी चिल्लाया, “महाराज, खान!”
शाहिस्तेखान पहचान में आते ही, शिवराय उसका पीछा करते हैं। दूसरा कोई रास्ता नजर न आने पर, शाहिस्तेखान बालकनी से निचे कूदा। पर कूदते समय शाहिस्तेखान के हाथ की तीन उँगलियाँ शिवाजी महाराज के तलवार से कट जाती हैं।
सिंहगढ़ किले का भीषण युद्ध
पुरंदर की संधि के कुछ महीने बाद, जीजामाता ने शिवराय से कहा, “कोंधना को दुश्मन के नियंत्रण में रखना स्वराज के लिए अच्छा नहीं है, इसे मुगलों से वापस स्वराज में लाओ”। कोंढाणा पुणे, महाराष्ट्र का सबसे मजबूत किला है।
किला ज़मीन से ७६० मीटर और समुद्र तल से १३१२ मीटर ऊपर था। तानाजी शिवाजी महाराज के पुराने सहयोगियों में से एक थे। वह अपने बेटे की शादी के लिए महाराज और उनके परिवार को आमंत्रित करने के लिए रायगढ़ गए। शिवाजी महाराज ने उनसे कहा कि वह शादी में शामिल नहीं हो पाएंगे, क्योंकि उन्हें विजय अभियान पर जाना है।
कोंढाणा मुहीम के लिए तानाजी का चयन
तानाजी ने कहा, “अगर हमारे पास ऐसे मिशन पर जाने का समय है, तो हमारा क्या फायदा? अब रायबा (तानाजी के बेटे) की शादी कोंढाणा सर के बाद ही होगी। उस समय, तानाजी ने महाराज से कहा, “पहले शादी, फिर मेरी पत्नी!” शिवराय तानाजी को कोंधा प्रदर्शन में जाने की अनुमति देते हैं। फिर तानाजी जीजामाता के आशीर्वाद से भाई सूर्याजी मालुसरे प्रदर्शन के लिए जाते हैं।
सिंहगढ़ किले पर चढ़ाई
तानाजी ने अपने सहयोगियों के साथ कोंढाणा को जितने की योजना बनाई।
वह कोंढाणा को जीतने की योजना बनाने लगा। सबसे पहले वे ३०० साथियों के साथ कोंढाणा के अड्डे पर गये। तानाजी ने किले की पूरी जानकारी लेते हुए एक चट्टान से किले में प्रवेश करने की योजना बनाई, जहाँ बहुत कम गार्ड थे और कोई सोच भी नहीं सकता था।
कोंढाणा पर चढ़ना आसान नहीं था क्योंकि कोंढाणा किले की ढलान बहुत खड़ी थी। लेकिन, मराठा सह्याद्रि की घाटियों की खोज में माहिर थे। ऐसे पांच-छह मावला ऊपर गए और रस्सी को एक पेड़ से बांध दिया। बाकी सेना ने उसे आसानी से ऊपर लाने के लिए रस्सी नीचे फेंक दी।
इस प्रकार, तानाजी के साथ सभी मावला किले में पहुँच गए और घमासान युद्ध शुरू हो गया।
दृढ़ उदयभान से युद्ध
कोंढाणा में युद्ध की घंटी बज चुकी थी, तानाजी किले के सेनापति उदयभान से लड़ रहे थे। उदयभान बड़ा वीर और सुदृढ़ गढ़ था। वह किले के नियमों और सुरक्षा को लेकर बहुत सख्त थे। वह एक राजपूत था और मिर्जा जयसिंह ने उसे राजा की जिम्मेदारी सौंपी थी।
तानाजी की ढाल
तानाजी और उदयभान दोनों नफरत से लड़ते हैं। कोई भी पीछे नहीं हट रहा था, दोनों ही जी जान से लड़े। अचानक तलवार के वार से तानाजी की ढाल टूट जाती है। फिर, तानाजी उस शंख को अपने सिर के चारों ओर लपेट लेते हैं और उस शंख पर तलवार के घावों के साथ लड़ना जारी रखते हैं। दोनों खून से लथपथ हो गए। दोनों धरतीर्थी में गिरने के बाद, सूर्याजी कल्याण द्वार के माध्यम से किले में प्रवेश करते हैं।
सूर्याजी अपने भाई तानाजी को लेटे हुए देखकर दुखी हुए, लेकिन वे जानते थे कि यह दुखी होने का समय नहीं है। उस समय अपने मुखिया (तानाजी) को गिरते देख मराठा सेना की हिम्मत टूट जाती है। मावले इधर-उधर भागने लगा।
उसी समय सूर्याजी किले से नीचे जाने के लिए रस्सी काट देते हैं। उस समय वे मावलों से कहते हैं, “मैंने बाहर निकलने के लिए रस्सी काट दी है, अब या तो दुश्मन से लड़ो और मर जाओ, या किले से कूदकर मर जाओ!” और मुगल सेना से लड़ने के लिए प्रोत्साहित किया।
मराठा मावला बहादुरी से लड़ते हैं और कोंढाणा के किले पर भगवा फहराते हैं, मराठा लड़ाई जीत जाते हैं।
रायगढ़ में, शिवाजी राजे और जीजामाता को खबर मिलती है कि कोंढाणा सर बन गया है, लेकिन तानाजी धरतीर्थी इसमें गिर गए हैं। शिवाजी राजे और जीजामाता बहुत दुःखी हुए। शिवराया अपने पुराने साथी को खोने से दुखी था। तभी महाराज चिल्लाकर कहते हैं,
“किला तो आ गया, लेकिन शेर चला गया!”
-शिवछत्रपति
तानाजी मालुसरे की वीरता और बलिदान की याद में शिवाजी महाराज ने कोंधा का नाम “सिंहगढ़” रखा। सिंहगढ़ में तानाजी की भव्य प्रतिमा आज भी पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है।
पुरंदर की घेराबंदी
निश्चित रूप से पुरंदर का किला पुणे के दक्षिण में शिवाजी राजे का एक बहुत ही महत्वपूर्ण किला था। सूरत लूटने के बाद, औरंगज़ेब उग्र हो गया और सेनापति मिर्जा जय सिंह और दिलेर खान के साथ विशाल सेना भेजी।
पुरंदर किले के किले सेनानायक और किल्लेदार थे मुरारबाजी देशपांडे। वे छत्रपति शिवाजी महाराज के साहसी योद्धाओं में से एक थे।
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पुरंदर की लड़ाई
मुरारबाजी हिंदवी स्वराज्य के प्रति बहुत वफादार थे। मुरारबाजी केवल ७०० सैनिकों के साथ युद्ध के लिए तैयार हो गए। उसने किले से हमला शुरू किया और किले की ऊंचाई का फायदा उठाते हुए बहुत सारे सैनिकों को बाणों से छन्नी कर डाला।
लड़ाई के आखिरी दौर में वे दोनों हाथों में तलवारें लिए शत्रु पर टूट पड़े। मुरारबाजी ने कई मुगल सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। मुरारबाजी कुछ ही सैनिकों के साथ लड़े, लेकिन उन्होंने मुगल सेना में तबाही मचा दी।
दिलेर खान ने मुरारबाजी के जबरदस्त साहस को देखा और उन्हें एक अच्छी तनख्वाह और इनाम के रूप में जमीन के साथ बड़ी नौकरी का प्रस्ताव रखा। तब मुरारबाजी ने दिलेर खान से कहा कि,
“मैं औरंगज़ेब के खेमे में रहने के बजाय अपनी जान कुर्बान करना पसंद करूँगा! मेरी मेहनत की रोटी मुझे मीठी लगती है…!!”
मुरारबाजी अब दिलेर खान की ओर आक्रमण करने लगते हैं। दिलेर खान हाथी पर बैठकर मुरारबाजी की ओर तीर चलाता है। उस तीर से मुरारबाजी धरतीर्थी गिर पड़ते हैं। फिर भी सभी मावला अंतिम क्षण तक लड़ते हैं, भयानक रक्तपात होता है। पुरंदर की मिट्टी मुरारबाजी और मावलों के खून से पवित्र होती है। यह किला मुगलों के अधीन आता है।
इस समाचार से शिवाजी महाराज बहुत दुःखी हुए। एक समय में एक साथी को खोने से बेहतर है कि आप कुछ समय के लिए पीछे हट जाएं। अत: महाराज सन्धि करने हेतु मिर्जा जयसिंह से मिलने जाते हैं।
पुरंदर की संधि
शिवराय ने चतुराई से मिर्जा जय सिंह से बात की। महाराज बोले, “आप राजपूत है इसलिए आप हमारी परेशानी और दर्द को समझ सकते है। मुग़ल अत्याचार से जनता तकलीफ में है, इसलिए उनका दिल्ली के तख़्त पर होना मुनासिब नहीं। अगर आप बोले तो दिल्ली में भी हिन्दवी स्वराज्य का ध्वज लहार सकता है, चाहे तो आप बैठे गद्दी पर।”
लेकिन, मिर्जा जय सिंह बहुत धूर्त था उसने छत्रपति शिवराय को दिल्ली जाकर मुगल सम्राट से मिलने के लिए कहा।
इस संधि के अनुसार महाराज ने अपने २३ किले और चार लाख होण तक आय होनेवाली भूमि मुगलों को दे दी। १८वीं शताब्दी में मराठा और मुगलों के बीच यह संधि हुई थी।
शिवराज्याभिषेक
स्वराज्य की दौड़ पूरी ताकत से जारी है, जीजामाता ने शिवराय से कहा कि यह राज्याभिषेक करने और पूरी दुनिया को बताने का समय है। जीजामते के आदेश के चलते शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक की तैयारी महीनों पहले से चल रही थी।
आख़िरकार ६ जून, १६७४ ई. को सुबह हो गई। किले में भोर के समय मंत्रों और विभिन्न अनुष्ठानों के साथ महाराज का अभिषेक किया गया। इसके बाद शिव राय ने ब्राह्मणों को दान दिया।
साथ ही आभूषण, कपड़े, सामान, खाद्य सामग्री और विभिन्न सप्त धातुओं को महाराज के वजन से तोला गया। साथ ही शिवराय के दर्शन कर शस्त्रों की पूजा की और हाथी पर सवार होकर जुलूस निकाला गया।
मुहूर्त के समय शिवराय ने राजसिंहासन के दरबार कक्ष में प्रवेश किया। शिवाजी महाराज ३२ मन सोने के ३२ शगुन चिन्हों से सुसज्जित भव्य सिंहासन पर विराजमान हैं। विद्वान ब्राह्मण पंडित गागाभट्ट, जिन्हें विशेष रूप से काशी से बुलाया गया था, महाराज के सिर पर छत्र रखते हैं और शिवराय को छत्रपति घोषित करके आशीर्वाद देते हैं।
हर तरफ खुशी थी, जीजामाताएँ बहुत खुश थीं। लेकिन शिवराया के मन में इस बात का मलाल था कि जिन साथियों ने उन्हें यह मुकाम हासिल कराया, वे आज उनके साथ नहीं हैं। उस दिन शिवाजी महाराज सही मायने में रैयतों के छत्रपति बन गये।
आगरा में औरंज़ेब से मुलाकात
पुरंदर की संधि के अनुसार, शिवराय ने १२ मई, १६६६ को ५००० घुड़सवारों के साथ आगरा की ओर प्रस्थान किया। दख्खन के राजा आ रहे हैं यह खबर सुनकर पूरा आगरा महाराज को देखने आया। सभी लोग उत्सुकता से देख रहे थे।
वह कौन सा राजा है? जिसने औरंगज़ेब की नींद हराम करके रखी है।
दरबार में शिवराय के अपमान की तैयारी
शिवाजी राजे के आने से पहले औरंगजेब ने जानबूझकर अपना सिंहासन ऊंचा कर दिया। दरबार के रास्ते में कई पर्दे लगाए जिससे किसी भी व्यक्ति आते समय झुककर अंदर प्रवेश करना पड़े। इसके अलावा भी महाराज को अपमानित करने की एक और योजना थी, जो आपको आगे पता चलेगी।
औरंगजेब के दरबार में शिवाजी राजे
शिवाजी महाराज के सभी साथियों को बाहर ही रोक दिया गया। शिवराय और शम्भुराजे को अपने जूते उतारने के लिए कहा जाता है, जिसे शिवराय दरबार की प्रथा के रूप में स्वीकार करते है। दरबार में प्रवेश करते समय, औरंगजेब सोचता है चलो देखते है अब दख्खन का शेर हमारे सामने कैसे झुकता है। लेकिन महाराज अपने हाथों से पर्दा हटाकर दरबार में प्रवेश करते हैं।
पहली योजना तो विफल रही, अंदर दरबार योजना के अनुसार शुरू होता है। मिर्ज़ा जयसिंह का पुत्र राम सिंह, महाराजा के साथ दरबार में आता है। राम सिंह शिवराय को अपने सम्राट के सामने कोर्निश करने के लिए कहता है, लेकिन महाराज तैयार नहीं होते हैं।
महाराज बोले, ज्यादासे ज्यादा हम मुजरा करेंगे, शिवराय ने दिल्ली के सिंहासन जहां कभी पृथ्वीराज चौहान जैसे नीतिमान और धर्मपरायण राजाओं ने शासन किया उस सिंहासन को नमन किया।
बाद में, शिवराय और युवराज संभाजी औरंगजेब के सामने दोनों ने बादशाह को नज़राने भेंट किये। हालाँकि, औरंगजेब का इरादा कुछ और था, उसने शिवराय को मनसबदारों की पंक्ति में सबसे पीछे रखा। इसके अलावा, जसवन्त सिंह, जो शिवाजी महाराज के सामने खड़े होने के योग्य भी नहीं थे, उसे कतार में आगे रखा गया।
महाराज ने तुरंत औरंगजेब के इरादों को पहचान लिया, अब शिवराय को रोकना मुश्किल था। शिवराय ने कहा, “यह जसवन्त सिंह, जो मराठों की फौज देखते ही भाग जाता था, क्या मेरा दर्जा इससे नीचे है” राम सिंह महाराज को शांत करने की कोशिश करते हैं। लेकिन शिवाजी महाराज आगे कहते हैं,
“एक बार हम मरना स्वीकार करेंगे, लेकिन अपमान नहीं!”
-शिवराय
शिवराय अब क्रोध से लाल हो गये थे। औरंगजेब के दरबार में किसी की भी आँख उठाकर देखने की हिम्मत नहीं होती थी। शिवराय के शब्दों से औरंगजेब के दरबार में शांति आ गई। महाराज क्रोधित होकर दरबार से चले जाते हैं। इसके बाद औरंगजेब ने महाराजा को फौलाद खान की देखरेख में नजरबंद कर दिया।
बादशाह की नजरबंदी से बाहर
इसके बाद महाराज इस नजरबंदी से कब और कैसे बाहर आये, यह निश्चित तौर पर कोई नहीं जानता। कुछ मुगल दस्तावेजों की माने तो, महाराज १७ अगस्त, १६६६ को पिटारे से बाहर आए। लेकिन, इतिहास में जो लिखा है उसके ही पुख्ता सबूत होते हैं।
इसलिए भले ही यह कहानी मुगल दस्तावेजों से आती है, लेकिन इतिहास में इसे सच माना जाता है। यह कहानी आपने इतिहास में एक बार जरूर पढ़ी होगी, जो कुछ इस प्रकार है:
शिवाजी महाराज जानते थे कि औरंगजेब बहुत क्रूर और निर्दयी था। उसने दिल्ली पर कब्ज़ा करने के लिए अपने भाइयों को भी नहीं बख्शा था। इससे पहले कि वह शिवाजी महाराज के साथ कुछ कर पाते, महाराज ने इस मुसीबत से निकलने के लिए एक युक्ति निकाली। उस समय शिवराय के साथ सेवा के लिए रघुनाथ कोर्डे, त्र्यंबक दबीर, हिरोजी फरज़ंद और मदारी मेहतर मौजूद थे।
शिवाजी महाराज ने औरंगजेब को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने मांग की कि वह “उनके साथ आए सैनिकों को वापस जाने की अनुमति दें”। औरंगजेब ने इसे स्वीकार कर लिया और सैनिकों को वापस भेज दिया। इसके बाद शिवराय ने ऐसे जताया कि वे बहुत बीमार हैं। यह विश्वास करने के लिए कि वह वास्तव में बीमार है, शिवराय पूरे दिन सोया करते और दिन में वैद्य को बुलाते।
इसके बाद, महाराजा ने एक और पत्र लिखा जिसमें उन्होंने औरंगजेब को लिखा, “बीमारी को ठीक करने के लिए गरीबों और साधु-संतों को दान में मिठाइयां बांटने की इजाजत दें।” औरंगजेब उस मांग पर सहमत हो गया। महाराज के शिबिर से प्रतिदिन मिठाइयों के बड़े-बड़े पिटारे भेजे जाते थे। महाराज के शिबिर के बाहर कड़ा पहरा था, प्रतिदिन रक्षक पिटारे खोलकर देखते। लेकिन कुछ दिनों के बाद चौकीदार इस काम से थक गये और पिटारे जांच किये बिना ही बाहर जाने लगे।
महाराज को ऐसे मौके की जरूरत थी, अगले दिन यानी १७ अगस्त, ईसवी १६६६ को एक पिटारे में शिवराय और दूसरे में युवराज शंभू राजे सुरक्षित औरंगजेब की नजरबंदी से बाहर निकले।
इधर हीरोजी फरजंद शिवाजी महाराज के स्थान पर सो गए और मदारी मेहतर उनके चरणों में बैठकर उनकी सेवा कर रहे थे। जिससे कि यह लगे की महाराज आराम फरमा रहे हैं। अगले दिन, महाराज के आगरा से सुरक्षित बाहर निकलने के बाद, हिरोजी और मदारी यह कहते हुए चले गए कि वे “महाराज की दवा लाने जाना है”।
मुगल खेमे में असमंजसता
कुछ देर बाद पहरेदारों को एहसास हुआ कि अंदर कोई नहीं है। फौलाद खान असमंजस पड़ गया, उसे समझ नहीं आ रहा कि क्या करे। जब उसने औरंगजेब को यह समाचार सुनाया तो औरंगजेब आगबबूला हो गया। औरंगजेब गुस्से से लाल हो गया और उसने तुरंत शिवराय और उनके साथियों की तलाश शुरू कर दी।
उनमें से रघुनाथ कोर्डे और त्रिंबक दबीर दुर्भाग्य से फौलाद खान के हाथ लग गए। दोनों को सभी तरकीबे आजमाके उनसे शिवराय किस मार्ग से वापस जायेंगे इस बारे में पूँछा। शिवाजी महाराज के इन वफादार साथियों ने बिना एक शब्द बोले मौत का सामना किया। मुगल सरदार उन्हें बड़ी पीड़ादायक तरके से मार डालते हैं।
वहां युवराज संभाजी को मथुरा में विश्वासराव के साथ छोड़कर शिवराय आगे बढ़ते हैं। रास्ते में विभिन्न स्थानों पर शत्रु से मुठभेड़ होने पर महाराज ने पहले से ही तैयारी का भेष धारण कर लिया था। इतिहासकारों के अनुसार शिवाजी राजे मथुरा-इलाहाबाद-बनारस-गया-गोंडवान-गोवलकोंडा आगरा से राजगढ़ इस मार्ग से आये होंगे।
मुग़ल अभियान पूरे उत्तर भारत में जारी रहा। जब शिवाजी महाराज राजगड़ पहुंचते हैं, तो खबर हवा की तरह हर जगह फैल जाती है। शिवराय ने जानबूझकर यह खबर फैला दी कि संभाजी महाराज की रास्ते में ही मृत्यु हो गई। इस प्रकार, युवराज संभाजी को खोजने का मुगल अभियान रुक गया। जब उत्तर में माहौल शांत हुआ तो विश्वासराव स्वयं संभाजी को लेकर राजगढ़ आये।
छत्रपति शिवाजी महाराज का अष्ट प्रधान मंडल
शिवाजी महाराज का अष्ट प्रधान मंडल मराठा साम्राज्य के दरबार में आठ निर्वाचित मंत्रियों का एक प्रशासनिक निकाय था। इस मंत्रिपरिषद ने हर अभियान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
छत्रपति शिवाजी महाराज के अष्टप्रधान मंडल या मंत्रिपरिषद इस प्रकार हैं:
अ. सं.
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पद
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जिम्मेदारियां
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१.
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पेशवा या प्रधान (प्रधानमंत्री)
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यह मराठा साम्राज्य का सबसे महत्वपूर्ण पद था। इनके पास प्रशासनिक कार्य, सामाजिक कल्याण से संबंधित सभी सैन्य शक्तियाँ थीं। आजके समय के मंत्रिमंडल के प्रधानमंत्री की जो जिम्मेदारियां होती है, वही इनकी भी जिम्मेदारियां थी।
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२.
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अमात्य/मजूमदार (वित्त मंत्री)
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वे सभी वित्तीय मामलों को संभालने के साथ-साथ मराठा साम्राज्य के शाही खजाने का हिसाब-किताब रखने के लिए भी जिम्मेदार थे।
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३.
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सुमंत (विदेश मंत्री)
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उनका मुख्य कर्तव्य अन्य राज्यों के साथ अच्छे राजनीतिक संबंध बनाए रखना था।
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४.
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पंत सचिव (सचिव)
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उनका कर्तव्य दैनिक अदालती कार्यवाही का संचालन करना और राजा के सभी संचारों का प्रबंधन करना और राजा के लिए उद्घोषणाएँ तैयार करना था।
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५.
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वाकिया-नवीस (गृह मंत्री)
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सभी आंतरिक मामलों का प्रबंधन।
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६.
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पंडित राव (उच्च पुजारी)
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वे धार्मिक मामलों का प्रमुख था। सभी धार्मिक कर्तव्यों का पालन करना उनका कर्तव्य थे। इसने धर्म से जुड़ी तिथियों, जैसे धार्मिक त्योहारों या समारोहों को तय करने का भी काम किया।
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७.
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न्यायाधीश (मुख्य न्यायाधीश)
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वे नागरिक, आपराधिक और सैन्य कार्यवाही में न्याय प्रशासन के लिए जिम्मेदार थे।
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८.
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सेनापति (प्रमुख सेनापति)
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वे सभी सशस्त्र बलों के प्रमुख थे और राज्य की रक्षा के लिए जिम्मेदार थे। मराठा सेना में नये सैनिकों का चयन करना, नये हथियार खरीदना जैसे सभी कार्यों की जिम्मेदारी उन्हीं की थी।
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मृत्यु
कुछ लोगों के अनुसार महाराजा को उनके कुछ मंत्रियों ने भोजन में जहर दे दिया था। कुछ के अनुसार उनकी मृत्यु लंबी बीमारी के कारण हुई, जबकि अन्य का कहना है कि उनकी मृत्यु स्वाभाविक रूप से हुई।
महाराज अपनी मृत्यु से पहले १२ दिन तक बीमार थे और यह भी ज्ञात है कि उस दौरान उन्हें पेचिश हो गई थी। जिसका उल्लेख कई ब्रिटिश और मुगल पत्रों में मिलता है। इस बीमारी में उन्हें बुखार और खून की उल्टी की शिकायत पाई जाती है।
अंत में ३ अप्रैल, ईसवी १६८० मराठों के इतिहास का एक काला दिन था और मराठी अस्मिता को जागृत रखने वाला सूर्य हमेशा के लिए अस्त हो गया।
ऐसा समझा जाता है कि संभाजी महाराज के छत्रपति बनने के बाद उन्होंने कई दरबारी मंत्रियों को दंडित किया। क्या इससे उन्हें जहर के कारण खून की उल्टियाँ होने लगीं? ये सवाल उठता है. उन मंत्रों के नाम मैंने संभाजी राजे की जीवनी में बताये हैं।
दूसरे धर्म के लोगों प्रति शिव राय की नीति
शिवाजी महाराज हिंदू थे, इसलिए कुछ लोग सोचते हैं कि वे मुसलमानों के ख़िलाफ़ थे। छत्रपति शिवाजी महाराज सभी धर्मों के लोगों के साथ समान व्यवहार करते थे।
उन्होंने अपने जीवन में कई युद्ध लड़े लेकिन किसी भी युद्ध में किसी मंदिर या दरगाह पर आंच नहीं आने दी। वे स्वयं हिंदू थे, इसलिए उन्होंने कभी भी दूसरे धर्म के लोगों पर धर्म परिवर्तन के लिए दबाव नहीं डाला।
उनके दरबार में अनेक मुस्लिम सरदार और सैनिक थे। सिद्धि इब्राहिम खान शिवराय के तोपखाने के प्रमुख थे। यदि शिवाजी महाराज मुस्लिम विरोधी होते तो वे एक मुस्लिम को इतने ऊँचे पद पर क्यों रखते?
छत्रपति शिवाजी महाराज और स्वराज्य की लड़ाई किसी जाति या धर्म के विरुद्ध नहीं, बल्कि विदेशी शासकों द्वारा किये गये अन्याय के विरुद्ध थी। यह अत्याचारी शासक अपने स्वार्थ के लिए प्रजा का शोषण उन पर अत्याचार और उनको हानि पहुँचाते थे।
शिवराय की दूरदर्शिता
वे जानते थे की आदिलशाह, निज़ामशाह, मुग़लों जैसे शक्तिशाली शत्रुओं से लड़ते समय मुट्ठी भर सैनिकों के साथ खुले मैदान में लड़ना कठिन है। इसके साथ, शिवराय को हर तरफ के दुश्मनों से लड़ने के लिए सुदूर किलों के महत्व का एहसास उन्हें बहुत कम उम्र में हुआ।
“जिसके किले, उसका राज्य!”
इस सूत्र के अनुसार उन्होंने स्वराज्य की नींव रखी। शिवराय ने अपने जीवन के आखिरी समय तक ३५० से ज्यादा किलों को मराठी शासन के अधीन कर लिया था।
समुद्री तट को विदेशी आक्रमणों से बचाने के लिए आरमार की आवश्यकता थी। इसके लिए उसने एक सशक्त आरमार का निर्माण करवाया जिसमे कई युद्धनौका युद्धनौकाएं थी। जिससे उन्होंने पश्चिम महाराष्ट्र और गोवा की तटबंदी पर परकीय आक्रमणकारियों के खिलाफ मजबूत कवच तैयार किया था। इसी कारण उन्हें भारतीय नौसेना का जनक कहा जाता है।
शिवराय ने स्वराज्य के लिए एक ठोस नींव रखी। इसके अलावा, छत्रपति शाहू महाराज के शासनकाल के दौरान, मराठा साम्राज्य के पेशवा बाजीराव के नेतृत्व में, मराठों ने दक्षिण में वेल्लोर और कालीकट से लेकर उत्तर में अटक और कटक तक शासन किया।
उनकी जीवनी में हमें स्वराज्य संचालन के दौरान महाराज की दूरदर्शिता का साफ दर्शन होता हैं। शिवराय ने जीवन भर संघर्ष किया ताकि राज्य के प्रजा खुशी से रह सकें। ऐसे महान राजा को मेरा प्रणाम!
ऐसे युगे और युगे स्वर्णीय सर्वदा। माता-पिता सखा शिवभूप हैं।
जय जिजाऊ!
जय शिवराय!!
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