प्रस्तावना
आज हम गुजरात के मराठा साम्राज्य के बारे में जानने जा रहे हैं। जो भारत का एक समृद्ध राज्य है और अपने औद्योगिक और पर्यटन क्षेत्र के लिए विश्व प्रसिद्ध है। गुजरात में कपड़े का कारोबार हो या हीरे का कारोबार, यह राज्य हर कारोबार में भारत में अग्रणी है। भारत के पश्चिमी तट से सटा यह राज्य हमेशा से व्यापारियों के लिए आकर्षण का केंद्र रहा है।
एक समृद्ध राज्य होने के कारन हमेशा से गुजरात डच, फ्रेंच, पुर्तगाली, मुगल, और अंग्रेजों के लिए एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र था। १२९० से १७०५ तक लगभग चारसौ वर्षों तक गुजरात मुस्लिम शासकों के नियंत्रण में रहा।
ईसवी १७०५ से मराठा सेनापति खंडेराव दाभाड़े ने महारानी तारारानी के आदेश पर गुजरात अभियान शुरू किया। खंडेराव दाभाड़े ने गुजरात पर मुगलों का प्रभुत्व कम कर दिया।
धीरे-धीरे दाभाड़े ने गायकवाड़ और कांथे कदम के साथ मिलकर गुजरात पर कब्ज़ा कर लिया। विकिपीडिया के अनुसार यह अभियान ईसवी १७१६ तक चला।
छत्रपति शिवराय के शासनकाल में मराठों ने गुजरात पर छापा मारना शुरू करके चौथ वसूलने का दावा किया। हालाँकि, ईसवी १७१७ तक ऐसा प्रतीत होता है कि, इसे आधिकारिक तौर पर व्यावहारिक वार्ता में शामिल नहीं किया गया था।
ईसवी १७१७ में चौथ लगान के संबंध में हुसैन अली से बातचीत हुई। इसमें शाहू महाराज ने कुछ मालवा प्रांत के साथ-साथ गुजरात के दावों को मान्यता देने का अनुरोध किया। फिर ईसवी १७१९ में जब बालाजी विश्वनाथ दिल्ली गए, तब उन्होंने एक बार फिर दोनों प्रांतों की चौथ के लिए बातचीत की।
लेकिन इन दावों को स्वीकार नहीं किया गया, जिससे गुजरात पर मराठों के हमले बढ़ गए। फिर ईसवी १७२४ में निज़ाम-उल-मुल्क के विद्रोह में, उसके साथ सम्राट ने भी मराठों का समर्थन मांगा।
उस समय मराठों ने मांग की कि गुजरात और कुछ अन्य प्रांतों पर चौथ लगान के दावों को स्वीकार किया जाए। लेकिन निज़ाम और बादशाह दोनों ने प्रांतों के सामरिक महत्व और आर्थिक समृद्धि को देखते हुए ऐसा कोई सीधा वादा नहीं किया।
फिर पेशवा बाजीराव ने ईसवी १७२८ में निज़ाम-उल-मुल्क को हराया। फिर उन्हें गुजरात में मराठा अभियान के साथ-साथ उनके क्षेत्र से गुजरने वाले सैनिकों को भी नज़रअंदाज़ करने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस प्रकार, ईसवी १७२८ तक मुगलों को गुजरात में मराठों की पूरी शक्ति का एहसास ही नहीं हुआ।
गुजरात और मालवा के मराठा साम्राज्य को तीन चरणों में जीता गया। पहले चरण में, मराठों ने चौथ और सरदेशमुखी का अधिकार स्थापित किया, जो प्रांतों में राजस्व और सेना लगाने का अधिकार था। इस अधिकार की मदद से मराठों ने गुजरात और मालवा में अपना प्रभाव बढ़ाया।
दूसरे चरण में मराठों ने प्रांतों को मराठा सरदारों के प्रभाव क्षेत्रों में विभाजित कर दिया। इससे प्रांतों में मराठों का प्रभुत्व मजबूत हो गया।
तीसरे चरण में मराठों ने गुजरात और मालवा पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर लिया। उन्होंने इन प्रांतों को अपना प्रांत घोषित कर दिया।
मई १७२६ में, गुजरात के शाही गवर्नर सरबुलंद खान ने सुभा पर चौथ और सरदेशमुखी के मराठा दावे को मान्यता दी। इसके बाद, यदि यह साबित हो कि मराठों को हथियारों के बल पर नहीं हराया जा सकता तो गुजरात में इसी तरह की प्रणाली पर कोई नैतिक आपत्ति उठाने का कारण नहीं होगा।
चौथ और सरदेशमुखी देने के बावजूद मराठा सरदारों की लूटेरी गतिविधियाँ समाप्त नहीं हुईं। चौथ के बंटवारे को लेकर दाभाड़े के प्रमुख लेफ्टिनेंट पिलाजी गायकवाड़ और कंथा कदम के बीच विवाद था। इसके चलते उनके बीच लगातार लड़ाइयाँ होती थी।
बाजीराव ने शाहू द्वारा नियुक्त गुजरात के चौथ प्रतिनिधि के दावे का खंडन किया। दूसरी ओर, बाजीराव शुरुवात में दख्खन और बाद में मालवा में व्यस्त थे। इस बीच मराठा सरदारों ने धीरे-धीरे दक्षिणी गुजरात के २८ जिलों पर कब्ज़ा कर लिया। १७३० में बाजीराव गुजरात की राजनीति में लौट आये।
बाजीराव ने गुजरात पर चौथ और सरदेशमुखी अधिकार प्राप्त करने के लिए अभय सिंह के साथ एक समझौता किया। इस समझौते के अनुसार, अभय सिंह ने बाजीराव को १३ लाख रुपये इस शर्त पर दिए कि, बाजीराव गायकवाड़ और कांथा कदम को गुजरात से निकाल देंगे।
मराठोंने ईसवी १७३२ तक न केवल चौथ और सरदेशमुखी अधिकारों को राज्यपालों द्वारा मान्य कराया, बल्कि उन्होंने कई जिलों पर नियंत्रण भी हासिल कर लिया था, ताकि वे अपने दावों को अधिक प्रभावी ढंग से लागू कर सकें।
ईसवी १७३१ में दाभोई की लड़ाई में बाजीराव ने त्र्यंबकराव दाभाड़े को हराया। शाहू महाराज द्वारा किये गए न्याय के बाद, पुरस्कार में दाभाड़े को गुजरात का अधिकांश भाग प्राप्त हुआ। बाद में जब गुजरात गायकवाड़ राजवंश के अधीन गया, तब उन्होंने दाभाड़े को गुजरात से निष्कासित कर दिया।
अभय सिंह आदि जिन्होंने मराठों को गुजरात से बलपूर्वक हटाने के लिए अपनी जान जोखिम में डाल दी। क्योकि उसने ईसवी १७३३ में पिलाजीराव गायकवाड़ को एक सम्मेलन में आमंत्रित किया और उनकी हत्या कर दी। लेकिन इस हत्या से अभय सिंह को कोई खास फायदा नहीं हुआ। क्योंकि उमाबाई के नेतृत्व में मराठा एक साथ आये और दामाजीराव ने गुजरात में मराठों का प्रभुत्व बढ़ा दिया।
अभय सिंह को अब एहसास हुआ कि स्थिति हाथ से बाहर हो गयी है, इसलिए वह मारवाड़ की ओर भाग गया। इस समय तक तीसरे चरण यानि क्षेत्रीय विलय की नींव पड़ चुकी थी। अब इस पद को अधिकृत करने के लिए केवल सम्राट से उचित स्वीकृति आवश्यक थी।
अ. क्र.
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गुजरात के मराठा प्रांत के वास्तविक शासक
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शासन कार्यकाल
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१.
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खंडेराव दाभाड़े
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१७०५-१७२९
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२.
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त्र्यंबकराव दाभाड़े
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१७२९-१७३१
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३.
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नाममात्र – यशवंतराव दाभाड़े (नाबालिक) (सत्ता में – उमाबाई दाभाड़े), प्रतिनिधि* – पिलाजीराव गायकवाड़ (मुतलिक)
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१७३१-१७३२
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४.
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नाममात्र – यशवंतराव दाभाड़े (नाबालिक) (सत्ता में – उमाबाई दाभाड़े), प्रतिनिधि* – दामाजीराव गायकवाड़
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१७३२-१७६८
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*सेनापति के अधिकार के साथ मुतालिक: डिप्टी
दाभाड़े परिवार
ईसवी १७२९ में खंडेराव की मृत्यु के बाद त्र्यंबकराव दाभाड़े ने गुजरात का प्रशासन संभाला। अपने पिता के समान साहसी और पराक्रमी होने के कारण उसने शीघ्र ही राज्य की बागडोर संभाली। वह मराठा सेनापति और गुजरात के शासक होते हुए भी मराठा साम्राज्य का हिस्सा थे।
इसलिए वे मराठों की राजधानी सतारा के छत्रपति शाहू महाराज के आदेशों का पालन करने के लिए बाध्य थे। त्र्यंबकराव के शासनकाल में बालाजी बाजीराव भट्ट प्रमुख पेशवा थे। सेनापति होने के नाते बाजीराव को हमेशा लगता था कि, गुजरात का शासन उनके अधीन हो। इसलिए त्र्यंबकराव पर इस लिए सक्ति की। लेकिन त्र्यंबकराव ने साफ़ इनकार कर दिया और पेशवाओं के ख़िलाफ़ अभियान शुरू कर दिया।
पेशवा के इस निर्णय विरुद्ध त्रिंबकराव ने निज़ाम, गायकवाड़, कांथे कदम के साथ मिलकर विद्रोह कर दिया। जिसके कारन अप्रैल १, ईसवी १७३१ में पेशवा बाजीराव प्रथम ने दाभोई की लड़ाई में इस विद्रोह को कुचल दिया। लेकिन दुर्भाग्यवश, इस युद्ध में त्र्यंबकराव के मामा भानुसिंह ठोके द्वारा चलाई गई गोली से त्र्यंबकराव की मृत्यु हो गई।
पेशवा ने कई बार अक्सर शाहू महाराज को बिना सूचित किए अभियान चलाए। जिस तरह शाहू महाराज को राजा छत्रसाल को दी गई मदद के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, उसी तरह शाहू महाराज को दाभोई की लड़ाई के बारे में भी कोई जानकारी नहीं थी।
गायकवाड परिवार
खंडेराव की सेना के एक महत्वपूर्ण सैन्य अधिकारी पिलाजीराव गायकवाड़ ने गुजरात का कार्यभार संभाला। खंडेराव दाभाड़े द्वारा शुरू किया यह अभियान उनके बाद पिलाजीराव गायकवाड़ ने गुजरात में गायकवाड़ राजवंश की शुरुआत करके आगे बढ़ाया।
खंडेराव की तरह पिलाजीराव भी एक कुशल रणनीतिकार, साहसी और पराक्रमी थे। ईसवी १७२० की शुरुवात में उन्होंने सोनगढ़ का निर्माण कराया और इसी किले से प्रशासन शुरू किया। उन्होंने ईसवी १७२१ बड़ौदा और बाद में सूरत के साथ-साथ अन्य हिस्सों पर कब्जा कर लिया और गुजरात के पहले मराठा शासक बने।
गायकवाड़ परिवार ने सारा प्रशासन बड़ौदा शहर से शुरू किया। इस परिवार में १२ दिसंबर १८५६ को राजगद्दी पर बैठे खंडेराव गायकवाड़ द्वितीय की २० नवंबर १८७० को असामयिक मृत्यु हो गई। चूंकि उनकी कोई संतान नहीं थी, खंडेराव की पत्नी ने एक बेटे को गोद लिया। उन्होंने इस बालक का नाम सयाजीराव रखा।
उनके बाद उनके भाई मल्हारराव गायकवाड़ को बड़ौदा की गद्दी पर बैठाया गया। लेकिन, उनके अत्यंत क्रूर, अत्याचारी, मनमानी प्रशासन और गैर-जिम्मेदारी आदि के कारण ईसवी १८७५ अंग्रेजों ने उन्हें गद्दी से हटा दिया।
सयाजीराव का कार्यकाल
मल्हारराव गायकवाड़ के गद्दी से निष्कासित होने के बाद, जमनाबाई के दत्तक पुत्र सयाजीराव बड़ौदा के शासक बने। उन्होंने ६३ वर्षों तक शासन किया और अपने शासनकाल के दौरान बड़ौदा को पूरी तरह से बदल दिया। वह अपने शासनकाल के दौरान भारत के सबसे अमीर शासकों में से एक थे। उन्हें गुजरात में बड़ौदा के इतिहास में सबसे महान और सबसे लोकप्रिय शासक माना जाता है।
निष्कर्ष
गुजरात में मराठा साम्राज्य एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक काल को दर्शाता है। गुजरात के विकास में दो राजवंशों ने यानि दाभाड़े और गायकवाड़ घरानों ने महत्वपूर्ण योगदान दिया।
इस लेख में हमने गुजरात में बड़ौदा के दाभाड़े और गायकवाड़ इन दो परिवारों के बारे में जाना है। आशा है आपको यह लेख पसंद आया होगा, इस लेख को अपने दोस्तों और परिवार के साथ जरूर साझा करें। ताकि उन्हें भी मराठाओं के इन शाही परिवारों के बारे में भी जानकारी मिल सके।
उद्धरण
छवि का श्रेय
१७५८ का मराठा साम्राज्य, श्रेय: Fidolex
तापी नदी के उकाई बांध पर बसा गायकवाड़ी किला, श्रेय: Ashishgavit647