नमस्कार दोस्तों, आज मैं आपके सामने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की एक नायिका की जीवनी प्रस्तुत करने जा रही हूँ। भारतीय इतिहास में कई स्वतंत्रता सेनानी हुए हैं, जिन्हें हम समय के साथ भूल गए हैं। वेलू नाचियार एक ऐसे ही स्वतंत्रता सेनानियों में से एक हैं।
“वीरमंगई”- स्वतंत्रता सेनानी
वेलू नाचियार भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कही हद तक अज्ञात स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थी। हालाँकि, उन्हें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में ज्यादा प्रसिद्धि नहीं मिली, लेकिन, उनकी सफलता किसी भी तथाकथित स्वतंत्रता सेनानीयों से कम नहीं थी।
जब अंग्रेजों ने भारत में शासन स्थापित करने की कोशिश की, तो स्थानीय शासकों द्वारा उनका कड़ा विरोध किया गया। हालांकि, भारतीय शासक अंग्रेजों के अत्याधुनिक हथियारों, छल और चालाक राजनीति के बल पर ज्यादा तक टिक नहीं रह सके। वेलु नाचियार को ऐसी विपरीत परिस्थिति में पहली बार अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई जीतने का श्रेय दिया जाता है। उन्होंने १८५७ के विद्रोह से ठीक ७७ साल पहले यह उपलब्धि हासिल की थी।
उस समय, उनके शक्तिशाली व्यक्तित्व के कारण, वह दक्षिण भारत में “वीरमंगई” के रूप में जानी जाने लगी। हिंदी में वीरमंगई का अर्थ है, वीर महिला।

पहली आत्मघाती बमबारी योजना
इतिहास में पहले ज्ञात आत्मघाती बम विस्फोट की योजना वेलु नथियार ने अपने प्रमुख कमांडर कुइली के साथ मिलकर बनाई थी। वह राजा चेल्लामुथु विजयरघुनाथा सेतूपति और रानी सकंदिमुथल की एकमात्र संतान थीं, जो मद्रास (अबके चेन्नई) में रामनाद साम्राज्य के शासक थे।
राज परिवार ने उनकी परवरिश में कोई कसर बाकि नहीं छोड़ी। उस समय, एक लड़की या महिला के प्रति होनेवाला भेदभाव उन्हें देखने को नहीं मिला। इसके विपरीत, उनके माता-पिता ने उन्हें एक जिम्मेदार वारिस के रूप में पाला।
अपनी युद्ध कला की शिक्षा के साथ-साथ उन्होंने घुड़सवारी और तीरंदाजी का भी अध्ययन किया। वह वल्लरी (विलाफेक) और सिलंबम (लाठी युद्ध) में भी कुशल थी।
विदेशियों के साथ राजनैतिक संबंध आने के कारण उन्होंने फ्रेंच, उर्दू और अंग्रेजी के साथ कुछ अन्य भाषाओं को भी सीखा।

उसने शिवगंगाई के राजा मुथुवदुगनाथापेरिया उदैयाथेवर से शादी की। विवाह के बाद, उनको कन्या रत्न की प्राप्ती हुई, लेकिन उनकी यह खुशी लंबे समय तक नहीं रही। क्योंकि, अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध में उनके पति की मौत हो गयी। इस युद्ध में अंग्रेजों के साथ-साथ अरकोट नवाब के पुत्र भी शिवगंगाई के राजा मुथुवदुगनाथापेरिया के खिलाफ थे।
इसके बाद, वेलू नाचियार ने खुद युद्ध के लिए तैयारी की।
दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है।
इस विचार से, वह अपनी बेटी के साथ शिवगंगाई से निकलकर डिंडीगुल में आठ साल शरण ली।

आठ वर्षों में, वेलु नाचियार ने डिंडीगुलनरेश पलायकारार कोपाला नायक्कार के साथ मिलकर अरकोट नवाब के खिलाफ कई छोटी और बड़ी लड़ाइयाँ लड़ीं। निराश होकर, नवाब ने अंततः वेलु नाचियार और मारुथु बंधु को कुछ शर्तों पर शासन करने के लिए शिवगंगाई लौटने की अनुमति दी। उन शर्तों में उनकी एक शर्त यह थी कि, वे नवाब को कुछ किस्त (महसूल) चुकाए। इन स्थितियों को स्वीकार करते हुए, रानी वेलू नाचियार और मारुथु बंधु शिवगंगा में लौट आते हैं।
शिवगंगा की महारानी- वेलु नाचियार
समझौते के तहत, वेलु नाचियार को शिवगंगाई की रानी घोषित किया गया और शासन करने की अनुमति दी गई। उस समय, रानी वेलु नाचियार ने मारुथु बंधुओं में से छोटे भाई को मंत्री और बड़े भाई को सेनापति के रूप में नियुक्त किया गया।
इस प्रकार, वेलु नाचियार ने अपने पति के बाद, एक नियोजनबद्ध तरीके से शिवगंगाई पर शासन किया। वर्ष १७८० में, महारानी वेलु नचियार ने मारुथु बंधुओं को अच्छेसे शासन चलाने के लिए जरुरी अधिकार प्रदान किये। वेलु नाचियार का निधन २५ दिसंबर, १७९६ को हुआ।
मारुथु बंधु

पोन्नाथल (आनंदयेर) और मुखियाँ पलानिअप्पन सरवाई (उदयार सेरवाई) के बच्चे जिन्हें मारुथु भाई के नाम से जाना जाता था। मारुथु भाई मूल रूप से रामनाड (रामनाथपुरम) के कोंगुलु के रहने वाले थे।
पॉलीगर बहुत पुराने समय से तमिलनाडु में स्थानिक शासक के रूप में पहचाने जाते है। मारुथु बंधुओं को हमेशा पॉलीगर कबीले या उनकी जाति से जोड़ा जाता है। लेकिन, ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के अनुसार, उनका पॉलीगर कबीले से कोई लेना-देना नहीं था। प्रमाणों के अनुसार, उनकी जाति सेवाईकरन थी, और उनका अंतिम नाम मारुथु था। जिसके कारण दोनों भाइयों को मारुथु बंधुओं के रूप में पहचाना जाने लगा।
मारुथु बंधु ने कई साल मुथू वाडुगनाथा थेवर के शासन में काम किया था। उसके बाद उन्हें शिवगंगाई के सेनापति के रूप में नियुक्त किया गया। उस समय में बूमरैंग यह नए तरह का शस्र वास्तव में असाधारण था। उस तरह के चमत्कारी लकड़ी के हथियारों ने भारत में नए हथियारों के विकास को गति दी।
बूमरैंग को बाहर से नोकीला और आखिरी की तुलना में भारी बनाया जाता है। जिसे तमिल में वल्लरी (लाठी) भी कहा जाता है। माना जाता है कि, मारुथु भाई वल्लरी चलाने में कुशल थे। और तो और, यह भी माना जाता है कि, वल्लरी का उपयोग ब्रिटिश-पॉलीगर युद्ध में मारुथु बंधु द्वारा किया गया था।
मारुथु बंधुओं द्वारा किए गए करतबों में सबसे उल्लेखनीय किस्सों में, शिवगंगाई राज्य की घेराबंदी और अरकोट नवाब के इलाके की लूट थी। उन्होंने यह घेराबंदी १२,००० सैनिकों के साथ की थी। जिसके बाद नवाब अरकोट नवाब की नींद हराम हो गयी। इसलिए, नवाब ने तुरंत मद्रास कौंसिल से मदद की अपील की। २९ अप्रैल, १७८९ को ब्रिटिश सैनिकों ने कोल्लंगुडी पर हमला किया। २९ अप्रैल, १७८९ को ब्रिटिश सैनिकों ने कोल्लंगुडी पर हमला किया। उस समय भी, मारुथु बंधु ने इस युद्ध में अंग्रेजों को हराया था।
इतिहासकारों के अनुसार, मारुथु बंधुओं का वीरा पांडिया कट्टाबोमन के साथ संबंध था। कट्टाबोमन पांचालंकुरिची के शासक थे। मारथु बंधुओं की अक्सर पांचालंकुरिची के किले में कट्टाबोमन के साथ राजनीतिक चर्चा होती थी।
वीरा कट्टबोमन को अंग्रेजों ने १७ अक्टूबर १७९९ के दिन फाँसी दे दी। उसके बाद, कट्टबोमन के भाई ओमादुरई (मूक) को चिन्ना मारुथु द्वारा आश्रय दिया गया। मारुथु बंधु द्वारा जम्बू द्वीप के लोगों के सामने एक घोषणा जारी की और सभी जाति, धर्म और पंथ के लोगों को अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा किया। अंत में, अंग्रेजों के खिलाफ इस स्वतंत्रता संग्राम के बलिदान में मारुथु पंडियार को अपना जीवन बलिदान करना पड़ा।
२४ अक्टूबर, १८०१ में, मारुथु पांडियार और वेल्लाई पांडियार को शिवगंगाई, तिरुप्पाथूर के किले में मौत की सजा दी गई।
वैशिष्ट्यीकृत छायाचित्र का श्रेय: Shakthi Thevar, स्त्रोत: Wikimedia