नमस्कार दोस्तों, आज मैं आपके साथ छत्रपति शिवाजी महाराज की जीवनी हिंदी में साझा कर रहा हूँ। उनके जीवन में ऐसी कई घटनाएं घटीं है, जो हमें प्रोत्साहित करती हैं।
तो बिना समय गमाये, छत्रपति शिवराय की इस जीवनी को शुरू करता हूँ और आशा करता हूँ की, यह जानकारी निश्चित रूप से आपको प्रेरित करेगी।
घटक | माहिती |
---|---|
परिचय | मराठा साम्राज्य के संथापक तथा पहले छत्रपति |
जन्म | १९ फरवरी, १६३० |
माता-पिता | माता: जिजाबाई, पिता: शहाजी राजे भोसले |
कारकीर्द | १६७४-१६८० (राज्याभिषेक के बाद) |
पत्नी | सईबाई निंबाळकर, सोयराबाई मोहिते, काशीबाई जाधव, सगुणाबाई, सकवारबाई गायकवाड, गुणवंताबाई पुतळाबाई पालकर, लक्ष्मीबाई |
संतान | पुत्र: छत्रपति संभाजी महाराज, छत्रपति राजाराम महाराज, बेटियां: सकुबाई निंबालकर, राणुबाई जाधव, अंबिकाबाई महाडिक, राजकुमारी बाई शिर्के |
सहयोगी और सरदार | तानाजी मालुसरे, बाजी पासलाकर, मुरारजी देशपांडे, बाजीप्रभु देशपांडे |
नमस्कार दोस्तों, आज में श्री छत्रपति शिवाजी महाराज की जीवनी उनके जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं की मदद से मैं आज आपके सामने प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ ।
प्रौढ़ प्रताप पुरंदर, क्षत्रिय कुलावतंस, सिंहासनाधिश्वर, महाराजाधिराज……महाराज…शिव छत्रपती श्री शिवाजी महाराज की जय!!
छत्रपति शिवाजी महाराज की राजमुद्रा
प्रतिपच्चंद्रलेखेव वर्धिष्णुर्विश्ववंदिता | शाहसुनोः शिवस्यैषा मुद्रा भद्राय राजते ||
राजमुद्रा का अर्थ
प्रतिपदा के चंद्र के समान बढ़ने वाली विश्व में वंदनीय ऐसी शहाजी के पुत्र शिवाजी (राजे की) यह राजमुद्रा सिर्फ प्रजा के कल्याण के लिए विराजमान होती हैं|
छत्रपति के जन्म से पहले भारत की हालत
शिवराय के शासन से पहले, भारत के राजाओं और सम्राटों ने लोगों पर बहुत अत्याचार और शोषण किया। राजा और अधिकारी देश के लोगों के बारे में नहीं सोच रहे थे। तो दूसरी तरफ, दक्षिण में सम्राट कृष्णदेवराय जैसे शक्तिशाली हिंदू राजा थे। जो राज्य के लोगों का बहुत ख्याल रखते हैं। वह अपने शानदार राज्य और प्रभावी शासन के लिए जाने जाता थे।
इसके अलावा, महाराष्ट्र मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित था| पहले थे अहमदनगर के सुल्तान निजामशाह और दूसरे विजापुर के सुल्तान आदिलशाह। निज़ामशाह और आदिलशाह के बीच हमेशा संघर्ष हुआ होता था। लगातार लड़ाई के कारण, इस राज्य के लोग बहुत दुखी और हताश थे। दोनों राज्यों के बीच संघर्ष के कारण लोगों को बहुत परेशानी उठानी पड़ती थी। कई लोग बेवजह मारे जाते थे|
प्रजा का दुःख समझकर जिस समय मन में स्वतंत्रता का विचार भी लाना संभव नहीं था, ऐसे समय में उन्होंने स्व-शासन का सपना देखा | और न केवल सपना देखा तो बल्कि अपनी बुद्धी, युद्ध कौशल (गनिमी कावा) और कुशल राजनीति का परिचय देते हुए उसे पूरा भी किया |
शिवाजी महाराज के समय के महान संत
शिवराय के जन्म से समय श्री चक्रधर स्वामी, संत नामदेव, संत ज्ञानेश्वर, संत एकनाथ, संत तुकाराम, संत रामदास स्वामी जैसे विद्वान् संत थे। इन संतों ने लोगों को दया, अहिंसा, भक्ति, भगवान की सेवा, साहस, भाईचारे का पाठ पढ़ाया।
छत्रपति शिवाजी महाराज का जन्म
शिवनेरी किला
शिवाजी राजे का जन्म १९ फरवरी, १६३० को पुणे जिले के पास शिवनेरी किले में हुआ था। शिवराय के पिता का नाम शाहजी राजे था | जो विजापुर के सुल्तान आदिलशाह के दरबार में सेना प्रमुख थे। शिवराय के जन्म के समय, शाहजी राजे (शिवराय के पिता) शिवनेरी किले में नहीं थे | वे मुगल आक्रमण का मुकाबला करने के लिए अभियान पर गए थे।
महाराष्ट्र में शिव जयंती वर्ष में दो बार मनाई जाती है। आप कहेंगे दो बार जन्मदिन कैसे मनाया जा सकता है? इसका जवाब है, दो अलग-अलग कालक्रम | एक है ग्रेगोरियन कालक्रम और दूसरा है मराठी कालक्रम। ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार, शिवाजी महाराज का जन्मदिन १९ फरवरी को आता है। और मराठी कैलेंडर के अनुसार, छत्रपति शिवराय की जन्म तिथि फाल्गुन विद्या तृतीया (फाल्गुन महीने के तीसरे दिन, यह दिन सालाना फरवरी या मार्च में आता है) के दिन आती है।
इस प्रकार, साल में शिवाजी महाराज जयंती दो बार मनाई जाती हैं। इस दिन, महाराष्ट्र में शिव जयंती उत्सव में शोभा यात्रा निकलती हैं | इस दिन राजधानी रायगढ़ के किल्ले में बड़ा उठाव होता हैं | शिवाजी महाराज की प्रतिमा को सुंदर फूलों से सजाया जाता है। शिवाजी महाराज की जयजयकार के साथ आसमान गूंज उठता हैं | हजारो की संख्या में लोग यह देखने किल्ले रायगढ़ जाते हैं ।
छत्रपति शिवाजी का बचपन और प्रारंभिक जीवन
गुरु दादोजी कोंडदेव ने शिवाजी महाराज सात वर्ष के थे तब उनकी प्राथमिक शिक्षा शुरू की। दादोजी कोंडदेव ने उन्हें भाला, पट्टा, तलवार आदि का इस्तेमाल सिखाया। शस्त्र के साथ में पंडितों और माता जीजाबाई द्वारा शास्त्र यानी संस्कृत, राजनीति, कूटनीति जैसे महत्वपूर्ण विषयों की भी शिक्षा दी। बचपन में, उनकी माँ जीजाबाई उन्हें रामायण, महाभारत और अन्य नायकों की कहानियाँ सुनाया करती थीं।
शिवाजी महाराज सम्राट श्रीकृष्णदेवराय जैसे महान राजा से काफी प्रेरित थे। सम्राट श्रीकृष्णदेवराय सोलवी शताब्दी में दक्षिण भारत के एकमात्र शक्तिशाली हिंदू राजा थे। छोटी उम्र से ही शिवाजी महाराज के पास एक अच्छा नेता बनने के लिए आवश्यक सभी कौशल थे।
छत्रपति शिवाजी महाराज की ऊंचाई और वजन
शिवराय का वजन इंग्रज अधिकारी हेनरी औक्सिन डेन के रिकॉर्ड के अनुसार ६६ किलोग्राम था| राज्याभिषेक के समय शिवाइज राजे के वजन जितना स्वर्ण तोला गया था| जिसे सुवर्ण तुला की विधि कहते है| तब उनका वजन १६० पाउंड का मतलब ७३ किलोग्राम था। लेकिन अगर उनके कपड़े, गहने, कट्यार, तलवार, श्री विष्णु की मूर्ति आदि का वजन हटाने पर उनका असली वजन लगभग १४५ पाउंड होना चाहिए, जो कि ६६ किलोग्राम है।
शिवाजी राजे का कद: शिवराय की ऊँचाई इतिहासकारो के मुताबिक लगभग १६८ सेमी, ५ फीट ६ इंच होनी चाहिए।
रायरेश्वर मंदिर में स्वराज्य की शपथ
बहुत कम उम्र में, शिवाजी महाराज ने स्वराज के लिए विश्वसनीय साथियों का गठन करना शुरू किया| उन्होंने गुप्त मार्गों के बारे में जानकारी भी इकट्ठा की। फिर एक दिन अचानक से शिवराय अपने साथियों को लेकर रायरेश्वर के मंदिर गए|
अपने साथियों के सामने उन्होंने बोलना शुरू किया, “दोस्तों आज में आपसे हम सबके बारे में बात करना चाहता हूँ| आज वैसे देखा जाये तो हमारा सब कुछ सही चल रहा है| सबको किसी की कमी महसूस नहीं होती| पर फिर भी मई आपसे सवाल करना चाहता हूँ| क्या आप सही में अंदर से खुश है? क्या आपपे कोई हुकूमत करे, और उसके सहारे हम अपना जीवनव्यापान करे, क्या यह आपको मंजूर है?” क्या आप दुसरो की गुलामी कर जीना पसंत है?”
शिवाजी राजे अब गुस्से से लाल हो गए थे| अब उनके साथी मित्र एकसाथ होकर बोले, “आप बोले तो हम आपने प्राण त्याग देंगे| आप बस बोलो हमें क्या करना है?”
शिवाजी राजे बोले, “भाइयों अब समय आ गया है, अपनी मिट्टी को गुलामी की जंजीरो से आज़ाद करने का| तो आओ हम आज साथ में भगवान महादेव के सामने यह प्रण लेते हैं की, जब तक इस स्वतंत्रता के लिए प्यासे हिंदुस्तान को आज़ादी का पानी पीला नहीं देते, हम चैन से नहीं बैठेंगे| ये हिंदवी स्वराज्य होना चाहिए, यह तो परमेश्वर की इच्छा हैं| तो आओ इस इच्छा को हम मिलकर पूरा करें|”
छत्रपति शिवाजी महाराज का प्रसिद्ध उदाहरण
ये हिंदवी स्वराज्य होना चाहिए। यह श्री की इच्छा हैं।।
स्त्रियों का आदर करें, अन्यथा कड़ी सजा दी जाएगी।
मौत आएगी तो भी चलेगा, लेकिन शरण नहीं जाऊंगा।
– छत्रपति शिवाजी महाराज
स्वराज्य के लिए छत्रपति शिवाजी महाराज की दौड़
शिवराय ने सोलह वर्ष की आयु में, अपने साथियों, सैनिकों और हथियारों को इकट्ठा करना शुरू कर दिया था। उन्होंने तोरना किले से अपना अभियान शुरू किया। तोरना किला आदिलशाह के उपेक्षित किलों में से एक था। दूसरी और इसकी सुरक्षा के लिए पर्याप्त सैनिक नहीं थे। शिवराय ने किले पर नजर रखी और मौका मिलते ही, कुछ सैनिकों के साथ किले पर कब्ज़ा कर लिया। इस प्रकार शिवाजी राजे ने स्वराज्य की नींव रखी। किला बहुत बड़ा होने के कारन, महाराज ने इस किले को “प्रचंडगढ़” नाम दिया।
युद्ध में आक्रमक वृति के वजह, समझदारी से अपनी शक्ति का उपयोग करना शिवराय अच्छी तरह जानते थे।
कुछ लोग गनिमी कावा को पीछे से किया हुआ वार हमला समझते हैं। तो उनको में बताना चाहता हूँ, की ऐसा नहीं हैं। गनिमी कावा एक युद्ध प्रणाली हैं, जिसमें कम सैनिकों के साथ अपनो से कई गुना शक्तिशाली दुश्मन के साथ लढना होता हैं। तब कम सैनिकों के साथ खुले मैदान में लढना संभव नहीं होता। इसीलिए इस युद्ध प्रणाली में दुश्मन के ठिकाने का पता लगाकर, उसपर नजर रखकर सही मौका देखकर उसपर हमला करते हैं।
मराठा साम्राज्य की पहली राजधानी
तोरणा किले के पास एक और किला था। वह किला पूरी तरह से बना नहीं था। शिवाजी महाराज ने उस किले पर कब्जा कर लिया और अधूरे किले का काम पूरा किया। शिवाजी राजे ने इस किले का नाम राजगढ़ रखा। शिवराय ने राजगढ़ को स्वराज्य (मराठा साम्राज्य) की पहली राजधानी बनाई। बाद में, उसे रायगढ़ स्थानांतरित कर दिया गया। इसी तरह, राजगढ़ के बाद, उन्होंने कोंढाणा, लोहगढ़, पन्हाला, सज्जनगढ़, रोहिड़ा, आदि कई किलों पर कब्जा कर लिया।
रिश्तेदारों को लेकर शिवाजी महाराज की नीति
छत्रपति शिवाजी महाराज ने हमेशा रिश्तेदारों की तुलना में जिम्मेदारी को अधिक महत्वपूर्ण माना। बहुत कम लोग जानते हैं कि शिवाजी महाराज का एक सौतेला भाई “संभाजी” था, जो हमेशा स्वराज्य के रास्ते में आने की कोशिश करता था।
शिवराय के बहनोई बालाजी ने भी स्वराज्य के खिलाफ एक अभियान चलाया। इसलिए महाराज को उनके खिलाफ लड़ना पड़ा। इसके अलावा, जब उनके भाई संभाजी उनके रास्ते में आये। तब शिवराय ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और उन्हें दूर क्षेत्र में स्वराज्य का काम करने के लिए भेज दिया।
शिवराय ने स्वराज्य के मार्ग पर आने वाले किसी को भी माफ नहीं किया। वह व्यक्ति चाहे फिर परिवार से हो या समाज के किसी भी जाती-वर्ग से। उन्होंने हमेशा परिवार और लोगों के बारे में निष्पक्ष दृष्टिकोण से देखा। शिवाजी राजे प्रजा पर अपनी संतान जैसा प्रेम करते थे। शायद यही कारन है, लोगों के मन में आज भी, उनके प्रति उतना ही आदरभाव और प्रेम हैं, जितना उनके कार्यकाल में उनसे लोग करते थे।
जावली पर छत्रपति शिवाजी राजे की जीत
इसके बाद, शिवाजी महाराज ने “जावली” पर कब्जा करने की योजना बनाई, जो बहुत चुनौतीपूर्ण थी। जावली में “रायरी” किला था, जो चारों तरफ से घने जंगलो से घिरा था। उन घने जंगलों में दिन में भी धुप जमीं पर नहीं पहुँच पाती थी । इसलिए रायरी को जितना आसान नहीं था।
रायड़ी का किला सह्याद्रि पर्वतश्रृंखला में ८५० मीटर (२७०० फुट) ऊँचा था। रायरी और जावली सर करने के बाद, महाराज ने रायरी को “रायगढ़” नाम दिया। स्वराज की राजधानी अधिक सुरक्षित होनी चाहिए, इसलिए महाराज ने राजगढ़ से राजधानी रायगढ़ स्थानांतरित कर दी। इस प्रकार “रायगढ़” स्वराज की नई राजधानी बन गई।
जावली हुयी जीत को स्वराज्य के हित में एक महत्वपूर्ण कदम मन जाता हैं। क्योंकि, इस जीत के बाद स्वराज्य का प्रान्तीय क्षेत्र बढ़कर लगभग दुगुना हो गया था।
आदिलशाह का स्वराज्य पर हमला
रायरी और जावली को हिरासत में लेने के बाद विजापुर में तहलका मच गया। तब आदिलशाही दरबरका का काम संभाल रही थी, बड़ी साहेबिन। दरकारमे एक से बढ़कर एक सरदार उपस्थित थे। बड़ी साहेबिन ने दरबारमे पूछा, “क्या इस पुरे दरबार में एक भी नहीं, जो शिवाजी को जिन्दा या मुर्दा यहाँ ला सके?” तब वाई का सुभेदार सरदार अफजलखान अपनी दाढ़ी सहलाते हुए आगे आया। उसने शिवराय को जिंदा या मुर्दा पकड़ने के विडा उठाया।
अफज़खान की स्वराज्य पर चाल
अफज़खान ने बीजापुर से दस हजार सैनिकों के साथ कूच किया। तब शिवराय राजगढ़ से तुरंत प्रतापगढ़ गए। क्योंकि, घने जंगलो से होकर इतनी बड़ी सेना, गोला-बारूद, हथियार ले जाना मुश्किल था। उस समय, अफ़ज़ल खान ने शिवराय को एक संदेशपत्र लिखा। जिसमें शिवाजी राजे से किले वापस कर दें और साथ में आदिलशाह के अधीन होकर काम करे, ऐसा अनुरोध किया। शिवाजी महाराज अफज़खान कितना कपटी हैं, यह अच्छी तरह से जानते थे।
शिवराय ने अफजलखान को लिखा, “मैं सारे किले लौटाने के लिए तैयार हूँ, मैं आपका दोषी हूँ। तो कृपा कर आप प्रतापगढ़ आईये, क्योंकि मुझे वहाँ आने से डर लगता हैं। अफज़खान उस जवाब को सुनकर बहुत खुश हुआ। उसने सोचा, शिवाजी तो डरपोक और कायर हैं, इससे मेरा क्या मुकाबला ! इस तरह अंत में अफज़खान प्रतापगढ़ आने के लिए तैयार हुआ।
छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा आदिलशाह का अंत
निश्चित समय पर, शिवराय और अफज़लखान दोनों दस अंगरक्षकों के साथ मिलने के लिए सहमत हुए। शिवराय शामियाना में जाने के बाद, अफज़लखान शिवराय को गले लगाने के लिए आगे आया। अफज़लखान के विशाल देह के सामने शिवराय दिखने में छोटे लग रहे थे। जब शिवाजी राजे अफज़लखान के गले लगे तब उनका सिर दाहिने बगल में दबाया और
अफज़लखान ने खंजर से जोरदार प्रहार किया। हालांकि, शिवराय को इस तरह की दुर्घटना होने पहले से अनुमान था। इसलिए, शिवाजी महाराज ने पहले से ही कवच पहन रखा था। कपटी अफज़लखान के वार से शिवराय बाल-बाल बच गए। दूसरे ही क्षण, शिवाजी राजे ने हाथ में लगे बाघनखों से अफज़लखान का पेट फाड़ दिया। दगा-दगा चिल्लाते हुए, अफज़लखान जैसा महाकाय हाथी जमीं पर गिर पड़ा।
शिवाजी राजे की प्रहार से अफज़लखान की आंतें बाहर निकल आती हैं। अफज़लखान की यह आवाज सुनकर सय्यद बंडा नाम का अफज़लखान का अंगरक्षक अंदर आता है। अंदर आते ही शिवाजी राजे पर पीछे से दांडपट्टा से प्रहार करने लगता हैं। उसी समय समय रहते शिवराय का अंगरक्षक जीवा महाला शामियाने में आकर उस प्रहार को अपने उपर लेता हैं। दूसरे क्षण में जीवा महाला अपने पट्टे के एक प्रहार से सय्यद बंडा को मौत के घाट उतरता हैं।
इस तरह शिवराय पहली बार अफज़लखान से अपने दूरदृष्टि और सूझ-बुझ के कारन बचे। तो दूसरी बार सय्यद बंडा जैसे धूर्त से अपने विश्वसनीय साथी अंगरक्षक जीवा महाला के कारन बचे। मराठा साम्राज्य के इतिहास में प्रतापगढ़ की यह भेट बहुत महत्वपूर्ण कदम था। क्योंकि मराठा साम्राज्य का पूरा भविष्य इस भेट पर निर्भर था।
भेट के बाद शिवराय ने प्रतापगढ़ के घने वन में छुपे मराठा सैनिको को लड़ाई का संकेत दिया। लड़ाई का संकेत मिलते ही, घात लगाए बैठे मराठा सैनिक हर हर महादेव की गर्जना करते हुए आदिलशाही सेना पर टूट पड़े। अचानक से किये इस करारे हमले से आदिलशाही सेना बौखला गयी। मराठा सैनिको ने दुश्मन सेना को संभालने का मौका ही नहीं दिया। देखते ही देखते मराठा सेना ने आदिलशाही फ़ौज को नेस्तनाबूद कर दिया।
आदिलशाही सेना पराजित होने वाली खबर हवा की तरह चारो दिशाओ में फैल गयी। शिवाजी महाराज के इस पराक्रम से आदिलशाह गुस्से से आगबबूला हो गया।
पन्हाला की घेराबंदी
सन १६६० में, आदिलशाह ने मराठों को हराने के लिए अपने विशेष सरदार को भेजा। उसका नाम था, सिद्धि जौहर, जो एक क्रूर सेना सेनानी था। उसने ४०,००० आदिलशाही सैनिकों के साथ पन्हाला किले को घेर लिया। पन्हाला किले में शिवराय अटक गए। शिवाजी महाराज जल्द से जल्द आत्मसमर्पण कर दे, इसलिए सिद्दी जोहर ने उसकी तरकीब आजमाई। उसने पन्हाला के पास वाले गावो के निर्दोष लोगों पर अत्याचार करना शुरू कर दिया।
पन्हाला किले पर स्थिति गंभीर
पन्हाला किले के खाद्य भंडार समाप्त हो रहे थे। इसलिए, शिवाजी राजे को घेराबंदी से बाहर निकलना बहुत जरुरी था।
शिवा कासिद का बलिदान
शिवराय के दैनिक जीवन में सहायता के लिए उनका एक सेवक था। जिसका नाम था शिवा कासिद, वह बिलकुल शिवाजी राजे की तरह ही दिखता था। उस समय, शिवराय के साथ उनके विश्वसनीय सरदार थे बाजीप्रभु देशपांडे थे। उन्होंने शिवराय को सुझाव दिया की, शिवा कासिद को अपनी जगह पालखी में बिठाया जाए। तब शिवाजी महाराज ने शिवा कासिद को बुलाकर पूछा, क्या इस काम को पूरा कर सकोगे। शिवा कासिद बोला, “राजे, यह मेरा सौभाग्य होगा, अगर में स्वराज्य के काम में थोड़ा भी सहयोग कर पाऊँ!”
शिवराय ने रात को किले से निकलने की योजना बनाई। बारिश का मौसम था, बाहर भारी बारिश हो रही थी, उपर से रात का घना अँधेरा। घेराबंदी से बचना आसान नहीं था, इसलिए दुश्मन को विचलित करना जरुरी था। शिवा काशिद ने शिवाजी महाराज के कपड़े, सिर पर जिरटोप, गले में कवड़े की माला पहनी। और सौ मावलों के साथ वह महाराज की पालखी में बैठकर आगे जाता हैं। तो दूसरी तरफ, शिवाजी महाराज की पालखी ६०० चुनिंदा मावलों (मराठा सैनिकों) को लेकर खुफिया रास्ते से आगे बढ़ती हैं।
बाहर निकलने के बाद शिवा कासिद की पालकी कुछ देर में दुश्मनो के हाथ लग जाती हैं। आदिलशाही सेना इस गलतफहमी में गाफिल रहने लगी की, शिवाजी महाराज को पकड़ लिया गया हैं। दूसरी और सिद्धी जौहर ने कभी शिवाजी राजे को पहले कभी देखा नहीं था। लेकिन कुछ देर में अफजलखान का पुत्र फजलखान आता हैं, जिसने शिवाजी महाराज का चेहरा देखा था। उसने जांच करने पर सिद्धि जौहर को पता चल जाता हैं की, ये तो शिवाजी महाराज नहीं हैं। शिवा कासिद शिवाजी राजे नहीं हैं यह असली पहचान सामने आते ही, शिवा कासिद का सर धड़ से अलग कर दिया जाता हैं।
शिवराय का घेराबंदी भेदकर विशालगढ़ की ओर प्रस्थान
शिवराय घेराबंदी तोड़कर निकल गए, यह बात सुनकर सिद्धी जौहर गुस्से से लाल हो जाता हैं। वह तुरंत शिवाजी महाराज का पीछा करने के लिए एक बड़ी सेना के साथ सिद्धि मसूद को भेजता है। आखिरकार, घोड़ खिंड के पास में मसूद की सेना शिवराय के सैनिको के नजदीक आ जाती हैं।
बाजीप्रभु देशपांडे की स्वराज्यभक्ति
शिवाजी महाराज अपने साथी सरदार बाजीप्रभु देशपांडे से बोले,”बाजी, अब विशालगढ़ तक पहुँचना मुश्किल, तो चलो पीछे मुड़कर गनीमों का सामना करें।” तब बाजीप्रभु बोले,”राजे, कृपा कर आप आगे जाए, मैं आधे सैनिकों के साथ यही पर गनीमों को रोकता हूँ।
आप जब तक विशालगढ़ नहीं पहुँच जाते, आपसे वादा करता हूँ, मेरे जितेजी एक भी गनीम (दुश्मन) को घाटी पार नहीं करने दूँगा।” शिवराय बोले,”नहीं बाजी, में तुम्हे सबकुछ जानते हुए भी अकेले मृत्यु के मुँह में कैसे ढकेल दूँ। हम दोनों साथमे गनीमों का सामना करेंगे। जो होगा वो देखा जायेगा। मृत्यु से भयभीत होकर भागनेवालो में से हम नहीं।”
बाजीप्रभु बोले,”राजे, गनीम भी तो यही चाहता हैं, की स्वराज्य के सपने को कैसे चूर-चूर करा जाए। मेरे जैसे सैकड़ो बाजी आपको मिल जायेंगे, पर आप जैसे राजा हमें फिर से नहीं मिलेंगे। लाख मरे तो भी चलेगा पर लोखों का पालनहार जीना चाहिए।”
शिवाजी महाराज बाजीप्रभु से आखिरी बार गले मिलते है।
शिवराय बाजीप्रभु जैसे साथी को अकेले नहीं छोड़ना चाहते थे। पर स्वराज्य के सपने को आगे बढ़ाने के लिए उनका जिन्दा रहना जरुरी था। शिवराय बाजीप्रभु से बोले की, “हम विशालगढ़ पहुंचते ही तीन बार तोपें दागने के लिए कहेंगे, उन तोपों का आवाज सुनते ही तुम खिंड छोडके विशालगढ़ की और प्रस्थान करो।”
समय कीमती था, और दुश्मन की पीठ पर, शिवराय ने दिल पर पत्थर रख कर विशालगढ़ की और कूच किया। बाजीप्रभु ने अपने राजा को पालखी से जाते हुए, आखिरी बार मुजरा किया। धीरे-धीरे पालखी आखों ओझल होती गयी।
घोडखिंड की लड़ाई
बाजीप्रभु ने आदिलशाही सेना से लड़ाई के लिए अपनी तैयारी शुरू कर दी। सभी मावलों (मराठा सैनिकों) के साथ बाजीप्रभु ने अपनी रणनीति बनाना आरंभ किया। सभी सैनिकों ने गनिमी कावा युद्धनीति के तहत पत्थर इकट्ठा करना शुरू किया। सभी मावले घोडखिंड के द्विभागीय ऊँचे पहाड़ो पर अपने नियुक्त स्थान पर छिप गए।
बाजीप्रभु देशपांडे का बलिदान
कुछ ही देर में सिद्धि मसूद के फौज के पहले दस्ते ने घोड़खिंड में प्रवेश किया। बाजीप्रभु ने उस सेना टुकड़ी को घोड़खिंड के बीचोबीच आने तक प्रतीक्षा की। दुश्मन बीचोबीच आते ही बाजीप्रभु ने दुश्मनों पर पत्थरों की वर्षा करने का आदेश दिया। हर हर महादेव की गर्जना कर मराठा मावले आदिलशाही सेना पर टूट पड़े। ऊंचाई से किये इस हमे से पहला दस्ता बुरी तरह से चित हो गया। बचे कुछ सैनिकों को निचे खड़े समशीरधारक मावले काट डालते हैं।
इसी तरह सरदार बाजीप्रभु देशपांडे ने मुठ्ठीभर मराठा मावलों के साथ सैकड़ो आदिलशाही सैनिकों का खात्मा किया। लेकिन सिद्धि मसूद की सेना संख्या में कई गुना अधिक थी। बाजीप्रभु रक्त में सन्न हुए बाजीप्रभु दोनों हाथों में तलवार लिए दुश्मनो से लड़ रहे थे।
अंततः मसूद के सैनिक बाजीप्रभु को घेर लेते हैं, और उन पर हर तरफ से हमला करते हैं। अब बाजीप्रभु गंभीर रूप से घायल होकर ज़मीन पर गिर गए। इतने में तीन बार आकाश में तोपों की कड़कड़ाहट सुनाई दी। बाजीप्रभु बोले, “राजे गड पर सुरक्षित पहुंच गए, मैंने अपना कर्त्तव्य पूरा किया, अब में खुशी से मर सकूंगा।” इस तरह से स्वराज्य के प्रति अपार निष्ठा रखनेवाले बाजीप्रभु देशपांडे का अंत हो गया।
कभी-कभी, हमारी मातृभूमि रक्त के लिए आह्वान करती है, तब बाजीप्रभु जैसे देशभक्त अपने रक्त का अभिषेक करके, अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता बनाए रखते हैं। ऐसे वीर योद्धा को शत-शत नमन!
पन्हाला किले में से बाजीप्रभु देशपांडे का स्मारक:
छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा शाहिस्ताखान को सजा
मराठो का बंदोबस्त करने औरंगजेब ने उसके चाचा शाहिस्ताखान को डेक्कन भेज दिया। औरंगजेब की कमान में, शाहिस्ताखान ने 1.5 लाख मुगल सैनिकों के साथ स्वराज्य पर चढ़ाई की। शिवाजी राजे उसके शरण में आये, इसलिए उन्होंने गाँवों को लूटने, मंदिरों को नुकसान पहुँचाने और किसानों की फसलों को नुकसान पहुँचाना शुरू किया। उसने लाल महल पर कब्ज़ा कर वहा अपना डेरा बिछाया। उस समय, शिवराय ने शाहिस्तेखान को ठिकाने लगाने के लिए लाल महल जाने का साहसिक निर्णय लिया।
लाल महल जाने का निर्णय बहुत ही आत्मघाती था, पर स्वराज्य का नुकसान रोकने हेतु शाहिस्तेखान को सबक सिखाना जरुरी था। क्योंकि डेढ़ लाख की सेना में जाना आत्महत्या करने जैसा ही था।
लेकिन महाराज बहुत दृढ़निश्चयी। उन्होंने और उनके चुनिंदा साथियों को लेकर एक विवाह की बारात के माध्यम से पुणे में प्रवेश किया।
सन १६६३ में, महाराज ने बड़ी चतुराई के साथ लाल महल की दीवार को तोड़कर किले में प्रवेश किया। थोड़ी देर मे जब महल खबर फैलती है, कि शिवराय ने महल में प्रवेश किया हैं। इतना काफी था, शाहिस्तेखान की नींद हराम करने के लिए। उसे समझ नहीं आ रहा था की क्या करे, और कहा छिपे।
कुछ महिलाये जानती थी की, शिवराय महिलाओं की जाँच नहीं करेंगे, क्योंकि वो उनका सम्मान करते हैं। इसलिए, शाहिस्तेखानने महिलाओं के कपडे पहने और महिलाओं के बिच जाकर छुप गया।
शिवाजी राजे का एक साथी शाहिस्तेखान को पहचानता था। वह साथी उन स्त्रयों में शाहिस्तेखान को पहचान लेता।
शाहिस्तेखान पहचान में आते ही, शिवराय उसका पीछा करते हैं। दूसरा कोई रास्ता नजर न आने पर, शाहिस्तेखान बालकनी से निचे कूदता। पर कूदते समय शाहिस्तेखान के हाथ की तीन उंगलिया शिवाजी महाराज के हाथो कट जाती हैं।
शायद आप यह पढ़ने में रूचि रखते है,
लक्ष्मीबाई- झाशी की अद्भुत क्रन्तिकारी
मुझे उम्मीद है कि आपको छत्रपति शिवाजी महाराज की जीवनी पसंद आयी होगी। अगर आपको यह लेख पसंद आया हो, तो इसे सोशल मीडिया पर शेयर करना न भूलें। आपका यह छोटा प्रयास हमें आपके लिए अधिक रोचक सामग्री तैयार करने में मदद करता है।