रानी लक्ष्मीबाई “झांसी की रानी” के नाम से प्रसिद्ध हैं। उन्हें भारतीय इतिहास में एक कुशल शासक और निष्ठावंत देशभक्त के रूप में याद किया जाता है। उन्हें भारतीय इतिहास में मणिकर्णिका के नाम से भी जाना जाता है।
संक्षिप्त परिचय
घटक | जानकारी |
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पहचान | माणिकर्णिका तांबे जो आगे झाँसी की रानी बनी और आगे जाके एक भारतीय धाडसी क्रन्तिकारी बनी। शादी के बाद का नाम: रानी लक्ष्मी बाई नेवालकर |
जन्म | १९ नवंबर १८३५ को वाराणसी में |
माता-पिता | माता: भगीरथीबाई, पिता: मोरोपंत तांबे |
विवाह | १८४२ में, झाँसी रियासत के महाराजा, गंगाधरराव नेवालकर के साथ |
मृत्यु | १८ जून १८५८ को ग्वालियर, मध्य प्रदेश में |
रानी लक्ष्मीबाई का परिचय
लक्ष्मीबाई ने चूल्हे और बच्चे तक सीमित महिलाओं की पुरुष-प्रधान संस्कृति को बदल के रख दिया। आज उनकी बहादुरी के कारण लक्ष्मीबाई का नाम महिला सशक्तीकरण के अभियान में जुड़ने लगा।
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की कहानी
यह एक समय था जब ब्रिटिश राज भारतीय क्षेत्र में अच्छी तरह से स्थापित हो गया था। ब्रिटिश शासन से लगभग ५० साल पहले तक अपराजित रहे मराठा भी ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन थे।
पेशवा का मुख्य ठिकाना, जिसे “शनिवार वाडा” के नाम से जाना जाता था। मराठा साम्राज्य का वह गढ़ भी ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन में था।
पेशवा ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के सामने आत्मसमर्पण कर दिया। इसलिए, पेशवा बाजीराव द्वितीय को शनिवार वाडा छोड़ने के बाद वाराणसी जाना पड़ा। चिमाजी अप्पा पेशवा के छोटे भाई थे।
रानी लक्ष्मीबाई
चिमाजी अप्पा के घनिष्ठ मित्र मोरोपंत तांबे पेशवा के राजनीतिक सलाहकार और प्रशासनिक सहायक भी थे। वाराणसी में रहते समय मोरोपंत की पत्नी भागीरथी बाई ने एक बेटी को जन्म दिया। मोरोपंत ने अपनी बेटी का नाम “माणिकर्णिका” रखा। माणिकर्णिका का अर्थ है अनमोल रत्न से सुशोभित कर्णभुषल। मणिकर्णिका को आमतौर पर “मनु” इस उपनाम से बुलाते थे।
वाराणसी में अचानक से चिमाजी अप्पा की मृत्यु हो जाती है। उसके बाद पेशवा वाराणसी छोड़ उत्तर प्रदेश में “बिठूर” के किले में जाते हैं। मोरोपंत भी पेशवा के काम में सहायता करने के लिए पेशवा के साथ बिठूर गए।
झाँसी की रानी की ब्रिटिश सेना के साथ लड़ाई
रानी लक्ष्मीबाई अपने जीवनकाल में तीन युद्ध में ब्रिटिश सैनिकों से लड़ीं।
पहली लड़ाई
झाँसी की रानी ने झाँसी की रक्षा के लिए ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ लड़ाई लड़ी। यह लड़ाई २४ मार्च, १८५८ को लड़ी गई, लेकिन दुर्भाग्य से वह अपने लक्ष्य में विफल रही। इसलिए, बाद में वो कलपि जाकर तात्या टोपे और नाना साहेब की सेना में शामिल हुई।
दूसरी लड़ाई
रानी लक्ष्मीबाई २२ मई १८५८ को तात्या टोपे और नाना साहेब के साथ अंग्रेजों से लड़ीं। लेकिन, वे ब्रिटिश सेना से कलपि का बचाव करने में विफल रहीं और उन्हें ग्वालियर जाना पड़ा।
तीसरी लड़ाई
यह लड़ाई १६ जून १८५८ को फूल बाग के पास ग्वालियर में लड़ी गई थी। रानी लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर की लड़ाई का नेतृत्व किया और यह उनकी अंतिम लड़ाई बन गई। लड़ाई के दौरान वह गंभीर रूप से घायल हो गयी। कहा जाता हैं की, गोली लगने से उसकी मौत हो गई। (ब्रिटिश रिकॉर्ड्स के अनुसार)। लेकिन सभी लोग इस बात को नहीं मानते, इस वजह से उनके मौत के कई कहानियाँ बन गयी।
रानी लक्ष्मीबाई का बचपन
माणिकर्णिका का लगभग पूरा बचपन पेशवा महल में गुजरता। इसीलिए, तात्या टोपे और पेशवा के (गोद लिए गए) बेटे नाना साहेब माणिकर्णिका के बचपन के दोस्त थे।
बचपन से ही माणिकर्णिका में एक साहसी रवैया था। इसलिए, पेशवा उसे “छबीली” कहते थे। रानी लक्ष्मीबाई के बचपन से मोरोपंत ने छत्रपति शिवाजी महाराज और भारत के देशभक्तों के बारे में कहानियाँ बताते। इसीलिए, उनमें देशभक्ति और स्वतंत्रता की एक उमंग जागी, जो आगे जाके १८५७ के विद्रोह में काम आयी।
उन दिनों में भारत के लोग लड़कियों को नहीं पढ़ाते थे। लेकिन मनु को पढ़ने और लिखने का शौक था। अधिक ध्यान देने योग्य बात यह थी कि वह तलवारबाजी, मल्लखंबा और हॉर्स चेसल जैसे खेलों में भी आगे थीं।
माणिकर्णिका (रानी लक्ष्मीबाई) का विवाह
मई १८४२ में, माणिकर्णिका का विवाह झाँसी के महाराजा गंगाधरराव नेवलकर के साथ हुआ। शादी के बाद झाँसी प्रांत की परंपरा के अनुसार माणिकर्णिका को “लक्ष्मीबाई” यह नया नाम दिया गया।
रानी लक्ष्मीबाई पेंटिंग

शादी से पहले ही नहीं बल्कि शादी के बाद भी लक्ष्मीबाई को घुड़सवारी करना पसंत था। पैलेस के अंदर में अस्तबल था जहाँ पर अच्छी नस्ल के घोड़े थे। उन घोड़ों में पावन, सारंगी और बादल यह घोड़े रानी लक्ष्मीबाई को विशेष रूप से प्रिय थे।
काही जात है की, झाँसी के युधा में, रानी लक्ष्मी बाई को बचाने के लिए बादल नाम का उनका घोड़ा महल की दीवार से कूद गया था। इसमें उस घोडा मर गया और बाद में, रानी लक्ष्मीबाई किले से बाहर दुश्मनों की पहुंच से दूर चली गईं।
वर्ष १८५१ में गंगाधरराव और लक्ष्मीबाई ने एक बच्चे को जन्म दिया। उन्होंने अपने बेटे का नाम “दामोदरराव” रखा। लेकिन यह खुशी लंबे समय तक नहीं रही, क्योंकि बच्चे की आकस्मित मौत हो गई।
गंगाधरराव द्वारा बेटे (आनंदराव) को गोद लेना
अपने बेटे की मृत्यु के बाद, गंगाधरराव ने चचेरे भाई के बेटे को गोद लिया। उसका नाम था “आनंदराव”। अपने मृत पुत्र की याद में महाराजा गंगाधरराव ने आनंदराव को “दामोदरराव” यह नाम दिया था।
नवंबर १८५३ में, गंगाधरराव की अप्रत्याशित रूप से मृत्यु हो जाती हैं। इस क्षण तक, रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करने के विचार से सहमत नहीं थीं। अंत में, दामोदरराव को गंगाधरराव का दत्तक पुत्र होने का कारण देते हुए, ब्रिटिश गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौज़ी ने झांसी के सिंहासन पर दामोदरराव के दावे को खारिज कर दिया। डलहौज़ी ने अचानक लागू की गई नीति को “समाप्ति का सिद्धांत” (Doctorine of Lapse ) कहा गया।
जब रानी लक्ष्मीबाई ने इस बारे में सूचना दी, तो वह गुस्से से बोली,
मेरी झाँसी नहीं दूँगी!
डोक्टोरिन ऑफ लापसी की नीति ने रानी लक्ष्मी बाई को उग्र विद्रोह बना दिया।
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