तात्या टोपे की जीवनी – इतिहास, १८५७ के युद्ध में योगदान

by मार्च 6, 2021

यह तो हम सभी जानते हैं , कि अंग्रेजों ने कई सालों तक हमारी भारत माता को गुलाम बनाकर रखा। लेकिन इस बात पर भी कोई शक नहीं है , कि भले ही अंग्रेजों ने हमें गुलाम बना कर रखा। लेकिन उन्हें हमें गुलाम बनाना इतना भी आसान नहीं था। उन्हें हमारे भारत में राज करने के लिए कई वीर, बहादुर और युद्ध कला में माहिर राजाओं से युद्ध करना पड़ा।

अंग्रेजों से भारत को मुक्ति दिलाने के लिए सन 1857 में सबसे पहला स्वतंत्रता संग्राम शुरू हुआ। इस स्वतंत्रता संग्राम में रानी लक्ष्मी बाई, मंगल पांडे और तात्या टोपे जैसे कई वीर योद्धाओं ने अंग्रेजों का सामना डटकर किया। लेकिन उसके बावजूद भी सभी राजाओं का साथ ना मिल पाने और कुछ राजाओं का अंग्रेजों के साथ मिल जाने के कारण ये महान योद्धा भारत को अंग्रेजों से मुक्त कराने में असफल रहे।

लेकिन यह सभी जब तक जीवित रहे , इन लोगों ने अंग्रेजों का जीना मुश्किल कर दिया था। अगर आप आज भी पुरानी किताबों को उठाकर पढ़ेंगे , तो पाएंगे कि अंग्रेजों ने भी इन योद्धाओं का लोहा माना है।

War of 1857
Image Credits: Granger at Wikimedia, Source: fineartamerica

लेकिन जब भी 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की बात आती है , सबसे पहला नाम लोगों के जुबान पर तात्या टोपे का आता है, क्योंकि तात्या टोपे ने उस समय अंग्रेजों से लड़ने में बेहद ही अहम भूमिका निभाई थी या यह कहें , कि भारत को अंग्रेजों से मुक्ति दिलाने के लिए तात्या टोपे का बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

वैसे तो तात्या टोपे किसी परिचय के मोहताज नहीं है। लेकिन आज हम आपको तात्या टोपे के जीवन के बारे में सारे महत्वपूर्ण पहलुओं को विस्तार पूर्वक बताएंगे। तो चलिए जानते हैं , तात्या टोपे की जीवनी।

तात्या टोपे भारत के महान स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे। उन्होंने भारत को अंग्रेजों से मुक्ति दिलाने के लिए बेहद ही अहम भूमिका निभाई है। अपनी भारत माता को गुलामी की जंजीरों से आजाद कराने के लिए उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ कड़े कदम उठाए थे। इन्होंने अपने युद्ध कौशल और निडर स्वभाव से ब्रिटिश शासन की नींव हिला कर रख दी थी।

आइए सबसे पहले, तात्या टोपे के जन्म स्थान और उनके परिवार के बारे में जान लेते हैं |

तात्या टोपे का जन्म 1814 ईसवी में महाराष्ट्र के पटौदा जिले में हुआ था। इनका जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। जन्म के समय इनका नाम रामचंद्र पांडुरंग येवलकर रखा गया था। लेकिन इस नाम से तात्या टोपे को भारत में कुछ लोग ही जानते होंगे। आज उन्हें पूरा भारत तात्या टोपे के नाम से ही जानता है। बचपन में उन्हें लोग प्यार से तात्या बुलाते थे। जब तात्या टोपे बड़े हुए तब पेशवा बाजीराव ने उन्हें अपने राज्यसभा में मुंशी के तौर पर नियुक्त किया।

उनके नाम के आगे टोपे तब जुड़ा जब पेशवा बाजीराव ने उनके कार्य के प्रति ईमानदारी को देखकर उन्हें अपने राज्यसभा में बहुमूल्य रत्नों से जड़ी एक टोपी देकर उन्हें सबके सामने सम्मानित किया। जिसे वह हमेशा पहन कर रखते थे। इसी कारण उनके नाम में टोपे शब्द भी जुड़ गया। जिसके बाद से वह पूरे इतिहास में तात्या टोपे के नाम से जाने जाने लगे।

तात्या टोपे के पिता का नाम पांडुरंग पंत और माता का नाम रुक्मिणी बाई था। तात्या टोपे के कुल 8 भाई बहन थे। सभी भाई बहनों में तात्या टोपे अपने घर में सबसे बड़े थे। लेकिन इस बात में कितनी सच्चाई है , यह कहा नहीं जा सकता क्योंकि इस बात की कहीं पर कोई ठोस पुष्टि नहीं हुई है। अगर इनके पिता के बारे में बात की जाए , तो उनके पिता अपने समय के महान राजा पेशवा बाजीराव द्वितीय के सानिध्य में काम किया करते थे। तात्या टोपे के पिता पेशवा बाजीराव के बेहद ही खास हुआ करते थे।

तात्या टोपे का कानपुर पलायन

महाराष्ट्र में जन्मे तात्या टोपे ज्यादा समय तक महाराष्ट्र में नहीं रह पाए। 3 वर्ष की आयु में उन्हें महाराष्ट्र छोड़कर उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर के पास बिठूर में पलायन करना पड़ा।

इसकी वजह पेशवा बाजीराव द्वितीय और ब्रिटिशों के बीच छिड़ी जंग थी। इस युद्ध में पेशवा बाजीराव द्वितीय ब्रिटिशों से पराजित हो गए। जिससे इनके राज्य में पूरी तरह से अंग्रेजों ने कब्ज़ा कर लिया। जिसकी वजह से वहां रह रहे लोगों ने उस राज्य से पलायन कर लिया। यही वजह थी , जिसके कारण तात्या टोपे को अपना जन्मस्थान छोड़कर उत्तर प्रदेश की ओर पलायन करना पड़ा।

युद्ध कला का अभ्यास

तात्या टोपे बचपन से ही अपने मित्रों के साथ युद्ध कला का अभ्यास किया करते थे। तात्या टोपे जी की मित्रता भी कोई साधारण लोगों से नहीं थी। उनकी मित्रता रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब पेशवा और राव साहब के साथ थी। नाना साहेब के साथ उनकी दोस्ती ज्यादा गहरी थी। उन्होंने उन्हीं के साथ ही अपनी पूरी शिक्षा प्राप्त की।

इसके साथ ही जैसे-जैसे समय बढ़ता गया उनकी दोस्ती और भी गहरी होती गई। इनकी दोस्ती आगे चलकर इतनी गहरी हो गई , कि ये नानासाहेब के सबसे खास या कहें उनका दाहिना हाथ बन गए।‌ ये दोनों ही युद्ध कला में माहिर थे। इसलिए दोनों ने ब्रिटिशों के खिलाफ जंग छेड़ी और दोनों ने मिलकर अंग्रेजों को कई बार युद्ध के मैदान में धूल चटाया।

कैसे जली विद्रोह की अग्नि

जब नानासाहेब छोटे थे , तब अंग्रेजों ने उनके पिता बाजीराव पेशवा को हराकर उनका पूरा राज्य छीन लिया था। जिसके कारण पेशवा को अपना राज्य छोड़कर कानपुर जाना पड़ा था। उन्हें अपना राज्य छोड़ने के एवज में ₹800000 साल के दिए जाते थे। लेकिन यह पैसे पेशवा को सिर्फ उनके जीवित रहते तक ही दिया गया।

पेशवा बाजीराव की मृत्यु के बाद उनके परिवार को यह मेंटेनेंस की राशि नहीं दी जाती थी। इसके साथ ही उनके गोद लिए हुए पुत्र नानासाहेब को भी पेशवा की मृत्यु के बाद उत्तराधिकारी बनने का अधिकार छीन लिया गया। यह सारी बातें नानासाहेब और तात्या टोपे के अंदर अंग्रेजो के खिलाफ गुस्से के तौर पर आग के रूप में भड़क रही थी।

इस बात का गुस्सा नाना साहेब और तात्या टोपे के अंदर कूट-कूट कर भरा था। जब नानासाहेब बड़े हुए तो उन्होंने अंग्रेजों से इस बात का बदला लेने का फैसला किया। जिसके बाद उन्होंने तात्या टोपे के साथ मिलकर अंग्रेजो के खिलाफ आवाज उठाई। उनके इस नफरत ने अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह का रूप लिया।

जिसके बाद नानासाहेब और तात्या टोपे ने अंग्रेजों के साथ कई युद्ध किए। उनके इस युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई ने भी उनका पूरा साथ दिया।

तात्या टोपे को सेनापति चुना गया

Chief General Tatya Tope
Image Credits: काशिनाथ नरसिंह केळकर (१९५७), Source: Wikimedia

अपने इस विद्रोह को अंजाम तक पहुंचाने के लिए नाना साहेब ने सैन्य बल तैयार किया गया। ऐसा 1857 में किया था, क्योंकि उस समय अंग्रेजों के खिलाफ सैन्य विद्रोह का समय चल रहा था। उन्होंने इस समय का फायदा उठाते हुए अपनी भी एक सेना तैयार की, जिसमें तात्या टोपे ने उनकी बहुत मदद की।

जिसके बाद नाना साहेब ने तात्या टोपे को अपने सेना का सेनापति नियुक्त किया। नानासाहेब तात्या टोपे पर आंख बंद कर कर विश्वास करते थे। यही कारण था, कि उन्होंने सेनापति के तौर पर तात्या टोपे को ही चुना।

1857 का युद्ध

जब भारत में 1857 में स्वतंत्रता संग्राम का विद्रोह शुरू हुआ। तब नानासाहेब और तात्या टोपे भी उसका हिस्सा बन गए, क्योंकि इसके जरिए वो अपने साथ हुए अन्याय का बदला लेना चाहते थे। साथ ही अंग्रेजों की गुलामी से भारत को आजाद कराना चाहते थे।

जब 1857 में अंग्रेजों ने कानपुर पर हमला किया। तब नानासाहेब ने पूरी हिम्मत के साथ उनका डटकर सामना किया। लेकिन नानासाहेब अंग्रेजों से जीत नहीं पाए। इस समय नानासाहेब ने अंग्रेजों से सिर्फ एक नहीं कई बार युद्ध किया। लेकिन एक भी बार किस्मत ने उनका साथ नहीं दिया और वह हर बार अंग्रेजों से हार गए।

जिसके बाद उन्हें कानपुर छोड़कर जाना पड़ा। वह पूरे परिवार के साथ कानपुर छोड़कर नेपाल में रहने लगे। तब यह कहा जाने लगा , कि नानासाहेब नेपाल में रहकर भगवान की भक्ति करने लगे। नानासाहेब ने अपने आगे की पूरी जिंदगी नेपाल में ही गुजारी और वही अपनी अंतिम सांसे ली।

नानासाहेब तो कानपुर छोड़ कर चले गए। लेकिन तात्या टोपे ने हार नहीं मानी। उन्होंने यह मन में ठान लिया था , कि वह अंग्रेजों से भारत को आजाद करवा कर रहेंगे। फिर उन्होंने अपनी एक सेना तैयार की और अंग्रेजों से युद्ध के लिए तैयार हुए। जब तात्या टोपे बिठूर में अपनी सेना के साथ थे , उसी समय अंग्रेजों ने वहां पर हमला कर दिया।

जिसके बाद अंग्रेजों और तात्या टोपे की सेना के बीच एक भयंकर युद्ध हुआ। लेकिन तात्या टोपे भी ज्यादा समय तक अंग्रेजों के सामने नहीं टिक पाए और उनकी भी हार हो गई। तात्या टोपे भले ही युद्ध में हार गए , लेकिन वह अंग्रेजों के हाथ नहीं आए। वो वहां से भागने में कामयाब हो गए।

अंग्रेजों ने बहुत समय तक तात्या टोपे की खोज की। लेकिन तात्या टोपे अंग्रेजों के हाथ लग ही नहीं पा रहे थे। इसका मुख्य कारण यह था , कि तात्या हर थोड़े समय में अपनी जगह बदलते जा रहे थे। जिसके कारण उन्हें पकड़ना मुश्किल हो रहा था।

नानासाहेब और तात्या टोपे पर होने वाले सारे हमले ब्रिगेडियर जनरल हैवलॉक की अगुवाई पर की गई।

गुरिल्ला युद्ध

Tatya Tope Statue
Image Credits: Ch Maheswara Raju, Source: Wikimedia

शिवाजी की युद्ध नीति को अपनाते हुए तात्या टोपे ने एक नहीं कई बार गुरिल्ला युद्ध के सहारे अंग्रेजों को मात दी। गुरिल्ला युद्ध वो युद्ध होता है , जिसमें आक्रमणकारी तब हमला करता है , जब सामने वाला पक्ष युद्ध के लिए तैयार ना हो। इसके साथ ही वह हवा की तरह आकर दुश्मन को मार गिराता है और उनको कुछ समझ आए उसके पहले ही वहां से चला जाता है।

तात्या ने अंग्रेजों के लिए ये युद्ध नीति विंध्या की खाई से लेकर अरावली पर्वत अपनाई थी। उन्होंने इस युद्ध में कितने ही अंग्रेजों को मार गिराया था। जिसके बाद अंग्रेजों ने उनका कई मिलो तक पीछा किया। लेकिन उसके बावजूद भी वह बहुत समय तक तात्या को पकड़ने में असफल रहे।

तात्या टोपे और रानी लक्ष्मीबाई के युद्ध की कहानी

तात्या टोपे और नाना साहेब की मित्रता तो बचपन की ही थी। इसलिए तात्या टोपे ने हर कदम पर नाना साहेब का साथ दिया। लेकिन इसके अलावा तात्या टोपे ने रानी लक्ष्मीबाई का भी युद्ध में भरपूर मदद की।

1887 वह समय था, जब रानी लक्ष्मीबाई ने भारत को अंग्रेजों से आजाद कराने का प्रण लिया था। उस समय जब अंग्रेजों ने झांसी पर हमला किया, तब तात्या टोपे ने रानी लक्ष्मीबाई की बहुत मदद की। उन्होंने अपनी सेना रानी लक्ष्मीबाई को दी जिसके सहारे उन्होंने वह युद्ध जीता और रानी लक्ष्मीबाई को अंग्रेजों के चंगुल से छुड़ाने में कामयाब हुए।

इस युद्ध को जीतने के बाद तात्या टोपे और रानी लक्ष्मीबाई कालपी चले गए, जहां रहकर उन्होंने आगे किस तरह से युद्ध लड़ना है और कैसे अंग्रेजों को मात देनी है, इस बात की रणनीति बनाई।

अपने इतने दिनों के अनुभव से तात्या यह समझ चुके थे, कि उन्हें अंग्रेजों से जीतने के लिए अपनी सेना को और बड़ा और साथ ही मजबूत करना होगा। तभी वह अंग्रेजों से जीत पाएंगे। इसलिए उन्होंने राजा जयाजी राव सिंधिया से हाथ मिलाने का फैसला किया। जिसके बाद राजा सिंधिया ने तात्या टोपे और रानी लक्ष्मीबाई का पूरा साथ दिया। इस युद्ध में इनकी जीत हुई और इन्होंने ग्वालियर के किले पर अपनी जीत की ध्वजा लहराई।

यह युद्ध हारने के बाद अंग्रेजों के बाद अंग्रेजों की जैसे नींव ही हिल गई। उन्हें इस बात का बेहद धक्का लगा। फिर 18 जून 1858 में अंग्रेजों ने एक बार फिर ग्वालियर में हमला किया, जिसका सामना करते हुए रानी लक्ष्मीबाई उनसे हार गई। जब वह उस युद्ध में हार गई, तो उन्होंने अपने आप को अग्नि को सौंप दिया ताकि कोई भी अंग्रेज ना ही उन्हें छू सके और ना ही अपना गुलाम बना सके।

तात्या टोपे की मृत्यु कैसे हुई

तात्या टोपे की मृत्यु को लेकर हमेशा ही दो बातें कही जाती है, इतिहास के कुछ पन्नों में लिखा है, कि तात्या टोपे को अंग्रेजों ने फांसी दे दी। वहीं कुछ पन्नों में लिखा है, कि तात्या टोपे को कभी फांसी ही नहीं हुई। वह अपनी मौत से मृत्यु को प्राप्त हुए। अब इन दोनों बातों में कितनी सच्चाई है, यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन जो बातें इतिहास में कही गई है वह हम आपको बताते हैं।

फांसी

एक इतिहास के अनुसार यह बात सामने आई है, कि जब एक बार तात्या, पाडौन के जंगल में छुपे थे। उसी समय अंग्रेजों की सेना ने उन्हें खोज निकाला था। जिसके बाद उन पर कई मुकदमे चले। उस मुकदमे में उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई। जिसके बाद अंग्रेजों ने उन्हें फांसी पर लटका दिया।

वैसे तो कई सालों तक तात्या टोपे को अंग्रेज ढूंढने में असफल रहे। लेकिन कहा जाता है, कि अगर नरवर के राजा मान सिंह अगर तात्या टोपे का पता अंग्रेजों को नहीं बताते, तो शायद तात्या टोपे कभी भी अंग्रेजों के हाथ नहीं लगते। राजाओं में एकता ना होने के कारण ही भारत को आजाद होने में इतना समय लग गया था।

तात्या की प्राकृतिक मौत

दूसरा इतिहास यह कहता है, कि तात्या तो कभी अंग्रेजों के हाथ लगे ही नहीं थे। तात्या की मृत्यु 1909 में गुजरात के एक गांव में प्राकृतिक तौर पर हुई थी। तात्या ने अपनी पूरी जिंदगी जी थी। ऐसा इसलिए कहा जाता है, क्योंकि तात्या के लंबे समय तक जीवित रहने के कई प्रमाण भी मिले हैं। यहां तक कि उनके भतीजे ने तात्या के जीवित रहने की पुष्टि भी की है।

कहा यह जाता है, कि तात्या टोपे और मान सिंह ने मिलकर ही यह रणनीति बनाई थी और अंग्रेजों को झूठी सूचना एक जाल बिछाया। कि तात्या, पाड़ौन के जंगल में छुपे हुए हैं। उन्होंने किसी और को तात्या टोपे समझ कर पकड़ लिया और उन्हें फांसी दे दी। अंग्रेजों को यही लगता रहा, कि उन्होंने असली तात्या टोपे को पकड़कर फांसी दी है, जबकि वह तो सिर्फ एक छलावा था।

आपकी जानकारी के लिए बता दें, कि अंग्रेजों और तात्या के बीच एक, दो नहीं पूरे 150 युद्ध हुए। जिसमें तात्या की सेना ने अंग्रेजो के 10000 सैनिकों को मार गिराया था। जो कि अंग्रेजों का एक बहुत बड़ा नुकसान था।

कई युद्ध लड़ने के बाद में 1857 में आखिरकार तात्या ने कानपुर को अंग्रेजों से मुक्त करवा ही दिया। लेकिन अंग्रेज भी चुप नहीं बैठने वाले थे, उन्होंने फिर से कई हमले किए और आखिरकार फिर से कानपुर को अपने कब्जे में कर लिया।

तात्या टोपे को दिया गया सम्मान

तात्या टोपे ने भारत को अंग्रेजों से आजाद कराने के लिए बहुत बड़ा योगदान दिया। इसलिए भारत सरकार ने भी उनको सम्मान देने के लिए एक डाक टिकट में तात्या टोपे की फोटो लगवाई। इसी के साथ ही मध्यप्रदेश में पार्क भी बनवाया गया है, जिसका नाम तात्या टोपे के नाम पर रखा गया। उस पार्क में तात्या टोपे की एक मूर्ति भी बनाई हुई है।

ताकि जब भी लोग उस मूर्ति को देखें उनके द्वारा किए गए संघर्ष और उनके योगदान को याद करें। इसके अलावा कानपुर में तात्या का एक स्मारक बना हुआ है। इसके साथ ही वहां एक स्थान को भी तात्या के नाम पर रखा गया है, जिसे तात्या टोपे नगर के नाम से जाना जाता है। शिवपुरी जहां तात्या को फांसी दी गई थी, उस जगह पर भी तात्या के नाम पर एक स्मारक बनाया गया है।

कोलकाता में एक विक्टोरिया मेमोरियल हॉल है, जहां तात्या टोपे द्वारा एक युद्ध में पहना गया अचकन भी रखा हुआ है। इस अचकन को तात्या टोपे ने 1857 में हुए युद्ध में पहना था।

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