झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई- एक अग्रणी महिला स्वतंत्रता सेनानी

by दिसम्बर 20, 2023

परिचय

रानी लक्ष्मीबाई को भारतीय इतिहास में एक कुशल शासक और निष्ठावंत देशभक्त के रूप में याद किया जाता है। उनका असली नाम माणिकर्णिका तांबे था, लेकिन इतिहास में उन्हें “झांसी की रानी लक्ष्मीबाई” के नाम से जाना जाता है।

पुरुष-प्रधान संस्कृति जो मानती थी कि महिलाओं का कार्यक्षेत्र सिर्फ चूल्हे और बच्चे तक सिमित होना चाहिए है। इस सामाजिक विचार को माणिकर्णिका ने बदल के रख दिया। रानी लक्ष्मीबाई का नाम उन गिने-चुने महिलाओं में आता है जिन्होंने किसी युद्धों में भाग लिया था। यह आश्चर्य की बात होगी अगर सार्वजनिक स्थान पर उनकी कोई मूर्ति या फिर इतिहास की किताब में उनकी पीठ पर उनका बच्चा बांधकर लड़ते हुए तस्वीर नहीं देखी हो।

कहते हैं हमारे हाथ में केवल प्रयास करना है, बाकि सफलता या असफलता तो भगवान के हाथ में है। लक्ष्मीबाई ने सफलता या असफलता की परवाह किए बिना ईमानदारी से आजादी की लड़ाई लड़ी। इस लेख में हम उनके प्रयासों के बारे में जानने जा रहे हैं।

नौवारी साड़ी पहनकर हाथ में तलवार लिए रानी लक्ष्मीबाई की पोर्ट्रेट तसवीर
राजमहल में पारंपरिक नौवारी साड़ी पहनकर हाथ में तलवार पकड़े हुए रानी लक्ष्मीबाई की पोर्ट्रेट तसवीर।

वह प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की महान क्रांतिकारी थीं। उन्हें उनकी बहादुरी, साहस और दृढ़ संकल्प के लिए याद किया जाता है।

पृष्ठाधार

कुछ युद्ध लड़े जाते जितने लिए, तो कुछ लड़ाइयाँ लड़ी जाती थी आत्मसम्मान और देश के गौरव को बचाने के लिए। माणिकर्णिका की कहानी में भी एक जोश था मातृभूमि के सम्मान के लिए मर मिटने का, एक जिद थी अपने मिट्टी को अंग्रेजों के चंगुल से बचाने की।

उनके जीवन में संघर्ष था, और देश में क्रांति लाने के लिए कर्तव्यपरायणता और आत्मविश्वास था जिससे उनका जीवन सच्चे देशभक्तों के लिए आदर्श था।

ईसवी १८१८ के बाद का समय था, जब ब्रिटिश राज भारतीय क्षेत्र में अच्छी तरह से स्थापित हो गया था। ब्रिटिश शासन से लगभग ५० साल पहले तक अपराजित रहे मराठा भी ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन थे।

पेशवा का मुख्य ठिकाना, जिसे “शनिवार वाडा” के नाम से जाना जाता था। मराठा साम्राज्य का वह गढ़ भी ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन था।

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के सामने पेशवा ने आत्मसमर्पण कर दिया। इसलिए, पेशवा बाजीराव द्वितीय को शनिवार वाडा छोड़ने के बाद वाराणसी जाना पड़ा। चिमाजी अप्पा पेशवा बाजीराव द्वितीय के छोटे भाई थे।

संक्षिप्त परिचय

जानकारी
विवरण
पहचान
माणिकर्णिका तांबे जो आगे झाँसी की रानी बनी और आगे जाके एक भारतीय धाडसी क्रन्तिकारी बनी।
महत्वपूर्ण काम
उन्होंने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध तीन युद्धों में भाग लिया और कड़ा संघर्ष किया।
नाम
मायके का नाम: माणिकर्णिका तांबे, शादी के बाद का नाम: रानी लक्ष्मीबाई नेवालकर
जन्म
१९ नवंबर ईसवी १८३५ को वाराणसी में
माता-पिता
माता: भागीरथीबाई, पिता: मोरोपंत तांबे
विवाह
ईसवी १८४२ में झाँसी संस्था के महाराजा गंगाधर राव नेवालकर के साथ
बच्चे
दामोदर राव, आनंद राव (दत्तक)
मृत्यु
१८ जून ईसवी १८५८ को ग्वालियर, मध्य प्रदेश में

जन्म

चिमाजी अप्पा के घनिष्ठ मित्र मोरोपंत तांबे पेशवा के राजनीतिक सलाहकार और प्रशासनिक सहायक भी थे। वाराणसी में रहते समय १९ नवंबर ईसवी १८३५ के दिन, मोरोपंत की पत्नी भागीरथी बाई ने एक बेटी को जन्म दिया।

मोरोपंत ने अपनी बेटी का नाम “माणिकर्णिका” रखा। माणिकर्णिका का मतलब होता है “अनमोल रत्न से सुशोभित कर्णभुषल”। मणिकर्णिका को आमतौर पर “मनु” इस उपनाम से बुलाते थे।

वाराणसी में अचानक से चिमाजी अप्पा की मृत्यु हो जाती है। उसके बाद पेशवा वाराणसी छोड़ उत्तर प्रदेश में “बिठूर” के किले में जाते हैं। इसलिए, मोरोपंत भी पेशवा के काम में सहायता करने के लिए परिवार समेत बिठूर गए।

माणिकर्णिका के दादाजी बलवंत राव बाजीराव पेशवा द्वितीय के सेनापति थे। जिसके कारन उनका पारिवारिक संबंध पेशवा के साथ पुराना था।

बचपन

माणिकर्णिका का लगभग पूरा बचपन पेशवा महल में गुजरता। इसीलिए, तात्या टोपे और पेशवा के (गोद लिए गए) बेटे नाना साहेब माणिकर्णिका के बचपन के दोस्त थे।

बचपन से ही माणिकर्णिका में एक साहसी रवैया था। इसलिए, पेशवा उसे “छबीली” कहते थे। रानी लक्ष्मीबाई के पिता मोरोपंत बचपन से छत्रपति शिवाजी महाराज जैसे देशभक्तों के बारे में कहानियाँ बताते। इसीलिए, उनमें देशभक्ति और स्वतंत्रता की एक उमंग जगी, और आगे जाके १८५७ के विद्रोह में काम आयी।

उन दिनों में भारत के लोग लड़कियों को नहीं पढ़ाते थे। लेकिन मनु को पढ़ने और लिखने का शौक था। अधिक ध्यान देने योग्य बात यह थी, कि वह तलवारबाजी, मल्लखंबा और हॉर्स चेसल जैसे खेलों में भी आगे थीं।

झाँसी के महाराज गंगाधर राव के साथ माणिकर्णिका का विवाह

गंगाधररोजी के कार्यकाल से लेकर उनके शादी के बारे में अलग-अलग स्त्रोतों के मुताबिक अलग जानकारी दी गयी है।

हिंदी वेबदुनिया के मुताबिक गंगाधरराव विधुर से थे और उनको सन १८३८ में झाँसी का राजा घोषित किया गया। गंगाधररोजी का माणिकर्णिका से विवाह सन १८५० में हुआ।

तो विकिपीडिआ में उनका कार्यकाल सन १८४३ में शुरू हुआ था। तो उनका विवाह राजा बनाने से पहले सन १८४२ में हुआ था।

मई १८४२ में, माणिकर्णिका का विवाह झाँसी के महाराजा गंगाधरराव नेवलकर के साथ हुआ। शादी के बाद झाँसी प्रांत की परंपरा के अनुसार माणिकर्णिका को “लक्ष्मीबाई” यह नया नाम दिया गया। शादी के बाद पहली पत्नी होने के कारन उन्हें पटरानी बनाया गया।

शादी से पहले ही नहीं बल्कि शादी के बाद भी लक्ष्मीबाई को घुड़सवारी करना पसंत था। पैलेस के अंदर में अस्तबल था जहाँ पर अच्छी नस्ल के घोड़े थे। उन घोड़ों में पावन, सारंगी और बादल यह घोड़े रानी लक्ष्मीबाई को विशेष रूप से प्रिय थे।

वर्ष १८५१ में गंगाधरराव और लक्ष्मीबाई ने एक बच्चे को जन्म दिया। उन्होंने अपने बेटे का नाम “दामोदरराव” रखा। लेकिन यह खुशी लंबे समय तक नहीं रही, क्योंकि बच्चे की आकस्मित मौत हो गई।

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की मूर्ति
घोड़े पर सवार झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की यह प्रतिमा ईसवी १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान का सम्मान करने के लिए मध्य प्रदेश राज्य के ग्वालियर में बनाई गई थी।

विवाहित जीवन

लक्ष्मीबाई के वैवाहिक जीवन के शुरुआती कुछ वर्ष तो सुखमय रहे, लेकिन उसके बाद उन्हें कई दुखों का सामना करना पड़ा।

पुत्र दामोदर का जन्म एवं असामयिक मृत्यु

ईसवी १८५१ में गंगाधरराव और लक्ष्मीबाई ने एक बच्चे को जन्म दिया। उन्होंने अपने बेटे का नाम “दामोदरराव” रखा। लेकिन यह खुशी लंबे समय तक नहीं रही, क्योंकि बच्चे की आकस्मित मौत हो गई।

अपने बेटे की असामयिक मृत्यु के बाद, गंगाधरराव ने अपने चचेरे भाई के बेटे आनंदराव को गोद ले लिया। महाराजा ने अपने बेटे की याद में आनंदराव का नाम दामोदर राव रखा।

व्यक्तित्व

मराठी लेखक विष्णु भट्ट गोडसे की तरह रानी लक्ष्मीबाई को स्टीपलचेज़ (घुड़दौड़) का शौक था। साथ ही, उन्हें हर सुबह नाश्ते से पहले कसरत करने की आदत थी।

उनकी साधारण जीवनशैली और उसकी शोभा बढ़ाने वाली उनकी बुद्धिमत्ता और सौम्यता उनके व्यक्तित्व की विशेषता थी।

शौक और रुचियाँ

शादी के बाद भी लक्ष्मीबाई को घुड़सवारी का शौक था। उनके महल के परिसर में एक अस्तबल था, जिसमें अच्छी नस्ल के घोड़े थे। इनमें पवन, सारंगी, बादल यह घोड़े रानी लक्ष्मीबाई को विशेष प्रिय थे।

कुछ लोगों का मानना है कि, इन घोड़ों में से बादल ने किले से छलांग लगाकर रानी लक्ष्मीबाई को दुश्मनों से सुरक्षित किले से बाहर निकाला था।

गंगाधररावजी की मृत्यु

नवंबर १८५३ में, गंगाधरराव की अप्रत्याशित रूप से मृत्यु हो जाती हैं। शायद अपने बेटे के मौत के कारन उन्हें गहरा धक्का पहुंचा होगा। इस क्षण तक, रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करने के विचार से सहमत नहीं थीं।

समाप्ति का सिद्धांत

अंत में, दामोदरराव गंगाधरराव का दत्तक पुत्र होने का कारण देते हुए, ब्रिटिश गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौज़ी ने झाँसी के सिंहासन पर दामोदरराव के दावे को खारिज कर दिया। डलहौज़ी ने अचानक लागू की गई इस नीति को डोक्टोरिन ऑफ़ लैप्स यानि “समाप्ति का सिद्धांत” कहा गया। इस निति अंतर्गत ७ मार्च, ईसवी १८५४ से झाँसी पर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का अधिकार हुआ।

रानी लक्ष्मीबाई की तस्वीर
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के व्यक्तित्व को दर्शाता चित्र

ईसवी १८५७ के विद्रोह के पीछे रानी लक्ष्मीबाई की पृष्ठभूमि

यह विद्रोह १० मई ईसवी १८५७ को मेरठ में प्रारम्भ हुआ। लक्ष्मीबाई ने कैप्टन अलेक्जेंडर स्केन को आत्मरक्षा के लिए सैनिकों की एक टुकड़ी भेजने के लिए कहा।

यहां शहर में लक्ष्मीबाई हल्दी कुंकुवा कार्यक्रम आयोजित कर यह प्रेरणा दी कि अंग्रेज कायर हैं और उनसे डरने की कोई जरूरत नहीं है। जिसमें झाँसी की सभी महिलाएँ शामिल हुईं।

विद्रोहियों द्वारा स्टार फोर्ट में ब्रिटिश अधिकारियों का नरसंहार

इस समय तक, रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह के विचार से नाखुश थीं। जून १८५७ में, स्थानीय बंगाल पैदल सेना के विद्रोहियों ने स्टार किला नामक ब्रिटिश किले पर कब्जा कर लिया।

खजाना और गोला-बारूद लूटने के बाद, ब्रिटिश अधिकारियों को अपने हथियार डालने के लिए कहा और बाद में उन्होंने उनकी पत्नी और बच्चों सहित उनकी हत्या कर दी। ब्रिटिश सेना के डॉक्टर थॉमस लोव के अनुसार इस हत्याकांड में रानी लक्ष्मीबाई भी शामिल थीं।

लेकिन सच की माने तो, रानी लक्ष्मीबाई ने अपने जीवनकाल में कभी भी हिंसा का समर्थन नहीं किया। इसलिए, हो सकता है यह रानी का नाम ख़राब करने की ब्रिटिश सरकार की कोई साजिश हो।

लक्ष्मीबाई द्वारा झाँसी के सिंहासन की सुरक्षा

खैर, उसके बाद उन विद्रोहियों ने लक्ष्मीबाई से चंदा वसूली कर और राजमहल को उड़ाने की धमकी दी।

इसके बाद सॉगोर डिविजन के कमिश्नर मेजर एर्स्की को पत्र लिखकर लक्ष्मी बाई ने घटना के बारे में विस्तार से जानकारी दी। जवाब में, एर्स्की ने उनसे ब्रिटिश सरकार द्वारा नए निदेशक की नियुक्ति होने तक शहर को सुरक्षित रखने के लिए कहा।

इसके बाद, लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में झाँसी की सेना राजकुमार और प्रतिद्वंद्वी गंगाधर राव के भतीजे के बीच भिड़ गई। झाँसी के सिंहासन पर कब्ज़ा करने का यह दुश्मन का यह प्रयास विफल रहा।

महारानी ने झाँसी को बचाने के लिए तथा अंग्रेजों की इस मनमानी के खिलाफ आवाज उठाने के उद्देश्य से स्वतंत्रता विद्रोहियों को साथ में लेना शुरू कर दिया। रानी लक्ष्मीबाई ने ब्रिटिश सेना के खिलाफ कई योजनाए बनायीं और अपने जीवनकाल में उन्होंने तीन युद्ध लड़े।

झाँसी की लड़ाई से पहले भारत में क्रांतिकारीयों की कूच और विद्रोह

अंतिम मुगल सम्राट की बेगम जीनत महल, नाना साहब के वकील अजीमुल्ला, शाहगढ़ के राजा, तात्या टोपे, नवाब वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल, स्वयं मुगल सम्राट बहादुर शाह, वानपुर के राजा मर्दनसिंह, आदि। इन सभी हिंदुस्तान के महत्वपूर्ण व्यक्तियों ने रानी लक्ष्मीबाई की मदत करने का प्रयत्न किया।

झाँसी के लड़ाई से पहले ही मीरट, कानपूर में बड़े विद्रोह हुए। कानपूर में ४ मई, ईसवी १८५७ को बड़ा विद्रोह हो गया। मेरठ में इस विद्रोह की शुरुवात विकिपीडिया के अनुसार १० मई तो वेबदुनिया के अनुसार ७ मई को प्रारम्भ हुआ।

अंग्रेजों ने शाहगढ़, सागर, गढ़कोटा, वानपुर, तालबेहट, मडखेड़ा, और मदनपुर जैसे कई स्थानों पर का कब्ज़ा लेकर विद्रोहियों को बद से बदतर मौत दी। इन छोटे विद्रोह के बाद ब्रिटिश सेना ने अपना खेमा कैमासन पहाड़ी के नजदीक लगाया।

रानी लक्ष्मीबाईं का संघर्ष

पहली लड़ाई – झाँसी के किले पर आक्रमण

झाँसी किले पर स्थित कड़क बिजली नामक तोप
झाँसी किले पर स्थित कड़क बिजली नामक एक लोकप्रिय तोप जिसका उपयोग प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में किया गया था।

जनवरी १८५८ में, ब्रिटिश सरकार ने घोषणा की कि वह झाँसी पर नियंत्रण करने के लिए सेना भेज रही है। लेकिन झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के सलाहकार ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता प्राप्त करना चाहते थे।

साथ ही, ब्रिटिश सेना के आगमन में देरी से रानी लक्ष्मीबाई की सेना का आत्मविश्वास बढ़ गया। साथ ही इस दौरान झाँसी की सेना ने गोला-बारूद और अच्छी बंदूकों का इंतजाम किया।

ब्रिटिश जनरल ह्यू रोज़ के ख़िलाफ़ रानी लक्ष्मी बाई का विद्रोह

अंततः मार्च माह में ब्रिटिश सेना झाँसी पहुँच गयी। जनरल ह्यूग रोज़ ने झाँसी किले की बढ़ती सुरक्षा को देखकर रानी लक्ष्मीबाई से यह चेतावनी देते हुए आत्मसमर्पण करने को कहा, कि अगर ऐसा नहीं किया तो हर जगह विनाश होगा। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने सोचा और आखिरकार लड़ने का फैसला किया।

लक्ष्मीबाई ने कहा,

“हम आज़ादी के लिए लड़ेंगे, अगर जीत हमारी हुई तो हमें आज़ादी का स्वाद पता चलेगा, और अगर हार हुई तो युद्ध के मैदान में अपनी जान देकर हमारी आत्मा गतिमान होगी।” रानी लक्ष्मीबाई ने स्वयं झाँसी की सेना का मोर्चा संभाला।”

झाँसी की रानी ने झाँसी की रक्षा के लिए ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ लड़ाई लड़ी। झाँसी के छोटी सेना के साथ रानी लक्ष्मीबाई बड़े बहादुरी के साथ लड़ी।

लेकिन सेना छोटी होने से रानी को सरदारों द्वारा कालपी जाके इस स्वतंत्रता सग्राम को शुरू रखने को कहा। तब अपने बेटे को पीट पर कसकर बांधकर बादल नाम के घोड़े पर सवार लक्ष्मीबाई ने किले की एक दीवार से छलांग लगाई। कुछ ही समय में किले से बाहर दुश्मनों की पहुंच से दूर चली गईं।

२४ मार्च, ईसवी १८५८ को लड़ी गई इस झाँसी की लड़ाई में, दुर्भाग्यवश वह अपने लक्ष्य में विफल रही। इसलिए, बाद में उन्होंने कालपी जाकर तात्या टोपे और नाना साहेब की सेना में शामिल हुई।

दूसरी लड़ाई

रानी लक्ष्मीबाई २२ मई १८५८ को तात्या टोपे और नाना साहेब के साथ अंग्रेजों से लड़ीं। लेकिन, वे ब्रिटिश सेना से कलपि का बचाव करने में विफल रहीं और उन्हें ग्वालियर जाना पड़ा।

तीसरी लड़ाई

ग्वालियर किले की अद्भुत वास्तुकला
ग्वालियर किले की अद्भुत मुखौटा संरचना की तस्वीर।
समय के साथ किले के शासक बदलते रहे, लेकिन ऐतिहासिक रूप से समृद्ध इस किले की दीवारें बरकरार रहीं। यह वह स्थान है, जहां से रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी आखिरी लड़ाई और १८५७ का पहला स्वतंत्रता संग्राम भी लड़ा था।

यह लड़ाई १६ जून १८५८ को फूल बाग के पास ग्वालियर में लड़ी गई थी। रानी लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर की लड़ाई का नेतृत्व किया और यह उनकी अंतिम लड़ाई बन गई। लड़ाई के दौरान वह गंभीर रूप से घायल हो गयी। ब्रिटिश रिकॉर्ड्स के अनुसार, गोली लगने से उसकी मौत हो गई। लेकिन सभी लोग इस बात को नहीं मानते, इस वजह से उनके मौत के कई कहानियाँ बन गयी।

भलेही बदकिस्मती से लक्ष्मीबाई की सेना को तीनों लड़ाइयों में हार का सामना करना पड़ा। लेकिन उनकी वीरता और साहस ने लाखों हिन्दुस्तानियों में आजादी की लहर दौड़ पड़ी।

इन तीनो लड़ाइयों को सर ह्यूग रोज ने पूरी तरह से दबाने का प्रयास किया। जिसमे वे सफल भी हुए, वो विनायक दामोदर सावरकर थे जिन्होंने पहली बार इस जंग को सिर्फ विद्रोह ना कहके उसे आजादी की पहली लड़ाई माना। जिसे उन्होंने उनकी किताब “१८५७ का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम” में लिखा है।

मृत्यू

कुछ सालों बाद, १७ जून १८५८ को, रानी लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर के पूर्व क्षेत्र की कमान संभालने का कार्य संपन्न किया। उनकी सेना में महिलाओं के साथ-साथ पुरुष भी शामिल थे। इसलिए रानी लक्ष्मीबाई को अंग्रेजों ने पहचानने से वंचित रखने के लिए वे पुरुषों के वेश में ही युद्ध करती रहीं।

युद्ध के दौरान महारानी लक्ष्मीबाई घायल हो गई थी और तलवार के चोट से उनकी सर पर चोट लगने के कारण उन्हें अपने घोड़े से उतरना पड़ा। अंग्रेज सैनिकों ने रानी लक्ष्मीबाई को पहचाना नहीं क्योंकि वे पुरुष के वेश में थीं, और उन्हें वहीं छोड़ दिया जबकि उनके सैनिक उन्हें गंगादास मठ ले गए, जहां उन्हें गंगाजल दिया गया।

रानी लक्ष्मीबाई युद्ध में काफी घायल हो चुकी थी और उसके बाद उन्होंने अपनी अंतिम इच्छा जाहिर की, जिसमें उन्होंने कहा कि किसी भी अंग्रेज अफसर को उनकी मृत देह को छूने की आज्ञा न दें।

इसके परिणामस्वरूप, रानी लक्ष्मीबाई को ग्वालियर के फूलबाग क्षेत्र में सराय के पास उनकी वीरगति प्राप्त हुई। इस प्रकार, रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी जान की परवाह किए बिना भारत को स्वतंत्र कराने के लिए अंग्रेजों के खिलाफ अदम्यता से संघर्ष किया।

उद्धरण

छवि का श्रेय

१. साड़ी में लक्ष्मीबाई की चित्रकारी, छवि का श्रेय: द लॉस्ट गैलरी, स्रोत: फ़्लिकर

२. झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की मूर्ति, छवि का श्रेय: juggadery, स्रोत: फ़्लिकर

३. रानी लक्ष्मीबाई की तस्वीर, स्रोत: विकिपीडिया (सार्वजनिक डोमेन)

४. झाँसी किले पर स्थित कड़क बिजली नामक तोप, छवि का श्रेय: हिमांशु खरे, स्रोत: विकिपीडिया (सार्वजनिक डोमेन)

५. ग्वालियर किले की अद्भुत वास्तुकला, छवि का श्रेय: Anuppyr007, स्रोत: विकिपीडिया

Subscribe Now For Future Updates!

Join and recieve all future updates for FREE!

Congrats!! Now you are part of HN family!

Pin It on Pinterest