झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई- एक अग्रणी महिला स्वतंत्रता सेनानी

by सितम्बर 10, 2019

रानी लक्ष्मीबाई “झांसी की रानी” के नाम से प्रसिद्ध हैं। उन्हें भारतीय इतिहास में एक कुशल शासक और निष्ठावंत देशभक्त के रूप में याद किया जाता है। उन्हें भारतीय इतिहास में मणिकर्णिका के नाम से भी जाना जाता है।

संक्षिप्त परिचय

घटकजानकारी
पहचानमाणिकर्णिका तांबे जो आगे झाँसी की रानी बनी और आगे जाके एक भारतीय धाडसी क्रन्तिकारी बनी।

शादी के बाद का नाम: रानी लक्ष्मी बाई नेवालकर
जन्म१९ नवंबर १८३५ को वाराणसी में
माता-पितामाता: भगीरथीबाई, पिता: मोरोपंत तांबे
विवाह१८४२ में, झाँसी रियासत के महाराजा, गंगाधरराव नेवालकर के साथ
मृत्यु१८ जून १८५८ को ग्वालियर, मध्य प्रदेश में

रानी लक्ष्मीबाई का परिचय

Rani Laxmi Bai Holding Sword Painting
Image Credits:

लक्ष्मीबाई ने चूल्हे और बच्चे तक सीमित महिलाओं की पुरुष-प्रधान संस्कृति को बदल के रख दिया। आज उनकी बहादुरी के कारण लक्ष्मीबाई का नाम महिला सशक्तीकरण के अभियान में जुड़ने लगा।

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की कहानी

कुछ युद्ध लड़े जाते जितने लिए, तो कुछ लड़ाइयाँ लड़ी जाती थी आत्मसम्मान और देश के गौरव को बचाने के लिए। माणिकर्णिका की कहानी में भी एक जोश था मातृभूमि के सम्मान के लिए मर मिटने का, एक जिद थी अपने मिट्टी को अंग्रेजों के चंगुल से बचाने की।

उनके जीवन में संघर्ष था, और देश में क्रांति लाने के लिए कर्तव्यपरायणता और आत्मविश्वास था जिससे उनका जीवन सच्चे देशभक्तों के लिए आदर्श था।

सन १८१८ के बाद का समय था, जब ब्रिटिश राज भारतीय क्षेत्र में अच्छी तरह से स्थापित हो गया था। ब्रिटिश शासन से लगभग ५० साल पहले तक अपराजित रहे मराठा भी ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन थे।

पेशवा का मुख्य ठिकाना, जिसे “शनिवार वाडा” के नाम से जाना जाता था। मराठा साम्राज्य का वह गढ़ भी ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन था।

पेशवा ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। इसलिए, पेशवा बाजीराव द्वितीय को शनिवार वाडा छोड़ने के बाद वाराणसी जाना पड़ा। चिमाजी अप्पा पेशवा बाजीराव द्वितीय के छोटे भाई थे।

जन्म

चिमाजी अप्पा के घनिष्ठ मित्र मोरोपंत तांबे पेशवा के राजनीतिक सलाहकार और प्रशासनिक सहायक भी थे। वाराणसी में रहते समय १९ नवंबर १८३५ के दिन, मोरोपंत की पत्नी भागीरथी बाई ने एक बेटी को जन्म दिया। मोरोपंत ने अपनी बेटी का नाम “माणिकर्णिका” रखा। माणिकर्णिका का मतलब होता है “अनमोल रत्न से सुशोभित कर्णभुषल”। मणिकर्णिका को आमतौर पर “मनु” इस उपनाम से बुलाते थे।

वाराणसी में अचानक से चिमाजी अप्पा की मृत्यु हो जाती है। उसके बाद पेशवा वाराणसी छोड़ उत्तर प्रदेश में “बिठूर” के किले में जाते हैं। इसलिए, मोरोपंत भी पेशवा के काम में सहायता करने के लिए परिवार समेत बिठूर गए। रानी ले दादाजी बलवंत राव बाजीराव पेशवा द्वितीय के सेनापति थे। जिसके कारन उनका पारिवारिक संबंध पेशवा के साथ पुराना था।

रानी लक्ष्मीबाई का बचपन

माणिकर्णिका का लगभग पूरा बचपन पेशवा महल में गुजरता। इसीलिए, तात्या टोपे और पेशवा के (गोद लिए गए) बेटे नाना साहेब माणिकर्णिका के बचपन के दोस्त थे।

बचपन से ही माणिकर्णिका में एक साहसी रवैया था। इसलिए, पेशवा उसे “छबीली” कहते थे। रानी लक्ष्मीबाई के पिता मोरोपंत बचपन से छत्रपति शिवाजी महाराज जैसे देशभक्तों के बारे में कहानियाँ बताते। इसीलिए, उनमें देशभक्ति और स्वतंत्रता की एक उमंग जगी, और आगे जाके १८५७ के विद्रोह में काम आयी।

उन दिनों में भारत के लोग लड़कियों को नहीं पढ़ाते थे। लेकिन मनु को पढ़ने और लिखने का शौक था। अधिक ध्यान देने योग्य बात यह थी, कि वह तलवारबाजी, मल्लखंबा और हॉर्स चेसल जैसे खेलों में भी आगे थीं।

माणिकर्णिका का विवाह

गंगाधररोजी के कार्यकाल से लेकर उनके शादी के बारे में अलग-अलग स्त्रोतों के मुताबिक अलग जानकारी दी गयी है।

हिंदी वेबदुनिया के मुताबिक गंगाधरराव विधुर से थे और उनको सन १८३८ में झाँसी का राजा घोषित किया गया। गंगाधररोजी का माणिकर्णिका से विवाह सन १८५० में हुआ।

तो विकिपीडिआ में उनका कार्यकाल सन १८४३ में शुरू हुआ था। तो उनका विवाह राजा बनाने से पहले सन १८४२ में हुआ था।

मई १८४२ में, माणिकर्णिका का विवाह झाँसी के महाराजा गंगाधरराव नेवलकर के साथ हुआ। शादी के बाद झाँसी प्रांत की परंपरा के अनुसार माणिकर्णिका को “लक्ष्मीबाई” यह नया नाम दिया गया। शादी के बाद पहली पत्नी होने के कारन उन्हें पटरानी बनाया गया।

शादी से पहले ही नहीं बल्कि शादी के बाद भी लक्ष्मीबाई को घुड़सवारी करना पसंत था। पैलेस के अंदर में अस्तबल था जहाँ पर अच्छी नस्ल के घोड़े थे। उन घोड़ों में पावन, सारंगी और बादल यह घोड़े रानी लक्ष्मीबाई को विशेष रूप से प्रिय थे।

वर्ष १८५१ में गंगाधरराव और लक्ष्मीबाई ने एक बच्चे को जन्म दिया। उन्होंने अपने बेटे का नाम “दामोदरराव” रखा। लेकिन यह खुशी लंबे समय तक नहीं रही, क्योंकि बच्चे की आकस्मित मौत हो गई।

गंगाधरराव द्वारा दूसरा बेटा गोद

अपने बेटे की मृत्यु के बाद, गंगाधरराव ने चचेरे भाई के बेटे को गोद लिया, उसका नाम था “आनंदराव”। अपने मृत पुत्र की याद में महाराजा गंगाधरराव ने आनंदराव को “दामोदरराव” यह नाम दिया था।

नवंबर १८५३ में, गंगाधरराव की अप्रत्याशित रूप से मृत्यु हो जाती हैं। शायद अपने बेटे के मौत के कारन उन्हें गहरा धक्का पहुंचा होगा। इस क्षण तक, रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करने के विचार से सहमत नहीं थीं।

अंत में, दामोदरराव को गंगाधरराव का दत्तक पुत्र होने का कारण देते हुए, ब्रिटिश गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौज़ी ने झांसी के सिंहासन पर दामोदरराव के दावे को खारिज कर दिया। डलहौज़ी ने अचानक लागू की गई नीति को  “समाप्ति का सिद्धांत” कहा गया। इस निति अंतर्गत ७ मार्च १८५४ से झाँसी पर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का अधिकार हुआ।

जब रानी लक्ष्मीबाई ने इस बारे में सूचना दी, तो वह गुस्से से बोली,

“मेरी झाँसी नहीं दूँगी!”

अंग्रेजों की डोक्टोरिन ऑफ लापसी की नीति ने रानी लक्ष्मी बाई को विद्रोही बना दिया। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने पेंशन के तौर पर ६०,००० रूपये देने का स्वीकार किया। लेकिन इस नीति अंतर्गत महारानी को राजमहल छोडके जाना पड़ा। लेकिन महारानी ने पेंशन लेने से इंकार कर दिया और राजमहल में ही निवास करने लगी।

ब्रिटिश सेना के साथ लड़ाइयाँ

महारानी ने झांसी को बचाने तथा अंग्रेजों की इस मनमानी के खिलाफ स्वतंत्रता विद्रोहियों का साथ में लेना शुरू कर दिया। रानी लक्ष्मीबाई ब्रिटिश सेना के खिलाफ कई योजनाए बनायीं और अपने जीवनकाल में उन्होंने तीन युद्ध लड़े।

अंतिम मुगल सम्राट की बेगम जीनत महल, नाना साहब के वकील अजीमुल्ला शाहगढ़ के राजा, तात्या टोपे, नवाब वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल, स्वयं मुगल सम्राट बहादुर शाह, वानपुर के राजा मर्दनसिंह आदि सभी हिंदुस्तान के महत्वपूर्ण व्यक्तियों ने रानी लक्ष्मीबाई की मदत करने का प्रयत्न किया।

लक्ष्मीबाईद्वारा लड़ी झाँसी के लड़ाई से पहले ही मीरट, कानपूर में बड़े विद्रोह हुए। कानपूर में ४ मई १८५७ को बड़ा विद्रोह हो गया। मीरट में विकिपीडिआ के मुताबिक १० मई १८५७ को, तो वेबदुनिआ के अनुसार ७ मई १८५७ को विद्रोह शुरू हुआ।

अंग्रेजों ने शाहगढ़, सागर, गढ़कोटा, वानपुर, तालबेहट, मडखेड़ा, और मदनपुर जैसे कई स्थानों पर का कब्जे में लेकर विद्रोहियों को बद से बदतर मौत दी। इन छोटे विद्रोह के बाद ब्रिटिश सेना ने अपना खेमा कैमासन पहाड़ी के नजदीक लगाया।

पहली लड़ाई

झाँसी की रानी ने झाँसी की रक्षा के लिए ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ लड़ाई लड़ी। झाँसी के छोटी सेना के साथ रानी लक्ष्मीबाई बड़े बहादुरी के साथ लड़ी।

लेकिन सेना छोटी होने से रानी को सरदारों द्वारा कलपि जाके इस स्वतंत्रता सग्राम को शुरू रखने को कहा। तब अपने बेटे को पीट पर कसकर बांधकर बादल नाम के घोड़े पर सवार लक्ष्मीबाई ने किले की एक दीवार से छलांग लगाई। कुछ ही समय में किले से बाहर दुश्मनों की पहुंच से दूर चली गईं।

यह लड़ाई २४ मार्च, १८५८ को लड़ी गई, लेकिन दुर्भाग्य से वह अपने लक्ष्य में विफल रही। इसलिए, बाद में वो कलपि जाकर तात्या टोपे और नाना साहेब की सेना में शामिल हुई।

दूसरी लड़ाई

रानी लक्ष्मीबाई २२ मई १८५८ को तात्या टोपे और नाना साहेब के साथ अंग्रेजों से लड़ीं। लेकिन, वे ब्रिटिश सेना से कलपि का बचाव करने में विफल रहीं और उन्हें ग्वालियर जाना पड़ा।

तीसरी लड़ाई

यह लड़ाई १६ जून १८५८ को फूल बाग के पास ग्वालियर में लड़ी गई थी। रानी लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर की लड़ाई का नेतृत्व किया और यह उनकी अंतिम लड़ाई बन गई। लड़ाई के दौरान वह गंभीर रूप से घायल हो गयी। ब्रिटिश रिकॉर्ड्स के अनुसार, गोली लगने से उसकी मौत हो गई। लेकिन सभी लोग इस बात को नहीं मानते, इस वजह से उनके मौत के कई कहानियाँ बन गयी।

भलेही बदकिस्मती से लक्ष्मीबाई की सेना को तीनों लड़ाइयों में हार का सामना करना पड़ा। लेकिन उनकी वीरता और साहस ने लाखों हिन्दुस्तानियों में आजादी की लहर दौड़ पड़ी।

इन तीनो लड़ाइयों को सर ह्यूग रोज ने पूरी तरह से दबाने का प्रयास किया। जिसमे वे सफल भी हुए, वो विनायक दामोदर सावरकर थे जिन्होंने पहली बार इस जंग को सिर्फ विद्रोह ना कहके उसे आजादी की पहली लड़ाई माना। जिसे उन्होंने उनकी किताब “१८५७ का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम” में लिखा है।

मृत्यू

कुछ सालों बाद, 17 जून 1858 को, रानी लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर के पूर्व क्षेत्र की कमान संभालने का कार्य संपन्न किया। उनकी सेना में महिलाओं के साथ-साथ पुरुष भी शामिल थे। इसलिए रानी लक्ष्मीबाई को अंग्रेजों ने पहचानने से वंचित रखने के लिए वे पुरुषों के वेश में ही युद्ध करती रहीं। युद्ध के दौरान महारानी लक्ष्मीबाई घायल हो गई थी और तलवार के चोट से उनकी सर पर चोट लगने के कारण उन्हें अपने घोड़े से उतरना पड़ा। अंग्रेज सैनिकों ने रानी लक्ष्मीबाई को पहचाना नहीं क्योंकि वे पुरुष के वेश में थीं, और उन्हें वहीं छोड़ दिया जबकि उनके सैनिक उन्हें गंगादास मठ ले गए, जहां उन्हें गंगाजल दिया गया।

रानी लक्ष्मीबाई युद्ध में काफी घायल हो चुकी थी और उसके बाद उन्होंने अपनी अंतिम इच्छा जाहिर की, जिसमें उन्होंने कहा कि किसी भी अंग्रेज अफसर को उनकी मृत देह को छूने की आज्ञा न दें। इसके परिणामस्वरूप, रानी लक्ष्मीबाई को ग्वालियर के फूलबाग क्षेत्र में सराय के पास उनकी वीरगति प्राप्त हुई। इस प्रकार, रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी जान की परवाह किए बिना भारत को स्वतंत्र कराने के लिए अंग्रेजों के खिलाफ अदम्यता से संघर्ष किया।

विशेष छायाचित्र का श्रेय: Wikimedia

Ebook Cover - The History of the American Christmas And Its Traditions

Join& Get your Christmas Gift

As ebook will be delivered direct to email address you provided, so put your most active email.

You have Successfully Subscribed to HN list!

The History of the American Christmas And Its Traditions (1080by1394)

Subscribe to Get Christmas Special Gift!

Ebook will be sent to your email inbox, so give your most active email.

Congrats!! Now you are part of HN family!

Pin It on Pinterest