सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र कि कहानी

by मई 4, 2022

आज में आपको सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र की कहानी सुनाने जा रहा हूँ। राजा हरिश्चंद्र सूर्यवंशी थे। भगवान श्रीराम ने इन्हीके कुल में जन्म लेने का एक कारन इन्हीके पुण्यकर्म थे।

विश्वामित्र कि प्रतिज्ञा

आज में जो कथा बताने जाए रहा हूँ, वो कथा रामायण पूर्व सैंकड़ो साल पहले की है। जब अयोध्या नगरी में राजा हरिश्चंद्र राज करते थे। तब उनके न्याय और सत्यवचनी होने का बोलबाला पूरे विश्व में था। मुँह में हमेशा हरी का नाम लेकर विश्व का भ्रमण करने वाले नारद मुनी भी उनसे बहुत प्रभावित हुए। उसके बाद नारद मुनिने स्वर्गलोक प्रस्थान किया। जब वो स्वर्गलोक पहुँचे तब स्वर्ग के राजा इंद्रा का दरबार भरा था।

दरबार में देव, गंधर्व, ऋषि- मुनि आदि लोग उपस्थित थे। पृथ्वीलोक में से भी कई सारे शूरवीर महाराजा, कलाज्ञानी, महाविद्वान भी स्वर्ग के दरबार में उपस्थित थे।

नारद मुनी ने हरी का नाम लेते हुए और हाथ से वीना बजाते हुए दरबार में प्रवेश किया।

“नारायण नारायण!”

नारद मुनि का प्रसन्न चेहरा, वीना का मंजुल स्वर और हरी का नाम कान पे पड़ते ही सभी दरबारी मंत्रमुग्ध हो गए। देवर्षि नारद मुनि के प्रति सभी दरबारियों के मन में बहुत आदर था। इसलिए सभी दरबारियों ने झुककर उन्हें नमन किया। देवों के राजा इंद्र ने भी उनको प्रणाम करके आदरपूर्वक उन्हे आसन पर बिठाया।

फिर दरबार शुरू हुआ, देवाधिराज इंद्र ने नारद मुनि से कहा, “देवर्षि बताइए कैसे आना हुआ? सब कुछ कुशल मंगल तो है ना? भूलोक से कुछ विशेष वार्ता हो तो बताइए।”

नारद मुनि बोले, “प्रभु के इच्छा से सब कुशल मंगल है। लेकिन एक ख़ास बात है जो वाकई में बताने लायक है।”

इंद्र ने पूछा, “भूलोक में ऐसी कौनसी ख़ास बात है जो स्वर्गलोक में भी नहीं है?”

नारद मुनि बोले, “देवाधिराज में भूलोक में अयोध्या नामक एक नगर है। आजतक मैंने अयोध्या जैसा नगर ओर कही भी नहीं देखा। आज के समय में वहाँ राजा हरिश्चंद्र राज कर रहा है। देवाधिराज मैंने तीनो लोकों में न जाने कितनी बार भ्रमण किया होगा। लेकिन राजा हरिश्चंद्र जैसा सत्यवचनी, और कर्तव्यशील राजा मैंने कभी नहीं देखा।”

इंद्र ने पूछा, “देवर्षि क्या ऐसा राजा तीनों लोकों में भी नहीं है?”

नारद मुनि बोले, “नहीं देवाधिराज नहीं! मैंने उसके जैसा राजा कही नहीं देखा। उसके साथ- साथ उसका पुत्र रोहिदास और पत्नी तारामती भी उतने ही गुणवान है।”

नारदजी आगे बोले, “उसके साथ में रोज कई नगरों में भ्रमण करता हूँ। लेकिन अयोध्या नगरी जैसी विलोभनीय नगरी भी मैंने ओर कहींपर भी नहीं देखी।”

राजा हरिश्चंद्र महान ऋषि- मुनियों में से एक वसिष्ठ ऋषि के शिष्य थे। दरबार में बैठे कई ऋषि- मुनियों में वसिष्ठ ऋषि भी शामिल थे। देवर्षि नारद मुनि द्वारा राजा हरिश्चंद्र कि स्तुति सुनकर वसिष्ठ ऋषि बहुत ख़ुश हो गए।

तब वसिष्ठ ऋषि से रहा नहीं गया और वो बोले कि, “आप सत्य कह रहे है, देवर्षि! वह सच में सत्वशील राजा है।”

वह उपस्तित अन्य ऋषि- मुनियों में ऋषि विश्वामित्र भी शामिल थे। उनका गुस्सा हमेशा नाक पर रहता था।
वसिष्ठ ऋषि के शिष्य राजा हरिश्चंद्र प्रशंसा सुन कर ऋषि विश्वामित्र को बहुत गुस्सा आया। हमेशा से ही ऋषि विश्वामित्र को वसिष्ठ ऋषि के प्रति मत्सर रहा है।

अब विश्वामित्र बोले, “खुद का शिष्य कि तो कोई भी तारीफ ही करेगा। ओर दूसरी तरफ नारद मुनि है जो हरिश्चंद्र कि तारीफ़ पर तारीफ़ किये जा रहे है। लेकिन फिर भी में आप दोनों के बातों से सहमत नहीं। इसलिए क्यों न में उसके सत्वहरण कि परीक्षा लेकर देखूँ।”

यह सुनकर वसिष्ठ ऋषि बोले, “विश्वामित्रा, तुम कौनसी भी परीक्षा लेकर देखों लेकिन मुझे अपने शिष्य पर पूरा भरोसा है। वो कुछ भी हो जाय लेकिन हरिश्चंद्र अपनी कर्तव्य से कभी विम्मूख नहीं होगा। तुम क्यों परीक्षा लेकर खुद को गलत साबित करना चाहते हो।”

ऋषि वसिष्ठ का अपने शिष्य के प्रति इतना आत्मविश्वास देखकर विश्वामित्र का गुस्सा आसमान छू गया।

अब विश्वामित्र को रहा नहीं गया और वो बोले, “अगर तुम इतना ही कह रहे हो तो, में उसकी सत्वपरीक्षा तो लेके रहूँगा। अगर में गलत साबित हुआ तो में मेरी साथ हजार वर्षों कि साधना दान करूँगा। जो साधना मैंने नव सृष्टि निर्माण हेतु कि थी। और अगर में हरिश्चंद्र का सत्वहरण करने में कामयाब हुआ तो, मुझे बिना अतिथि सत्कार के वापस भेजने के बदले हरिश्चंद्र घोर पाप भागीदार बनेगा। ये मेरी प्रतिज्ञा है।”

विश्वामित्र कि प्रतिज्ञा सुनकर सारे दरबारी हैरत में पड़ गयी। वैसे भी सभी लोग विश्वामित्र कि प्रतिज्ञा और पराक्रम से परिचित थे। इसलिए, अब सभी को लगाने लगा कि अब तो राजा हरिश्चंद्र का सत्वहरण तो होके ही रहेगा। इस प्रतिज्ञा के साथ दरबार में चल रही सभा स्तगिति का देवाधिराज ने आदेश दिया। सभी दरबारिओं को राजा हरिश्चंद्र के बारे में चिंता होने लगी।

ऋषि वसिष्ठद्वारा सतर्क रहने कि सलाह

इंद्रपुरी में हुई सभा के बाद अब ऋषि वसिष्ठ को अपने प्रिय शिष्य कि चिंता अयोध्या तक खींच लायी। राजा हरिश्चंद्र अपने दरबार में सिंहासन पर विराजमान थे। अपने गुरु को देखते ही वे सिंहासन से उठे और गुरु के पास जाकर उनका आशीर्वाद लिया।

फिर उनको सम्मान के साथ आसन पर बिठाकर उनके पाँव धोकर पूछा, “गुरूदेव! आज आप बड़े जल्दी में लग रहे है। यहाँ आनेका कुछ विशेष प्रयोजन?”।

ऋषि वसिष्ठ स्वर्ग के दरबार में हुआ प्रसंग हरिश्चंद्र को बताने के लिए उत्सुक थे।

उन्होने इंद्रदरबार में हुआ सारा प्रसंग बताकर कहा, “वत्स! अबसे तुम्हे और ज्यादा सावधान और सतर्क रहने कि जरुरत है।”

उन्होंने बताया, “नगर से दक्षिण कि ओर जंगल में अभी ऋषि विश्वामित्र वास कर रहे है। कुछ भी हो लेकिन तुम उस दिशा में बिलकुल भी मत जाना। क्योंकि, विश्वामित्र बहुत ज्ञानी और सामर्थ्यसंपन्न है। वो तुम्हे अपनी बातों में उलझाकर तुम्हें बड़ी हानि पहुँचा सकते है। इसलिए, उनसे दूर रहना ही अच्छा है।”

ऋषि वसिष्ठ यह इशारा देनेके बाद प्रयागराज यानि अभी के इलाहाबाद गए। जहाँ उन्होंने अपने प्रिय शिष्य के लिए तपस्चर्या कर पुण्यसंचय करना शुरू किया। क्योंकि, अपने शिष्य पर आनेवाले संकट से ऋषि वसिष्ठ अच्छी तरह से वाक़िफ़ थे।

ऋषि वसिष्ठ ने भी अपने शिष्य को कर्तव्यपरायण ओर सामर्थ्यवान बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। लेकिन अब जो संकट आनेवाला था वो बहुत बड़ा था। चाहकर भी ऋषि वसिष्ठ अपने शिष्य कि मदत नहीं कर सकते थे। लेकिन उन्हें अपने शिष्य के सामर्थ्य और कर्तव्यपरायण होने पर पूरा भरोसा था।

दोस्तों वह जमाना ऐसा था, जब शिष्य गुरु के प्रति पूरी तरह से समर्पित रहते थे। और गुरु अपने शिष्य को कर्तव्यपरायण ओर सामर्थ्यवान बनाने के लिए कोई कसर बाकि नहीं छोड़ते थे।

विश्वामित्रद्वारा अयोध्या कि सीमाएं बंद

वहाँ विश्वामित्र भी इंद्रसभा से निकलकर अयोध्या के पासवाले जंगल में आए। जहाँ उन्होंने माँ दुर्गा को प्रसन्न करने हेतू अखंड यज्ञ प्रज्वलित करके घोर तपस्चर्या करना प्रारंभ किया। माँ भगवती को प्रसन्न करना इतना आसान नहीं था। इसलिए, ऋषि विश्वामित्र ने अपने शरीर के माँस कि आहुति चढ़ाना प्रारंभ किया। शरीर का एक-एक अंग की आहुति देने पर एक समय आया जब उनके शरीर का सारा मांस ख़त्म होकर सिर्फ हड्डियाँ बची।

फिर भी ऋषि विश्वामित्र को अपने किए पर जरा भी अफ़सोस नहीं था। इतनी उग्र तपस्चर्या के कारण देवी माँ दुर्गा प्रसन्न हुई। माँ दुर्गा ने प्रकट होकर विश्वामित्र कि ओर देखा। माता दुर्गा के देखते ही विश्वामित्र का शरीर फिर से पहले जैसा सामान्य हो गया।

माता दुर्गा ने विश्वामित्र से कहा, “वत्स अपनी आँखे खोलो, तुम्हारी तपस्चर्या सफल हुई। माँगो अपनी इच्छा से जो चाहिए माँगो।”

विश्वामित्र ने कहा, “मुझे कुछ नहीं चाहिए, बस मेरी एक इच्छा है कि अयोध्या नगरी कि सभी सीमाये बंद हो।”

माँ दुर्गा ने कहा, “तथास्तु!”

इतने में यज्ञकुंड से कई सारे भयंकर बाघ निकले। हिंस्र श्वापदों को देखकर सारे प्राणी और मनुष्य अपनी जान मुट्ठी में लेकर भागने लगे। उन बाघों ने रास्ते में जो भी मनुष्य या प्राणी दिखे उसे फस्त करते हुए अयोध्या को चारों तरफ से घेर लिया। अयोध्या में प्रवेश करने लिए जितने भी द्वार थे वहाँ उन बाघों ने कब्ज़ा कर लिया। जिसके वजह से ना कोई इंसान अंदर आ सकता था और अयोध्यावासी बाहर नहीं जा सकते थे। सारे अयोध्यावासी बाघों के सभी प्रवेशद्वारों पर आने से हैरत में पड़ गए।

अयोध्यावासी बाघों से भयमुक्त

सभी बाघों ने सीमाएं बंद करने से व्यापार, लोगों का बाहर आना जाना पूरी तरह से बंद हो गया। इसलिए, कुछ लोगों ने अयोध्या नरेश हरिश्चंद्र के दरबार जाकर बाघों के बारे में बताया।

“महाराज! पुरे अयोध्या को बाघों ने घेरने से व्यापर, अयोध्यावासियों का बाहर आना-जाना पूरी तरह से बंद है। बाघों ने अयोध्या के अंदर भी सभी रास्तों पर अपना आतंक बनाया है। इसलिए, कोई भी अपने घर से निकलने में असमर्थ है। आपसे सभी अयोध्यावासियों कि तरफ से विनती है की उन बाघों का कुछ करे।”

राजा हरिश्चंद्र ने भी बाघों का इलाज करने के लिए प्रधान सत्वकिर्ती को सेना कि चार टुकड़ियाँ तैयार करने के लिए कहा। राजा हरिश्चंद्र को धनुर्विद्या में महारत हासिल थी। उन्होंने ने खुद सेना के आगे रहकर बाघों का पीछा करते हुए एक-एक कर सभी बाघों को मार डाला। बाघों को मारने से घबराई प्रजा भयमुक्त हो गयी।

अपने राज्य को संकटमुक्त करके राजा को भी खुशी हुयी। बाघों को मारने के कुछ देर बाद दक्षिण सिमा के पासवाले जंगल में कुछ हिरण दिखे। हिरण देखते ही उनको शिकार करने का मन हुआ। सेना को वापस भेजकर वे अपने पुत्र, पत्नी और प्रधान के साथ उस हिरणों के पीछे भागे।

सब अपने अपने घोड़ों पर सवार होकर हिरणों के पीछे गए। पीछा करते-करते महाराज अपने गुरूदेव कि सलाह भूल गए। चारों अब घने जंगल में विश्वामित्र कि कुटियाँ थी वहाँ पहुँच गए। सभी हिरण विश्वामित्र कि कुटियाँ के पास जाकर अदृश्य हो गए। राजा हरिश्चंद्र को समझ नहीं आ रहा था आखिर सभी हिरण एकदम से कहाँ लुप्त हो गए। कुछ क्षणों में कुटियाँ से विश्वामित्र बाहर आये।

राजा हरिश्चंद्र ने उनको देखकर प्रणाम किया लेकिन विश्वामित्र ने गुस्से से महाराज कि ओर देखते हुए कहा, “हे दुष्ट तुम्हें लज्जा नहीं आती इन निष्पाप जीवों कि हत्या करते हुए।”

वन में महान ऋषि विश्वामित्र और हरिश्चंद्र, छायाचित्र का श्रेय: Monro, W. D Illustrations by Evelyn Paul, स्रोत: Wikimedia

ऋषि विश्वामित्र कि बातें सुनते हुए महाराज को कुछ समझ नहीं आया। लेकिन इतने महान तपस्वी कि बात काटना सही नहीं रहेगा इसलिए महाराज शांत रहे। तब महारानी तारामती आगे आकर बोली, “गुरुदेव आप तो सब जानते है। हमारे जैसे तुछ्य इंसान से गलती होना स्वाभाविक है। आपसे यही विनती है कि कृपया हमारी भूल को क्षमा करें।”

प्रधान और हरिश्चंद्र के पुत्र रोहिदास दोनों ने भी ऋषि विश्वामित्र से क्षमायाचना की। लेकिन विश्वामित्र बहुत गुस्से में थे वो महाराज कि ओर गुस्से से देखते हुए अंदर कुटियाँ में चले गए।

राजा हरिश्चंद्र का सपना

ऋषि विश्वामित्र का ऐसा बर्ताव राजा हरिश्चंद्र को समझ नहीं आया। फिर महाराज, उनकी पत्नी, पुत्र और प्रधान साथ में कुछ देर तक चले। कुछ समय के बाद सबको तालाब का नयनरम्य नज़ारा देखने को मिला। जिसमे राजहंस आज़ादी से विहार कर रहे थे। तालाब में कई सारे कमलपुष्प खिले थे जो तालाब को और ज्यादा आकर्षक बना रहे थे। उस तालाब के किनारे कई सारे पंछी थे। जो तालाब के नज़ारे को और सुंदर बना रहे थे। उस विलोभनीय प्राकृतिक प्राकृतिक सुंदरता से महाराज ऋषि विश्वामित्र ने कही बात भूल गया।

राजा हरिश्चंद्र को उस तालाब में स्नान करने की इच्छा हुई। महाराज के बाद एक-एक करके सभीने स्नान कर लिया। कुछ ही देर में सूरज ढलके अँधेरा होने वाला था। इसलिए, महाराज ने उसी तालाब किनारे रात गुज़ारने का फैसला किया।

राजा हरिश्चंद्र अपने गुरु कि सलाह भूलकर बड़े संकट में पड़े थे, जिसकी उन्हें भनक तक नहीं थी। ऋषि विश्वामित्र के बिछाए जाल में वे फँस गए थे। जिसकी वजह से वे आश्रम से ज्यादा दूर नहीं जा पाए। तालाब का मनमोहक नज़ारा भी ऋषि विश्वामित्र कि बिछाया मायाजाल था।

राजा हरिश्चंद्र के ऋषि विश्वामित्र के सिद्धाश्रम के पास रुकने से विश्वामित्र को अपनी चाल चलने का मौका मिला।

रात होने पर राज परिवार सो गया। प्रधान महोदय पर राज परिवार के रक्षा की ज़िम्मेदारी थी। जिसके वजह से वे पास में सशस्त्र पहरेदार का काम कर रहे थे। प्रातः समय राजा को एक भयानक स्वप्न पड़ा। जिसमे राजा ने देखा, “उन्होंने अपना सारा राजपथ एक ब्राह्मण को दान किया। साथ मे अपना सारा पुण्य पर भी का भी त्याग किया।”

ऐसा स्वप्न देखने से राजा कि निद्रा टूट गयी। राजा ने देखा कि समय प्रातः का था। अब राजा सोचने लगा कि आखिर उसे ऐसा सपना क्यों आया होगा। कुछ ही देर में सबेरा हो गया।

राजा हरिश्चंद्र कि दानत

सुबह पत्नी और पुत्र उठ गए तब राजा ने प्रधान को बुलाया और सबको अपना सपना बताया। राजा का सपना सुनकर प्रधान ने उन्हें धीरज रखने के लिए कहा। प्रधान बोला, “महाराज! आप तो इतने सत्वशील है और आपका आचरण तो पहले से इतना साफ़ है। इसलिए ऐसे बुरे सपने कि ओर ध्यान ना दे। परमेश्वर पर भरोसा रखे वो सब ठीक करेगा।” प्रधान सत्वकीर्ति कि बातें सुनकर राजा के मन का भार कम हो गया। फिर चारों स्नान करने हेतू चले गए।

राजा हरिश्चंद्र सुबह सूर्य देवता कि उपासना के बाद कोई भी व्यक्ति उनसे दान माँगने आए तो वे उस व्यक्ति को खाली हाथ नहीं लौटाते थे।

इसका फायदा लेते हुए ऋषि विश्वामित्र ने एक ब्राह्मण का रूप धारण किया।

एक-एक करके स्नान करने के बाद राजा ने सूर्य देवता को जल चढ़ाया। सूर्य देवता कि पूजा के तुरंत बाद उन्हें उनके पास खड़ा ब्राह्मण दिखाई दिया। उस ब्राह्मण ने पास में जाकर बोला, “हे राजन! कल तुमने अपने सपने में अपना सारा राज्य जिस ब्राह्मण को दान किया, वो ब्राह्मण में ही हूँ। कल तो तुमने मुझे जो दिया उससे में खुश हूँ। पर आज भी में तुमसे और साडेतीन भार सोना माँगने आया हूँ। मुझे आशा है कि तुम मुझे निराश नहीं करोगे।”

ब्राह्मण कि बातें सुनकर राजा हैरान रह गया।

राजा कुछ सोचे उससे पहले ब्राह्मण आगे बोला, “महोदय आपने अपना विचार बदल दिया है तो कोई बात नहीं, में वापस चला जाता हूँ। वैसे भी मुझे राज्य और सोने से लगाव नहीं।”

राजा दुविधा में पड़ गया अगर बिना दान मिले ब्राह्मण वापस लौटेगा तो सत्व का त्याग करना पड़ेगा।

राजा बोले, “नहीं महोदय ऐसी बात नहीं! आप मेरे साथ अयोध्या पधारेंगे तो में आपकी दक्षिणा आपको दे दूँगा।”

राजा अपने परिवार, प्रधान और ब्राह्मण महोदय के साथ दो प्रहर में अयोध्या पहुँच गए।

दरबार पहुँचते ही सिंहासन पर बैठने से पहले ही राजा ने खजिनदार को कहा, “ब्राह्मण महोदय को साढे तीन भार सोना दान में दीजिए।”

राजा हरिश्चंद्र के आदेश देनेपर ब्राह्मण जोर-जोर से हँसने लगा।

राजा ने पूछने पर ब्राह्मण बोला, “श्रीमान! तुम तो इतने बड़े ज्ञानी प्रतीत होते हो। फिर तुम्हें इतना तो पता होना ही चाहिए कि आपने अपना राज्य दान करने के बाद आदेश देने के लिए तुम अभी राजा नहीं रहे। दूसरी बात तुमने मुझे राज्य दान करने के बाद आपके राजपाठ के साथ राज्य के खजाने का स्वामी भी में हुआ। यानि तुम तो मेरा ही सोना मुझे दे रहे हो।”
ब्राह्मण आगे बोला, “में तुम्हें एक विकल्प बताता हूँ। अगर तुम्हें मेरी दक्षिणा चुकानी है तो दूर वाराणसी के पास एक बाज़ार है। जहाँ इंसानों को ख़रीदा-बेचा जाता है। वहाँ जाओ और खुद को बेचो और उसके बाद मेरी दक्षिणा मुझे लाकर दो।”

राजा हरिश्चंद्र विश्वामित्र कि बातें शांति से सुन रहा था।

अब राजा बोला, “महोदय! आप कृपा करके मुझे डेढ़ महीने कि छूट दे। ताकि में दक्षिणा लेके वापस आ सकूँ।”

ब्राह्मण बोला, “ठीक है लेकिन डेढ़ महीने से एक दिन भी ज्यादा हुआ तो में तुम्हारी दक्षिणा स्वीकार नहीं करूँगा।”

राजपाठ का त्याग

राजा हरिश्चंद्र अपने पत्नी और पुत्र के साथ राजपथ का त्याग करके काशी जाने के लिए निकले। लेकिन अयोध्यावासी को इस बात का पता चलते ही लोगों ने राज परिवार को रोकने का प्रयास किया। उन्हें इस आपदा से बचाने के लिए सब अयोध्यावासी एक होकर दक्षिणा चुकाने के लिए भी तैयार थे। लेकिन ब्राह्मण के रूप लिए ऋषि विश्वामित्र को यह बात मंज़ूर नहीं थी।

प्रजा गहरे दुःख में थी, अयोध्या वासियों का प्रेम देखकर राजा भी भाऊक हुआ। लेकिन परिस्थिति उसके विपरीत थी इसलिए, अयोध्या छोड़कर जाने के सिवा उसके पास दूसरा चारा नहीं था। सभी अयोध्या वासियों को समझाने के बाद वो आगे काशी कि ओर बड़े।

विश्वामित्र बहुत बड़े तपस्वी थे वह सभी नक्षत्र और ग्रह मंडल को अपने हिसाब से घुमाने कि क्षमता रखते थे। उन्होंने राजा हरिश्चंद्र कि परेशानी की सीमा लाँघने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने सूर्य देवता से अपना ताप बढ़ाने के लिए कहा। जिसके कारण अयोध्या से निकले राज परिवार को अत्यधिक कठिनाई का सामना करना पड़ा। अयोध्या से काशी के बीच अतिधुप के कारण सभी कुवे, नदियाँ, तालाब, आदि जलस्त्रोत सूख गए।

ऋषि विश्वामित्र ने अयोध्या से काशी के मार्गपर जराभी वायु ना बहे ऐसी हिदायत वायु देवता को दी थी। वैशाख का महीना और ऊपर से तेज धुप। जिसके कारण, राजा हरिश्चंद्र के साथ उनकी पत्नी और पुत्र कि स्थिति दयनीय हो गयी।

सूर्य देव और वायु देव को भी राज परिवार के स्थिति पर दया आ गयी। लेकिन, ऋषि विश्वामित्र प्रकांड तपस्वी थे उनकी बात टालना उनके लिए आसान नहीं था। क्योंकि, अगर वे गुस्से में आ गए तो उन्हें श्राप भी दे सकते थे। उनकी तपसाधना उनकी दिए श्राप को को सच करने कि क्षमता रखती थी।

राज परिवार के किसी ने भी अयोध्या से निकलने के बाद पानी नहीं पिया था। पूरा राज परिवार बहती हवा नहीं होने से और कड़े धुप के कारण पसीने से भीग गया था। नीचे कंकड़ों से भरी जमीन सूरज के ताप से तपने के कारण भट्टी जैसी प्रतीत हो रही थी। फिर भी राजा हरिश्चंद्र ने अपने परिवार का मनोधैर्य बढ़ा के उन्हें चलने के लिए प्रोत्साहित किया।
ऋषि विश्वामित्र उनपर अपनी दिव्य दृष्टि से नजर रखे थे। तभी उनकी नजर उनके पैरों के ऊपर गयी। तब ऋषि विश्वामित्र ने उनकी स्थिति और कठिन करने का निर्णय लिया। उन्होंने एक बूढ़े तीर्थयात्री का भेस धारण किया।

ऋषि विश्वामित्र तीर्थयात्री के भेस में राजा हरिश्चंद्र के सामने से आया। राजा हरिश्चंद्र ने देखा की इतनी कड़ी धुप में कोई बूढ़ा यात्री आ रहा है। राजा कि नजर उसके पैरों पर गयी जिससे धुप में चलने से खून निकल रहा था। राजा हरिश्चंद्र ने उस यात्री को रोककर पूछा, “महोदय, आपके पैरों से खून कैसे निकल रहा है?”

यात्री बोला, “क्या बताएँ श्रीमान पादुका लेने के लिए धन नहीं। और ऊपर से ये अंगारों जैसे ज़मीन जिसके कारण मेरा यह हाल हुआ।”

राजा हरिश्चंद्र ने झट से अपने पैरों में से जूते निकले और उस बूढ़े तीर्थयात्री को दे दिए।

तीर्थयात्री के भेस में ऋषि विश्वामित्र ने राजा से आगे कहा, “श्रीमान आप ने मुझे तो अपने जूते दे दिए लेकिन मेरे परिवार में मेरी पत्नी और पुत्री भी है। जिनके हालत मेरे जैसी ही है।”

तब राजा हरिश्चंद्र कि पत्नी और पुत्र ने आगे आकर खुशी से अपने जूते दे दिए। ऋषि विश्वामित्रने यात्री के भेस में तीनों के पदत्राण लेकर चला गया। राजा हरिश्चंद्र, उसकी पत्नी तारामती और पुत्र रोहिदास आगे नंगे पैर काशी कि ओर चलने लगे।

राजसत्व कि रक्षा

सूर्य का ताप उसकी चरम सीमा पे था। ऐसे स्थिति में एक भी हवा का झोंका नहीं बह रहा था। आखिर ऋषि विश्वामित्र कि आज्ञा कोई कैसे ना मानता। धुप से तपी कंकड़ों भरी जमीन नंगे पैरों को निचेसे छन्नी कर रही थी। जिसके वजह से सभी के पैरों से खून निकलने लगा।

स्वाभाविक सी बात थी, माता-पिता अपने संतान का दुःख कैसे देख पाते। पुत्र रोहिदास का दुःख माता तारामती और पिता हरिश्चंद्र देख नहीं पाए। पिता हरिश्चंद्र ने माता तारामती के पास एक अंगवस्त्र दिया। माता तारामती ने पुत्र को बिठाके दोनों पैरों पर पिता के अंगवस्त्र बाँध दिए। ताकि, अपने पुत्र को चलते समय कम पीड़ा सहनी पड़ें। पुत्र रोहिदास ने भी हिम्मत नहीं हारी और अपनी पीड़ा छुपाते हुए आगे चलता रहा।

अब तीनों प्यास के मारे व्याकुल हो गए। अब तीनो जंगल से गुजर रहे थे। तीनों को लगा अब कही ना कही तो पानी मिल ही जायेगा। तब विश्वामित्र फिर से ब्राम्हण का भेस लेकर हाथ में पानी से भरा सोने का लोटा लिए खड़ा था।

ब्राम्हण बोला, “ऐसा प्रतीत होता है कि आप सब बहुत दूर कि यात्रा करके आये हो। आप सभी प्यासे और थके लग रहे हो। ये लीजिये शीतल जल ग्रहण करें।”

राजा हरिश्चंद्र बोला, “श्रीमान, जल के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद! पर हम सब सूर्य वंशी राजघराणे से है। हमें किसी के हाथों जल लेना मना है। अगर मैंने आप के हाथों जल पी लिया तो मेरा राजसत्व नष्ट हो जायेगा। इसलिए माफ़ करें लेकिन में ये जल ग्रहण नहीं कर सकता।”

उस ब्राह्मण के भेस में ऋषी विश्वामित्र का प्रस्ताव प्यार से ना मानते हुए राजा हरिश्चंद्र और उसका परिवार आगे बढ़ा।

पतिव्रता महारानी तारामती

ऋषि विश्वामित्र का सत्वहरण का यह प्रयास विफल हुआ था। जिसके वजह से ऋषि विश्वामित्र और क्रोधित हुए। उन्होंने अब तय कर लिया कि अगली बार तो वे राजा हरिश्चंद्र का सत्वहरण करके ही रहेंगे। राज परिवार जिस जंगल से जा रहा था उस पूरे जंगल को ऋषि विश्वामित्र ने आग लगा दी। जंगल में कई छोटे-मोटे जीव, हिंसक श्वापदे, दूसरे जंगली जानवर, और पंछी थे जो आग लगाने के कारण इधर-उधर भागने लगे।

आग लगने के कारण अब राज परिवार अब बड़े संकट में पड़ा था। लेकिन सभी को ब्राह्मण को दक्षिणा देने कि चिंता थी। लेकिन फिर भी सब परिवार जन डट के मुश्किलों का सामना करते हुए आगे बढ़ रहे थे। उन्हें रास्ते में कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। कुछ प्रहर चलने के बाद आग तो बुझ गयी लेकिन, उसके धूँवा के कारण तीनों परिवार जन एक दूसरे से बिछड़ गए। आग का धूँवा इतना था कि आंखों से पानी निकल रहा था। सभी को साँस लेने में भी तकलीफ़ हो रही थी।

ऋषि विश्वामित्र ने अब महारानी तारामती कि परीक्षा लेने कि सोची। उन्होंने अपने मायाशक्ति से राजा हरिश्चंद्र और पुत्र रोहिदास के शव महारानी तारामती को दिखाए। महारानी तारामती ने अपने पति और पुत्र के शव देखके बहुत विलाप किया। उस ज़माने में पत्नी अपनी पति के प्रति समर्पित हो तो अपनी मर्जी से सती जाती थी।* महारानी तारामती ने भी सती जाने का निर्णय लिया।

ऋषि विश्वामित्र तपस्वी का रूप लेकर आते है और महारानी तारामती से कहते है, “देवी इस संसार से मुक्ति पाना है तो किसी कि दक्षिणा या बाकि नहीं रखते। में जहाँ तक देख पा रहा हूँ तुम्हारे पति को अभी किसी ब्राह्मण कि दक्षिणा देनी बाकि है। पति नहीं रहा इस दुःख को में समझ सकता हूँ। लेकिन फिर भी पति कि दक्षिणा देने कि अब तुम्हारी ज़िम्मेदारी है।”

महारानी तारामती बोली, “नहीं! मेरा पति ही मेरा सर्वस्व था। अब तो मेरा पुत्र भी नहीं रहा। अब में जिकर क्या करुँगी। और एक पतिव्रता का एक ही धर्म होता है अपने पति के साथ रहना और उसके हर काम में साथ देना। इसलिए आप कृपा करके मुझे रोकने का प्रयास ना करें।”

फिर ब्राम्हण बिना कुछ बोले वहा से निकल गया। ब्राम्हण के भेस में ऋषि विश्वामित्र को अब साफ हो गया था की, अब राणी तारामती सती जाकर रहेगी। लेकिन अब विश्वामित्र राणी तारामती को जाने नहीं दे सकते थे। क्योंकि, ऋषि विश्वामित्र कि अभी बहुत सारी परीक्षाएं शेष थी।

इसलिए, ऋषि विश्वामित्र ने फिर से प्रेतों के पास धुंवे कि मदद से दोनों प्रेत गायब करवाए। उस जगह से धुंवे के हटने पर महारानी ने देखा कि प्रेत अचानक से गायब हो गए है। तभी झाड़ियों से पुत्र और पति की आवाज आयी। झाड़ियों के पीछे जाकर देखने से पता चला कि पति और पुत्र जिंदा थे।

महारानी को प्रेतों के बारे में कुछ समझ नहीं आ रहा था। पर उसे इस बात कि ख़ुशी थी की उसके पति और पुत्र जिंदा है। महारानी तारामती के साथ जो घटित हुआ था उसे वो बुरा सपना समझके भूल गयी। फिर तीनो काशी कि और चलने लगे।

दक्षिणा कि अवधि

तीनों बहुत कष्ट उठाते हुए यहाँ तक आये थे। इसलिए, अब उनको वे चल रहे मार्ग अब कम कष्टदायक प्रतीत हो रहा था। अब तीनों पहुँचे प्रयागधाम के त्रिवेणी संगम पर। वहाँ तीनों ने स्नान करके मंदिर में आराध्य शिवजी की पूजा की। पूजा संपन्न होने पर राजा हरिश्चंद्र मंदिर के प्रांगण में बैठने लगा। तभी जिसकी दक्षिणा बाकि थी उस ब्राम्हण के भेस में विश्वामित्र फिर से आये।

उन्होंने कहा, “श्रीमान, आप ने मुझे दक्षिणा में साढ़ेतीन भर सोना देने का वादा किया था। जिसकी अवधि आज सूर्यास्त के बाद खत्म हो जाएगी।”

ब्राम्हण कि बातें सुनकर राजा ने नम्रता के साथ कहा, “महोदय! में क्षमाप्रार्थी हूँ की में निर्धारित समय में आपकी दक्षिणा नहीं लौटा सका। फिर भी मुझे थोड़ी और मुहलत दीजिये। ताकि में आपकी दक्षिणा लौटा सकूँ।”

राजा हरिश्चंद्र से दास हरिश्चंद्र

राजा अपने पत्नी और पुत्र के साथ काशी नगर के रास्तों से भ्रमण कर रहे थे। तभी वे उस गुलामों के बाझार पहुँच गए। राजा हरिश्चंद्र खुद को बेचने के लिए आगे आया। वहाँ एक व्यक्ति इंसानों कि विक्री करने में मदत कर रहा था।

तभी रानी तारामती ने आगे आकर कहा, “नहीं महाराज! नहीं!! बेचना ही है तो पहले मुझे बेचो।”

अपने पत्नी कि बातों से राजा हरिश्चंद्र भाऊक हो गए।

और राजा ने रानी से कहा, “नहीं महारानी! में आपको बिकने नहीं दे सकता।”

तब राजा हरिश्चंद्र के पास दक्षिणा लेने आया ब्राम्हण बोला, “श्रीमान आप जब अपने मोह से विम्मूख नहीं हो सकते तो मेरी दक्षिणा कैसे चुकाओगे।”

तीनों को गुलामों के बाजार में बिकता देख वहाँ लोगों कि बड़ी भीड़ जमा हुई। सब लोग उनकी और आश्चर्य से देख रहे थे। क्योंकि, तीनों के मुख मंडल के तेज से तीनों उच्चकुलीन लग रहे थे।

हरिश्चंद्र अपनी पत्नी और बेटे के साथ मानवी बाजार में, छायाचित्र का श्रेय: राजा रवि वर्मा, स्रोत:  Wikimedia

भीड़ जमा होने पर मनुष्यविक्री में सहायता करनेवाले व्यक्ति को हटते हुए कूद ब्राह्मण आगे आया। उसने तीनों का नाम लेते हुए और लोगों को उनके बारे में बताते हुए उनके बिक्री के लिए प्रयास किया।

तब कालकौशिक नाम का सज्जन गृहस्त आगे आया। जिसने एक भार सोना देके रानी तारामती को खरीद लिया। जिसके कारन रानी तारामती महारानी से एक सामान्य दास बन गयी। कालकौशिक ने राजा हरिश्चंद्र के हाथ में धन कि थैली थमा दी।

अब माँ अपने से दूर हो जाएगी इस कल्पना से रोहिदास डर गया। इसलिए, वह जोर-जोर से रोने लगा। तारामती ने अपने पुत्र को दूर होता देख उसने रोहिदास को गले लगाया।

तारामती ने कालकौशिक को विनती कि, “कृपा करके आप रोहिदास को भी ख़रीदे, मेरा पुत्र मेरे सिवा नहीं रह सकता। मुझ पर दया करके मेरे पुत्र को भी ख़रीदे।”

तारामती कि याचना सुनकर कालकौशिक ने रोहिदास को और आधा भर सोना चुकाके खरीद लिया। उसके बाद दोनों को लेकर कालकौशिक अपने घर चला गया।

लोगों को अब हरिश्चंद्र के बारे में पता चला। तब सके लोग हरिश्चंद्र को बुरा भला कहने लगे।

कुछ लोगों ने कहा, “इस बेचारेने तो अपना देन चुकाने के लिए अपने पत्नी और पुत्र को बेच दिया! कैसी विपदा आन पड़ी है इस गृहस्त के ऊपर!”

कुछ देर बाद एक दूसरा व्यक्ति आया जिसका नाम था वीरबाहू। उसने हरिश्चंद्र को दो भार सोना देकर ख़रीदा। अब राजा हरिश्चंद्र एक गुलाम बन गया था।

इस प्रकार हरिश्चंद्र ने साढेतीन भार सोना देकर ब्राम्हण कि दक्षिणा पूरी की।

हरिश्चंद्र ने दक्षिणा देनेसे ऋषि विश्वामित्र कि बड़ी हार हुई थी। लेकिन अभी विश्वामित्र ने हार नहीं मानी थी। हरिश्चंद्र को ब्राम्हण कि दक्षिणा चुकाने के लिए खुद के साथ, पत्नी और पुत्र को बेचना पड़ा था। अब राजा हरिश्चंद्र को ब्राम्हण कि दक्षिणा चुकाने से अच्छा लग रहा था तो दूसरी और पत्नी और पुत्र को बेचना पड़ा इसके वजह से रोना आ रहा था।

ऋषि विश्वामित्र द्वारा तीनों परेशान

वीरबाहु नामक एक कलाबाज़ ने राजा हरिश्चंद्र को ख़रीदा था। हरिश्चंद्र गुलाम बनकर उसके घर गया। हरिश्चंद्र ने देखा की उसके घर में जगह-जगह गंदगी फैली हुई है। घर कि हर वस्तु पर धूल जमीं थी। लेकिन राजा हरिश्चंद्र ने इन सब चीजों के लिए मन पहले से मन बना लिया था।

हरिश्चंद्र ने सोचा कि, जब राज्य का भार सर पर था तब पूरी निष्ठा के साथ मैंने अपना राजधर्म निभाया था। अब एक गुलाम होने के नाते भी मुझे पूरे ईमान के साथ अपना कर्त्तव्य निभाना चाहिए।

हरिश्चंद्र पूरी निष्ठा के साथ उस कलाबाज के यहाँ काम करने लगा। ऋषि विश्वामित्रने फिर से अलग-अलग रूपों में आकर हरिश्चंद्र का काम बिगाड़ना करना शुरू किया।

राजा हरिश्चंद्रने पानी भरकर रखा हो तो ऋषि विश्वामित्र मेंढक का रूप लेकर पानी कि टंकी फोड़ डालते। धान पीसने का काम किया तो वे चूहे, बिल्ली, कुत्ता, आदि का रूप पूरा आता फस्त कर देते। जिसके वजह से हर बार हरिश्चंद्र को वीरबाहू मारपीट करता। बहुत बार काम देकर भी हरिश्चंद्र हर बार उस काम में असफल होता। इसलिए वीरबाहू ने परेशान होकर हरिश्चंद्र को कसाई के साथ स्मशान में कर वसूली का काम दिया।

इधर तारामती कालकौशिक के घर पर आनेवाले ऋषियों के भोजन कि व्यवस्था देख रही थी। तो रोहिदास छोटी-मोटे कामों के साथ ऋषिपुत्रों के साथ विद्याभ्यास करता था।

फिर भी तीनों अपनी सद्यस्तिती को भाग्य मानकर सुखी रहने कि कोशिश कर रहे थे। जिसके वजह से ऋषि विश्वामित्र को और गुस्सा आया। ऋषि विश्वामित्र ने तीनों कि स्थिति और जटिल करने का निर्धार किया। उन्होंने अब सांप का रूप धारण किया।

इस बार ऋषि विश्वामित्र ने रोहिदास को निशाना बनाया। रोहिदास ऋषि पुत्रों के साथ उनके आश्रम के प्रांगण में खेल रहा था। तब जहरीले सांप का रूप धरे विश्वामित्रने रोहिदास को काट लिया। रोहिदास जमीन पर गिर गया और मुँह से झाँक निकलने लगा। रोहिदास का पूरा शरीर नीला पड़ गया, धीरे-धीरे रोहिदास कि आँखे बंद हो गयी।

ऋषि पुत्रों ने झट से कलकौशिक के घर जाके रोहिदास को सांप ने काटने कि खबर बताई। लेकिन तब तारामती ऋषियों को भोजन कराने के कारण व्यस्त थी। अपने पुत्र से संबंधित दुखभरा समाचार सुनकर तारामती का अंतःकरण अंदर से रो पड़ा। फिर भी तारामती ने अपने ह्रदय पर पत्थर रखकर हिम्मत जुटाकर ऋषियों को पूरा भोजन कराया। तारामती कि आँखे नम थी लेकिन फिर भी अपने व्यक्तिगत दुःख के कारण उसने अपने कर्त्तव्य से मुँह नहीं फेरा।

ऋषियों का भोजन होनेपर तारामती घर से अपने पुत्र को देखने बाहर निकली। तब कुछ व्यक्ति रोहिदास को कालकौशिक के घर के इधर ही उठाकर ला रहे थे। रोहिदास ने अपने प्राण छोड़ दिए थे। लोगों ने रोहिदास के प्रेत को रखकर चले गए।

पुत्र वियोग के दुःख से तारामती फ़िदक-फिदककर रोने लगी। इस दुख सामने अब उसे संसार का हर दुःख छोटा लगने लगा। कुछ देर बाद तारामती ने अपने प्रिय पुत्र का अंत्यविधि करने का सोचा।

स्मशान में तारामती कि दुर्गति

मृत्यु के समय रोहिदास का वहाँ पर उसके माँ के सिवा कोई नहीं था। इसलिए अंतिम विधि कि भी सारी ज़िम्मेदारी अब तारामती पर ही थी। इसलिए उसने बड़े मुश्किल से खुद रोहिदास का शव स्मशान भूमि तक ले आयी। तारामती बड़ी ज्ञानी थी, जब महारानी थी तब बहुत सारे ग्रंथ पढ़े थे। जिसके वजह से अंतिम संस्कार के विधि के बारे में उसको पता था। कुछ समय में उसने सारे विधि पूरे किया। अब सिर्फ शव को जलाना बाकि रह गया था। स्मशान कर्मचारियों द्वारा पहले से रची चिता पर तारामतीने रोहिदास को लेटाया। तारामतीने मशाल प्रज्वलित कि और अब वो चिता को मुखाग्नि देने के लिए आगे बढ़ी।

उतने में वहाँ हरिश्चंद्र आ पहुँचा जो वहाँ कर वसूली का काम करता था। दोनों ने एक-दूसरे को देखा, तारामती और हरिश्चंद्र ने एक-दूसरे को पहचान भी लिया। तारामतीने खुद को बेचने के बाद जो भी मिला वो उस ब्राम्हण को दान में दिया अब वो सिर्फ एक दासी थी वो भला कर कहा से चुकाती।

शमशान भूमि में हरिश्चंद्र और तारामती, छायाचित्र का श्रेय: राजा रवि वर्मा, स्रोत: Wikimedia

हरिश्चंद्रने अपनी हालत पत्नी तारामती को बताई। तारामतीने भी हरिश्चंद्र को अपने पुत्र के मृत्यु कि वार्ता बताई। अपने पुत्र के मौत कि खबर सुनकर हरिश्चंद्र को बड़ा दुःख हुआ।

हरिश्चंद्र अगर चाहता तो अपने पुत्र कि मौत और पत्नी कि हालत और मजबूरी समझते हुए बिना कर लिए भी शव जलने दे सकता था। लेकिन उसकी कर्तव्यनिष्ठा उसे ऐसा करने कि अनुमति नहीं दे रही थी।

बहुत समय हो गया लेकिन हरिश्चंद्र तारामती को कर चुकाए बिना शव जलाने नहीं दे रहा था। तारामतीने कर नहीं चुकाने पर हरिश्चंद्रने रोहिदास का चिता पर लेटाया शव चिता से नीचे जमीन पर रख दिया और वहाँ से चला गया।

बेसहारा तारामती अब रोहिदास के शव के पास बैठकर रोने लगी। गहरे दुःख के कारण तारामती सोचते-सोचते मूर्छित हो गयी। ऋषि विश्वामित्र का सत्वहरण करने का अबतक का हर प्रयास विफल हुआ था। तारामती मूर्छित होने से उन्हें एक और मौका नजर आया। ऋषि विश्वामित्र ने रोहिदास के शव का पेट चीरकर उसका थोड़ा खून तारामती के मुँह पर लगाया। फिर उन्होंने सामान्य व्यक्ति का रूप लेकर स्मशान के नजदीकी गाँव में गए।

प्रजाजनों को ऋषि विश्वामित्र ने तारामती के खिलाफ भड़काने के लिए कहा, “यह औरत खतरनाक पिशाचिनी है, जो बच्चों का खून पीके अपनी आयु बढाती है। इसका कुछ ना कुछ इलाज तो करना ही होगा!”

अपनी बात सच साबित करने के लिए ऋषि विश्वामित्र लोगों को स्मशान लेकर गए। वहा सभी लोगों ने देखा कि रोहिदास का पेट कटा था और उसके पास तारामती पड़ी थी जिसके मुँह पर खून लगा था। जिसके वजह से सभी लोगों को ऋषि विश्वामित्र ने कही बातें सच लगने लगी।

फिर कुछ लोगों ने तारामती को रस्सी से बाँधकर राज दरबार लेकर गए। वहाँ के राजा ने बिना असली बात का पता लगाए तारामती को मृत्युदंड का आदेश दिया।

राजा के निर्देशानुसार पहरेदार तारामती को उसका वध करने हेतु नगर के वधस्तंभ के पास ले आए। वहाँ लाने पर तारामती मूर्छित स्थिति से बाहर आयी। तारामती जराभी अंदाजा नहीं था कि आखिर वो कैसे ऐसी विपदा में पड़ी। उसे जंजीरों से बंदी बनाया था। जिसकी वजह से वो कुछ भी करने के लिए असमर्थ थी। अब उसने अपना सारा भविष्य ईश्वर के ऊपर छोड़ दिया।

हरिश्चंद्र कि आखिरी सत्वपरीक्षा

राजा के आज्ञा अनुसार वध का समय होनेपर वहाँ हरिश्चंद्र आ गया। तारामती और हरिश्चंद्र दोनों ने एक-दूसरे को पहचाना। तारामती को यह सोचकर अच्छा लगा कि उसे अपने पति के ही हाथों मौत आएगी। लेकिन हरिश्चंद्र अपने पत्नी को वधस्तंभ पर देख बहुत दुःखी हुआ।

अब हरिश्चंद्र को अपनी पत्नी जिसने उसके हर काम में पुरे जिंदगीभर साथ दिया। यहाँ तक ब्राम्हण कि दक्षिणा चुकाने के लिए उसने खुद को बेच डाला। आज उसीके वध कि जिम्मेदारी हरिश्चंद्र पर थी।

पहले हरिश्चंद्रने मन ही मन यह काम छोड़ने का फैसला किया। उसने अपने मालिक से इस बारे में बात करने का सोचा। लेकिन गहराई से सोचने पर उसको अपने जिम्मेदारी और कर्त्तव्य का अहसास हुआ। हरिश्चंद्रने सोचा अगर उसने यह काम करने से मना किया तो उसका सत्व नहीं रहेगा। इसलिए मालिक वीरबाहु कि आज्ञा माननी ही होगी। अपने पत्नी का वध करना कर्त्तव्य के साथ भाग्य बन गया था।

आखिरकार हरिश्चंद्र ने तय किया कि कुछ भी हो जाए लेकिन अपने कर्त्तव्य के साथ समझौता नहीं करना है। उसने परमेश्वर को याद करते हुए, उसके हाथों से होने जा रहे, अपने पत्नी के वध के लिए क्षमा माँगी। अब उसने तारामती का वध करने हेतु हथियार उठाया। उसने दोनों हाथों से कस कर हथियार पकड़ा। तारामती के गर्दन पर वार करने के लिए हाथ ऊपर लिए और जोर से प्रहार हेतू नीचे लाने का प्रयास किया। लेकिन प्रहार के लिए हाथ नीचे ही नहीं आ रहा था। इसलिए उसने गुस्से से पीछे हटकर देखा कि आखिर क्या बीच में आ रहा है।

तब उसने जो देखा वह देखकर हैरान रह गया क्योंकि उसने देखा कि उसके आसपास कोई लोग नहीं थे। वह वधस्तंभ पर नहीं था बल्कि अयोध्या के दक्षिणी सीमा के पास खड़ा था। हरिश्चंद्र जहाँ तक देख पा रहा था वहाँ तक चारों और दिव्य प्रकाश फैला हुआ था।

तब हरिश्चंद्र ने दिव्य प्रकाश जहाँ से आ रहा था वहाँ देखने कि कोशिश की। तब हरिश्चंद्र को अपनी भाग्य पर भरोसा नहीं हो रहा था। क्योंकि वहाँ साक्षात् भगवान विष्णु, ऋषि विश्वामित्र, वसिष्ठ ऋषि, और देवर्षि नारदमुनि खड़े थे।

साक्षात् भगवान विष्णुजी के दर्शन होनेपर हरिश्चंद्र ने उन्हें दंडवत प्रणाम किया। तारामती ने खड़े होकर देखा तो उसने भी भगवान विष्णु और बाकि सभी को प्रणाम किया। विश्वामित्र के पास ही रोहिदास भी खड़ा था। हरिश्चंद्र और तारामती को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि उन्हें स्वयं भगवान विष्णुजी के दर्शन हुए थे।

अपराजित हरिश्चंद्र

इस तरह ऋषि विश्वामित्र कि प्रतिज्ञा असफल रही। ऋषि विश्वामित्र कि हरिश्चंद्र की सत्वहरण करने की इच्छा स्वप्न बनकर रह गयी। वसिष्ठ ऋषि से ईर्ष्या होने के कारण ऋषि विश्वामित्र कि प्रतिज्ञा असफल रही थी। ऋषि विश्वामित्र द्वारा लिए गए कठिन सत्वपरीक्षा में राजा हरिश्चंद्र कि जीत हुई थी।

इसलिए, ऋषि विश्वामित्र ने दाहिने हाथ में पानी लिया और हरिश्चंद्र के ऊपर छिड़का। फिर मंत्रोच्चारण करते हुए ऋषि विश्वामित्रने अपनी साठ हजार वर्षों कि तपश्चर्या हरिश्चंद्र को दान की।

इतने सत्वप्रिय राजा को भगवान विष्णुजी को भी कुछ देने कि इच्छा हुई।

भगवान विष्णुने प्रसन्न होकर कहा, “हे हरिश्चंद्र! तुम्हारी सत्वशील स्वभाव को देखकर मुझे भी तुम्हे कुछ देने कि इच्छा है। इस सांसारिक जगत में सत्य को स्वीकार कर सत्वशील रहना सबसे कठिन कार्य है। तुमने और तुम्हारे परिवार ने ऋषि विश्वामित्र कि परीक्षा देकर तुम्हारी सत्वशीलता साबित कि है। इसलिए आज तुम्हे जो भी वर चाहिए माँगो।”

राजा हरिश्चंद्र ने कहा, “नहीं भगवान! आपने मेरेजैसे तुच्छ मनुष्य को दर्शन देके कृतार्थ किया है। यही मेरे लिए बहुत बड़ी बात है। मुझे आपके आशीर्वाद के सिवा किसी अन्य वस्तु या वर की आशा नहीं।”

भगवान नारायण ने फिर से कहा, “वत्स! मुझे पता है कि तुम में किसी भी प्रकार का लालच नहीं। फिर भी में तुम्हें कुछ ना कुछ देने के लिए इच्छुक हूँ। इसलिए, तुम्हारे इच्छा अनुसार वर माँगो।”

फिर से आग्रह करनेपर हरिश्चंद्र बोला, “हे भगवान! अगर आप मुझे सच में कुछ देना ही चाहते हो तो मुझे हर जन्म में तारामती जैसी ही पत्नी और रोहिदास जैसा ही पुत्र मिले यही मेरी इच्छा है।”

भगवान विष्णुने कहा, “तथास्तु!”

राजा हरिश्चंद्र, रानी तारामती, और पुत्र रोहिदास को आशीर्वाद देकर भगवान नारायण, देवर्षि नारद, ऋषि विश्वामित्र, वसिष्ठ ऋषि ने वहाँ से अंतर्ध्यान हो गए।

उनके जाने के तुरंत बाद राजा हरिश्चंद्र, रानी तारामती और पुत्र रोहिदास का रूप पहले जैसा हो गया। तीनों के वस्त्र राजवस्त्रों में परिवर्तित हो गए।

ऋषि विश्वामित्रने पहले ही अयोध्यावासियों को राजपरिवार के लौटने कि वार्ता बताई थी। जिसके कारण सभी अयोध्यावासी अपने प्रिय राजा-रानी और राजपुत्र का स्वागत करने महाद्वार पर खड़े थे।

कुछ महिलाओंने तीनों कि आरती उतारी फिर सभी लोगों ने पुष्पवृष्टि करते हुए राजपरिवार का स्वागत किया। अपने आदरभाव का परिचय देते हुए प्रजा ने अपने राजा-रानी और राजपुत्र का स्वागत किया।

सारी अयोध्या कि प्रजा बहुत खुश थी क्योंकि उनका सत्वशील, कर्तव्यनिष्ठ, दानशूर और आदर्श राजा उन्हें वापस मिल गया था।

सिख: बहुतांश समय सत्य कड़वा होता है लेकिन हमेशा सच्चाई के राह पर चलने वाले व्यक्ति कि विजय निश्चित होती है।

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