प्रस्तावना
जानकारी
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तथ्य
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आरती का समय |
सवेरे: ६:३० पूर्वाह्न, शाम: ७:३० मध्याह्न के बाद |
मंदिर में विशेष परंपराएं |
हर गुरुवार और एकादशी को सुबह 9 से 11 बजे तक भजन-कीर्तन का आयोजन किया जाता है। रामनवमी और कृष्ण अष्टमी के दिन विशेष कार्यक्रम और महाप्रसाद का आयोजन किया जाता है। आषाढ़ी एकादशी और कार्तिकी एकादशी पर विशेष कीर्तन और अन्य कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। |
यह मंदिर पुणे के नवी नाना पेठ में स्थित है। इस मंदिर की स्थापना गुजराती सेठ कन्हैया जी ने ईसवी १८३० में की थी। हिंदू पुराणों के अनुसार विठ्ठल भगवान विष्णु के अवतार हैं। इस मंदिर का नाम निवडुंग्या विठ्ठल मंदिर पड़ने के पीछे जाहिर तौर पर एक कहानी है।
स्थानीय लोगों का मानना है कि, एक विठ्ठल भक्त को इस स्थान पर नागकनी के पेड़ के नीचे काले पत्थर में नक़्क़ाशीदार विठोबा की मूर्ति मिली थी। उसके बाद यहां एक छोटा सा मंदिर स्थापित किया गया। फिर ईसवी १९२९ में, पुरूषोत्तम शेठ नामक एक गुजराती व्यापारी ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार और उसमे मूर्ति स्थापित की। आज यह मंदिर एक महत्वपूर्ण सार्वजनिक स्थान है और सभी के लिए खुला है।
नाम के पीछे का इतिहास
पेठे जिसे प्राचीन काल में निहाल पेठ कहा जाता था। ईसवी १७६१ में नाना फड़नवीस के सम्मान में इसका नाम “नाना पेठ” रखा गया। माधवराव पेशवा के शासनकाल के बाद, पेशवा काल में नाना फडणवीस पुणे के सबसे वरिष्ठ मंत्री थे। नाना फड़नवीस ने अपने जीवनकाल में मराठा साम्राज्य को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की पहुंच से दूर रखा।
मंदिर की विशेषता
पुणे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन (पी. एम. सी.) यानि पुणे नगर निगम के अनुसार यह मंदिर पुणे के स्मारकों में ग्रेड III श्रेणी की संरचना है। मंदिर एक ऊंची और भव्य पत्थर-ईंट से बनी संरचना है, जिसके गर्भगृह में विठोबा की स्वयंभू मूर्ति है। गर्भगृह के सामने सभा मंडप की छत और स्तंभों पर सुंदर लकड़ी की नक्काशी है।
इस निर्माण के रचना और बनावट को ध्वनिक रूप से बेहतर माना जाता है। क्योंकि गर्भगृह के चारों ओर एक वृत्ताकार पथ बना हुआ है। जिससे ध्वनि की तीव्रता बाहर प्रसारित नहीं हो पाती। जिससे सभा मंडप में स्पीकर की कम आवाज पर भी ध्वनि आखिरी छोर तक पहुंच जाती है।
यहां की संगमरमर की गरुड़ मूर्तियां योगी चांगदेव और संत ज्ञानेश्वर महाराज की कथाओं पर आधारित हैं। स्वर्गीय श्री सोनोपंत दांडेकर की चांदी की मूर्ति भी यहां देखी जा सकती है। इन मूर्तियों ने मंदिर की सुंदरता को और भी बढ़ा दिया है। सुंदर वास्तुशिल्प की संरचना और दुर्लभ मूर्तियाँ इस मंदिर को विशेष बनाती हैं।
सैकड़ों वर्षों पुरानी वारकरी संप्रदाय की दिंडी परंपरा
सोनोपंत दांडेकरजी का नाम शंकर वामन दांडेकर था। वह महाराष्ट्र के एक दार्शनिक और शिक्षाविद् थे। उन्होंने वारकरी संप्रदाय का अनुसरण किया और भक्ति आंदोलन में व्याख्याता बनकर इस संप्रदाय का प्रसार किया।
संत ज्ञानेश्वर, संत तुकाराम ने भक्ति आंदोलन पर जोर दिया। जिससे धीरे-धीरे वारकरी संप्रदाय का विकास हुआ। परंपरा के अनुसार, आज भी ये वारकरी हर साल महाराष्ट्र के कई स्थानों से पैदल चलकर पंढरपुर आते हैं। लेकिन इनमें आलंदी, नासिक, लोहगड से आने वाले दिंडियां प्रमुख और बड़े हैं।
इनमें आषाढ़ माह (जून-जुलाई) के ग्यारहवें दिन पड़ने वाली शुक्ल पक्ष की एकादशी को यात्रा करने वाले दिंडियों की संख्या अधिक होती है। इन असंख्य छोटी-छोटी दिंडियों में आलंदी से निकलने वाली दिंडी में बड़ी संख्या में वारकरी होते हैं।
युवा, बूढ़े और कुछ हद तक बच्चे भी इन डिंडियों में शामिल होते हैं। लोग जाति, सामाजिक-आर्थिक स्थिति की परवाह किए बिना सद्भाव से यात्रा करते हैं। यात्रा के दौरान सभी लोग सम्मान के तौर पर महिलाओं को माउली (माँ) कहकर बुलाते हैं। सभी वारकरी रुकते हैं, और “राम कृष्ण हरि” जाप का उच्चारण और प्रभु का नामस्मरण करते हुए पंढरपुर पहुँचते हैं।
हर साल संत तुकाराम महाराज की पालकी पंढरपुर आती है। पंढरपुर आते और वापस जाते दोनों समय इस मंदिर में रुकती है। इस प्रवास के दौरान, सभी भक्त भक्ति गीत गाते हुए और भगवान के नाम का जाप करते हुए गोलाकार मैदान में घूमते हैं। नृत्य करते हुए किये जाने वाले इस नामस्मरण को चक्री भजन भी कहा जाता है।
पुणे शहर के इस मंदिर में ही नहीं, बल्कि ठहरने के हर स्थान पर वहां के स्थानीय लोग कई तरह से सेवाएं देते हैं। कोई भोजन दान करता है, कोई तम्बू और आवास की देखभाल करता है, तो कोई चाय और नाश्ते का प्रबंध करता है।
स्थानीय लोग और अन्य स्वयंसेवक वारी के रास्ते की समस्याओं के बारे में सभी वारकरियों को बताते हैं। कुछ कलाकार भक्तिपूर्ण माहौल बनाने के लिए अपनी कला को वारी की परंपराओं के साथ जोड़ते हैं।