महाराणा प्रताप सिंह जीवनी- १५७२- १५९७

by अप्रैल 24, 2023

नमस्कार दोस्तों, आज मैं आपके साथ भारत के ऐसे ऐतिहासिक राजा की जीवनी साझा  करने जा रहा हूँ, जिन्होंने आखिरी दम तक हार नहीं मानी और अपने राज्य को कभी पूरी तरह से पराजित नहीं होने दिया। वे कोई और नहीं थे, बल्कि मेवाड़ के रक्षक महाराणा प्रताप थे। जिन्होंने कई कठिनायों के बावजूद कभी मुगलों के सामने घुटने नहीं टेके।

पृष्ठाधार

राजपुताना

राजपुताना हिंदुस्तान का ऐसा इलाका था जहाँ कई छोटे रियासतें थी। वहाँ के राजपूत शासक हिंदुस्तान में अपने समशीर के दम पर शासन करने के लिए जाने जाते थे।

इसी मिट्टी में जन्म हुआ एक ऐसे वीर योद्धा का, जिसने अकबर जैसे महत्वकांक्षी बादशाह को पाठ पढ़ाया। और अपना जित का हट छोड़ने पर विवश कर दिया। जिनका नाम था “महाराणा प्रताप”।

तो चलिए हम शुरुवात करते महाराणा के अर्थ से,

महाराणा राजस्थान में राजाओं के लिए इस्तेमाल की जाने वाली एक राजपूती उपाधि थी, जिसे गर्व, दृढ़ता, और वीरता का प्रतीक माना जाता था।

मेवाड़: राजपुत रियासतों में अद्वितीय इलाका

इन्ही रियासतों में एक प्रतिष्ठित रियासत थी जिसका नाम था, “मेवाड़”। मेवाड़ रियासत पर मध्यकाल से सिसोदिया राजवंश का शासन था। राजपूत रियासतों में उन्हें प्रभु श्रीरामचन्द्र के वंशज माना जाता है।

मेवाड़ के महाराजा थे महाराणा उदयसिंह जिनके सात बेटे और दो बेटियॉं थी। जिनमे से प्रताप सिंह, शक्ति सिंह, और जगमल सिंह उनके अलग स्वभाव के कारन जाने जाते थे।

प्रताप सिंह जो सबसे बड़े थे, वो बहुत विनम्र और सहनशील थे। उन्हें सबसे घुलमिलकर रहना पसंद था। उनके विपरीत थे, शक्ति सिंह जो गुस्सैल स्वाभाव के थे। उन्हें एकांत में रहना पसंद था, ज्यादातर उनकी किसीकेसाथ बनती नहीं थी। तो तीसरी और जगमल सिंह थे, जो सबसे आलसी, कामचोर थे, वे हर समय भोगविलास में डूबे रहते।

महाराणा प्रताप इतिहास का परिचय

महाराणा प्रताप का उदयपुर में अश्वरूढ़ पुतला
महाराणा प्रताप का अश्वरूढ़ पुतला, उदयपुर

हमारे राष्ट्र में बहुत शूरवीर नायक है, जिन्हे हमारे राष्ट्र के युवा अपना आदर्श मान सकते है। महाराणा प्रताप का इतिहास इन नायकों में सबसे अद्वितीय और रोमांच से भरपूर है। उनके देशप्रेम के भाव का अनुभव आप उनकी यह जीवनी पढ़ने पर लगा सकते है।

अगर आपको महाराणा प्रताप का इतिहास जानने में रूचि है, तो पहले आपको अकबर के बारे में जानना होगा। अकबर एक महत्वकांक्षी मुग़ल बादशाह था, जिसका पुरे हिंदुस्तान पर हुकूमत करने का सपना था।

अकबर अनपढ़ भलेही था, लेकिन उसको कूटनीति और राजनैतिक ज्ञान था। जिसके कारन अपनी साम्राज्यवादी नीति जारी रखते हुए भी उसे स्थानीय लोगों ने उसे स्वीकार किया। 

उसे पता था हिंदुस्तान को मुट्ठी में करने के लिए उसे राजपूतों के कड़े विरोध का सामना करना होगा। इसलिए सीधे लड़ने के बजाय उसने राजपूतों को साथ जुड़ने के लिए प्रयास किए। इसमें वह कई हद तक सफल भी हुआ। उसने कई पैगाम मेवाड़ भी भेजे लेकिन महाराणा प्रताप हर बार उनके पैगाम को ठुकराते।

महाराणा प्रताप कभी अकबर को बादशाह नहीं मानते थे। उन्होंने अपना पूरा जीवन राष्ट्र के लिए समर्पित किया था। उनकी राजनैतिक नीतियाँ साम्राज्यवादी नहीं थी, लेकिन उन्हें अपने वतन अपने रियासत से बहुत लगाव था। इसलिए, कोई बाहरी आक्रमणकारी आकर समझौते का प्रस्ताव रखे, यह बात उनको कतहीं मंजूर नहीं थी।

अकबर ने हर संभव प्रयास किये जिससे महाराणा प्रताप उसके प्रस्ताव को स्वीकार करे। कई बार उसने उसके लिए काम करनेवाले राजपूत सेनापति, सरदारों को भेजा।

इसमे अकबर की यह चाल थी, की अगर प्रताप उस प्रस्ताव को ठुकराते है, तो प्रताप और उनके अपने राजपूत लोगों के बिच टकराव पैदा होगा। अंतः अगर लड़ाई होती है, तो राजपूत के सामने राजपूत खड़े होंगे। जिससे दोनों तरफ फायदा उसीका था।

महाराणा प्रताप का बचपन

पारिवारिक शीत युद्ध

प्रताप बहुत विनम्र, बहादुर थे और उनके साफ-सुथरे चरित्र ने उन्हें लोगों के बीच बहुत पसंदीदा बना दिया था। उनकी लोकप्रियता के कारण, ईर्ष्यालु लोग हमेशा उन्हें मारने की कोशिश करते थे। उसमे उनकी सौतेली माँ रानी धीर बाई भट्टियानी भी पीछे नहीं थी। वह हमेशा प्रताप सिंह को सिंहासन से दूर रखने की कोशिश करती थी।

उनके परिवार में कुछ गद्दार भी थे। वे हमेशा गुमनाम रहने की कोशिश करते थे। लेकिन प्रताप को अपने परिवार पर बहुत विश्वास था। उनके एक भाई शक्ति सिंह भी शुरुवात में उनसे ईर्ष्या रखते थे। और उन्होंने भी अपने भाई के देशप्रेम के भावनाओं को नहीं समझा।

चित्तौड़गढ़ का युद्ध – महाराणा प्रताप का प्रथम युद्ध

प्रताप सिंग बचपन से अपनी माँ जयवंता बाई से अपने पूर्वजों की कहानियाँ सुनते आ रहे थे। उनके पूर्वजों में बाप्पा रावल, राणा कुम्भा जैसे महावीर पराक्रमी योद्धा थे। इसलिए, वे हमेशा युद्ध के प्रति उत्साही और तैयार रहते थे। उन्होंने अपनी पहली लड़ाई तब लड़ी जब वह सिर्फ १४ साल के थे।

शादी

राजपूती परंपरा के अनुसार प्रताप का विवाह बचपन में अजब्दी बाईसा से हुआ था। अजब्दी बाई प्रताप सिंघ के पिता उदयसिंह-द्वितीय के दरबार के एक सेनापति की पुत्री थी। राजनैतिक गठबंधन के लिए प्रताप को अपने जीवन में कई बार शादी करनी पड़ी।

विकिपीडिआ के मुताबित, महाराणा प्रताप सिंह की ग्यारह बीवियाँ थी। लेकिन महारानी अजब्दी पुनवार मेवाड़ की पटरानी और उनकी पहली पत्नी थी।

चित्तौड़गढ़ की घेराबंदी

महाराणा प्रताप द्वारा कई बार पैगाम ठुकराने पर उसने चित्तौड़गढ़ को चारो ओर से घेरकर हमला किया। कई दिनों तक लगातार तोफो से बारूद बरसाये, लेकिन तोफे चित्तौड़गढ़ का कुछ नुकसान नहीं कर सकी। क्योकि चित्तौड़गढ़ बहुत ऊंचाई पर स्तित था। और इसके बिलकुल विपरीत चारों ओर सादा मैदान था।

अकबर ने दीवारे लाँघकर बारूद अंदर तक जाये इसलिए उसने अपनी पहली तरकीब अपनाई। उसने चित्तौड़गढ़ के पास नए मिट्टी के टीले का निर्माण शुरू करवाया। कुछ दिनो बाद वह उस मिट्टी के टीले से चित्तौड़गढ़ पर तोफ चलाकर देखता।

महाराणा प्रताप ने अपने और से प्रयास करके पठानी बख्तरबंद सिपाहीओं के नेता जिसका नाम था ईस्माइल खान। क्योकि इस्माइल खान और प्रताप दोनों का शत्रु एक था। इसलिए वह प्रताप का साथ देने के लिए राजी हो गया।

इस्माइल खान अफगानी पठान था जिसके पास अपनी तोफे थी। और साथ में उसके सैनिकों के पास बंदूके चलाने का प्रशिक्षण भी था।

चित्तौड़गढ़ की विशेषताएं

  • चूंकि चित्तौड़गढ़ मेवाड़ राज्य की राजधानी थी। मेवाड़ की उपजाऊ भूमि पर इस दुर्ग का प्रभाव था।
  • साथ ही, इस किले के चारों ओर किलेबंद दीवारें हैं, और इसे तोड़ना असंभव था।
  • चित्तौड़गढ़ किला ऊँचाई पर स्तित था, और इसके विपरीत चारो और सखल मैदानी इलाका था, जिसके कारन इस किले के अंदर तोफों का हमला नामुनकिन था।

चित्तौड़गढ़ का युद्ध

मेवाड़ के इतिहास में चित्तौड़गढ़ की लड़ाई एक महत्वपूर्ण लड़ाइयों में से एक थी। जिसमे दरबारी मंत्रियों और अधिकारीयों के निर्णय अनुसार महाराणा उदयसिंह को परिवारसहित उदयपुर जाना पड़ा।

लंबे समय तक भोजन की आपूर्ति नहीं होने के कारण किले के अंदर के हालात बदतर हो गए थे। इसलिए, भुखमरी से मरने के बजाय, प्रताप और उनके सैनिकों ने मुगलों के खिलाफ लड़ने का फैसला किया। राजपूत लोग इसे “साका” के नाम से जानते थे। युद्ध में मुगल सेना राजपूत सेना से कई गुना अधिक थी।

इसलिए प्रमुख मंत्रियों और सेनापतियों के आदेश पर, महाराणा प्रताप और उनकी पत्नी को अचेत करके उन्हें सुरक्षित उदयपुर पहुँचाया गया। इसका उद्देश्य था, की कुछ भी हो जाय लेकिन शत्रु के खिलाफ संघर्ष चलता रहे।

मेवाड़ और मुग़लों की सैन्यशक्ति

ईसवी सन १५६८ में लड़े चित्तौड़गढ़ के निर्णायक युद्ध का नेतृत्व जयमल राठोड़ द्वारा किया गया। उनके अलावा पट्टा चुण्डावत, ईश्वर दास चौहान, रावत साई दस चुण्डावत, कल्याण सिंह राठोड़ (कल्ला), बल्लू सोलंकी, डोंडिया ठाकुर सांडा, रावत साईंदास, सहिंदास, उदयभान इत्यादि सेनाध्यक्ष शामिल थे।

तो दूसरी और मुग़ल सेना में खुद अकबर साथ में असफ खान, जलाल खान, आलम खान, क्वाज़ी अली बग़दादी, आदिल खान, अब्दुल माजिद खान, वज़ीर खान, मीर क़ासिम, हुसैन कुली खान, इम्तियाज़ खान, और सईद जमालुद्दीन इत्यादि सेनाध्यक्ष शामिल थे।

मेवाड़ की ओर से लगभग ८००० सैनिक तो अकबर के ओर से लगभग ६०,००० की फौज थी।

साका और जौहर

साका के समय सभी सैनिकों को यह बाद पता होती थी की इस युद्ध में मरना निश्चित है। सभी चित्तौड़ के वीर अपने हथियार लेके किले के बाहर तैयार होकर आ गए, जहां उनके जीवन का आख़िरी निर्णायक युद्ध होने वाला था।

तभी चित्तौड़गढ़ से “जय भवानी” के नारे और आकाश में काला धुंवा दिखाई देने लगा। अकबर ने सूरजमल जो एक राजपूत था उससे पूंछा की यह धुवा और राख कैसी, तब सूरजमल बोला यह, “यह पवित्र जौहरकुण्ड का धुंवा है, और वो नारे राजपूत वीरांगनाओं के है, जो अपना सर्वस्व बलिदान करने जा रही है।” चित्तौड़गढ़ की लड़ाई में मेवाड़ी सेना तथा सेनापति पुरे आत्मबल से लड़े। इस युद्ध में मेवाड़ी सेना ने अविश्वसनीय पराक्रम का प्रदर्शन किया।

मेवाड़ी सैन्यबल संख्या में कम होने के कारन आखिर में उन्हें अरवली की पहाड़ियों में शरण लेनी पड़ी। भलेही चित्तौड़गढ़ का इलाका उनके पास अब नहीं रहा, लेकिन अभी भी अरावली पहाड़ियों से घिरा क्षेत्र उनकी पास था। भलेही चित्तौड़गढ़ जो मेवाड़ की शान थी उनसे छीन गयी थी। लेकिन उनका आत्मबल नहीं टुटा था, वह फिर से लड़ने के लिए तैयार थे।

गौरवशाली बहादुर राजपूत क्षत्राणियाँ

जौहर राजपूती रिवाज था, जिसमें राजा, मंत्रियों, सरदारों, दूसरे सभी दरबारियों की पत्नियाँ और उनकी नौकरानियाँ आग के कुएँ में कूद जाती। यह रिवाज स्वेछ्या से सभी क्षत्राणियां द्वारा किया जाता था।

शायद राजपूत राजघरानों ने इस परंपरा को शत्रुद्वारा किये जाने वाले अत्याचारी व्यवहार के कारण बनाया होगा, जो युद्ध हारने के बाद होता था। स्त्रियां अपने स्वाभिमान, गौरव, पोषित सिद्धांतों को बनाए रखने के लिए अपने प्राणों की आहुति दिया करती थी।

जैसा कि इतिहास में उल्लेख किया गया है, चित्तौड़गढ़ किले के अंदर लगभग ३०,००० निर्दोष लोग मारे गए थे।

कुछ लोगों और पुस्तकों के अनुसार वे अकबर को “द ग्रेट” की उपाधि देते हैं। मैं उन लोगों और लेखकों से पूछना चाहता हूं, कि क्या अकबर सच में महान था? यदि वो वास्तव में महान था, तो वह उन निरपराध लोगों की निर्मम हत्या क्यों करता?

अब गौर करते है की कुछ लेखकों ने अकबर को महान बनाने के लिए किताबे लिखी। और उसके जीवनकाल को सकारात्मक तरीके से लोगों के सामने रखने के लिए उसके दरबारी इतिहासकार अबुल फजल द्वारा अकबरनामा लिखवाया।

अब आप तय करें, क्या अकबर ने लेखक को उसके बारें में कुछ नकारात्मक लिखने की आजादी दी थी? अकबरनामा उनकी आत्मकथा थी, लेकिन फिर भी, अगर उन्होंने कुछ गलत किया है, तो उसका उल्लेख किताब में किया जाना चाहिए।

अत: यदि हम वास्तव में भारतीय इतिहास की गहराई में उतरेंगे तो आप निष्कर्ष निकालेंगे “अकबर-द पीक ऑफ क्रुएल्टी” और “महाराणा प्रताप-द ग्रेट” और यही वास्तव सच्चाई है।

वास्तविक इतिहास हमेशा दुनिया से छुपा रहा है। ओर इतिहास हमेशा विजित पक्ष लिखता था, जिसके कारन वास्तविक सच को खोज पाना बहुत मुश्किल है। मेवाड़ का इतिहास महाराणा प्रताप के साथी चक्रपाणी मिस्त्रा के द्वारा लिखा गया। जिसके कारन हम निष्पक्षपाती रूप से वास्तव इतिहास को सामने ला पाए।

उदयपुर का महत्व

उदयपुर किले पर कब्जा करना मुश्किल था। क्योंकि उदयपुर के चारों ओर इसके चारों अरवली के जंगल ओर पहाड़ियाँ थीं। इस भौगोलिक स्तिति ने किले को जीतना स्वाभाविक रूप से कठिन बना दिया था। हल्दीघाटी भी इन्हीं पहाड़ियों में स्थित थी।

उदयपुर – महाराणा प्रताप की नयी राजधानी

कुम्भलगढ़ किले का राम पोल द्वार
राम पोल द्वार, कुम्भलगढ़ किला

अब महाराणा प्रताप अपना राजकाज उदयपुर के कुम्भलगढ़ किले से देखने लगे। यह किला अरवली के जंगलों और पहाड़ियों से घिरा होने के कारन ज्यादा सुरक्षित था।

इसलिए उदयपुर किले पर कब्जा करना मुश्किल था। इन प्राकृतिक भौगोलिक स्तितीयों के कारन इस किले को जीतना कठिन माना जाता था। हल्दीघाटी भी इन्हीं पहाड़ियों में स्थित थी।

उदयपुर में पुनर्वसन के बाद महाराणा प्रताप ने अपना ज्यादातर वक्त सैन्यशक्ति का संचय करने में लगा दिया। उन्होंने दूसरे रियासतों से मदत मांगी कुछ रियासतों से मदत मिली लेकिन ज्यादातर राज्यों ने मना कर दिया। क्योकि ज्यादातर रियासतों ने मुग़लों के सामने अपने घुटने टेक दिए थे।

लेकिन उन्होंने हाकिम खान सूरी जैसे पठान, जो मुग़लों को अपना दुश्मन मानते थे, उनको अपने साथ लिया। हाकिम खान सूरी के पास अचूक तोफे चलाने का अनुभव था और वह सभी शेर शाह सूरी के वंश के थे।

इस बिच कई बार फिर से अकबर ने महाराणा प्रताप को मुग़लों के आधीन होकर शासन करने के लिए पैगाम भेजे। अकबर ने साथ में चित्तौरगढ़ भी वापस देने का वादा किया। लेकिन प्रताप को अपना सिर झुकाके वह सब पाना मंजूर नहीं था। उन्हें अपना वजूद गंवाकर छप्पन भोग के बजाय अपने स्वाभिमान से बनी घांस की रोटी पसंद थी।

आखिरकार अकबर ने मान सिंह के साथ सेना भेजी जिसमे घुड़सवार, पैदल सैनिक तथा हाथी पर सवार बख्तरबंद  सैनिक शामिल थे। सभी मिलके करीबन १०००० सैनिक, बारूद, और तोफे थी। मान सिंह एक राजपूत सेनापति था, जो अकबर के विश्वासी व्यक्तियों में से एक था।

राजस्थान के उदयपुर शहर में स्तित कुम्भलगढ़ किला
रात के रोशनी में जगमगाता कुम्भलगढ़ किला, उदयपुर

राणा प्रताप द्वारा हल्दीघाटी को युद्धक्षेत्र के लिए चुनाव

अरवली के पहाड़ी क्षेत्र में एक इलाका था, जहां हल्दी के रंग के पिले पत्थर मिलते थे। साथ में वहां की भूमि भी पिली थी, इसलिए यह क्षेत्र हल्दीघाटी नाम से प्रसिद्ध था।

महाराणा प्रताप ने युद्ध के लिए यह इलाका चुना, क्योकि यहां पहाड़ी होने से सीधा टकराव संभव नहीं था। जिससे राणा प्रताप के पक्ष को लाभ मिलानेवाला था।

वे जानते थे, कि मेवाड़ सेना मुग़लों के मुकाबले बहुत कम हैं, इसलिए उन्होंने हल्दीघाटी क्षेत्र में लड़ने की योजना बनाई। पर युद्ध के आखिर तक वे पहाड़ी इलाको से लड़ने के वजह उनको कुछ कारणवश सामने आना पड़ा। जिसके कारन मेवाड़ी सेना की हालत बदतर होती गयी।

हल्दिघाटी का युद्ध

अकबर हमेशा महाराणा प्रताप को अपने सामने झुकाना चाहता था। उसने प्रताप को समझाने के लिए कई राजपूत दूतों को उदयपुर दरबार भेजा। हर बार उसने कुछ तर्कों के साथ मुगल प्रभाव में आने से इनकार कर दिया।

अकबर ने राजपूतों को अलग करने और आगामी लड़ाइयों में उन्हें शतरंज की मोहरे के रूप में इस्तेमाल करने की योजना बनाई थी। जैसा कि उन्होंने महसूस किया कि यह संभव नहीं है, उन्होंने महाराणा प्रताप के खिलाफ युद्ध की घोषणा की।

इस युद्ध तकनीक को गुरिल्ला युद्ध के नाम से जाना जाता था। बाद में, इन शत्रु युद्ध युक्तियों को मराठी में गनीमी काव कहा गया। बाद में, छत्रपति शिवाजी भोसले द्वारा भी मुगलों के खिलाफ युद्ध की इस तकनीक का सफलतापूर्वक उपयोग किया गया।

महाराणा प्रताप द्वारा गुरिल्ला युद्धतंत्र का उपयोग

हल्दीघाटी युद्ध के बाद, भामाशा द्वारा दिए इस आपातकालीन शाही खजाने का इस्तेमाल नए सैनिकों को तैयार करने, हथियार खरीदने, तथा अपनी नई राजधानी उदयपुर का विकास करने के लिए किया गया।

राणा प्रताप ने गुरिल्ला युद्ध तकनीक अपनाई। अचानक से वे चुनिंदा बख्तरबंद घुड़सवारों के साथ आते और शत्रु पर टूट पड़ते। इस युद्ध में भौगोलिक स्तितियों का महत्वपूर्ण भूमिका होती थी। इसलिए अरवली के जंगल और पहाड़ीया मेवाड़ी सेना के लिए लाभकारी सिद्ध हुए।

कुम्भलगढ़ किला

हल्दीघाटी का युद्ध महाराणा प्रताप और अकबर द्वारा लड़ी गई प्रसिद्ध लड़ाइयों में से एक है। मेवाड़ का नेतृत्व महाराणा प्रताप ने खुद किया और मुग़लों का नेतृत्व मान सिंह-प्रथम ने अकबर की ओर से मुगलों का नेतृत्व किया। लड़ाई १८जून १५७६ को शुरू हुई थी।

महाराणा प्रताप और उनके सहयोगियों ने राजपूत सेना की कमान संभाली। इसके विपरीत, मान सिंह-I ने मुगल सेना की कमान संभाली।

हकीम खान सूरी, भीम सिंह डोडिया, रामदास राठौर, बिदा झाला, भामा शाह, राम शाह तोंवर, ताराचंद और भील आर्चर सेनापति पुंजा महाराणा प्रताप की ओर से शूरवीर थे।

हकीम खान सूरी ईरान के पठान थे। उसे अपने पूर्वजों के संबंध में मुगलों से बदला लेना था।

भारतीय इतिहास में हल्दीघाटी युद्ध का महत्व

यह राक्षसी सोच रखने वाले मुगल शासन के खिलाफ हिंदू और मुस्लिम संयुक्त संघर्ष का एक आदर्श उदाहरण है। हल्दीघाटी एक पहाड़ी थी, जहां से अधिकतम दो व्यक्ति दर्रे से गुजर सकते थे।

महाराणा प्रताप ने इस युद्ध को साहस के साथ लड़ा। भारतीय इतिहासकारों के अनुसार, मेवाड़ के पास लगभग ३४०० सैनिक थे और मुगलों के पास लगभग १०,००० सैनिक थे।

मान सिंह पर महाराणा प्रताप का आक्रमण

भलेही राजपूत वीरों ने अपने पराक्रम की पराकाष्ठा दिखाई। लेकिन मुगलों के इतनी बड़ी सेना के टिक नहीं पायी। राणा प्रताप सिंह को जैसे ही पता चला की उनकी सैन्यशक्ति कम हो रही है।

तब प्रताप के गुरु आचार्य राघवेंद्र जी बोले, “मेवाड़ की सैन्यशक्ति बहुत काम बची है, अब हमारे पास केवल एक विकल्प बचा है। हमें कैसे भी करके मान सिंह को मारना होगा, तभी हमारे पास जितने की संभावना है।”

तब महाराणा प्रताप ने अपने साथियों की मदत से मान सिंह के सुरक्षा चक्र को भेदकर अंदर गए। तब महाराणा प्रताप के चेतक ने अपने पैर मान सिंह के हाथी की सूंड पर रखे जिससे राणा प्रताप को सीधे मान सिंह पर हमला करने का मौका मिला।

प्रताप ने मान सिंह-प्रथम पर भाले से जबरदस्त वार किया, लेकिन उस वार में भाला हाथी चालक के कण्ठ को भेदकर सीधा हाथी के उपर खड़े छत्र से टकराया।

मान सिंह की किस्मत अच्छी थी की, इतने प्रबल वार से बचा गया। लेकिन अब राणा प्रताप के पास दूसरे हमले के लिए समय नहीं था, क्योंकि मुगल सैनिकों के टुकड़ी द्वारा उन्हें घेर लिया था।

इसलिए गुरुदेव के आदेश पर तुरंत उनका शिरस्रान, कवच और तलवार उनके समान दिखने वाले सैनिक जिसका नाम था, बिदा झाला ने पहनकर राणा प्रताप का स्थान लिया। उनको तुरंत युद्ध के मैदान से जाने के लिए कहा।

क्योकि, महाराणा प्रताप को मुगलों के खिलाफ स्वतंत्रता का यह अभियान जारी रखना था, इसलिए वे घायल स्थिति में युद्ध के मैदान से निकले।

वफादार चेतक: महाराणा प्रताप का साथी

इंसान को छोड़कर किसे भी प्राणी के पास एक हद तक बुद्धिमत्ता और स्वामिनिष्ठा होती है। कुछ असाधारण प्राणियों के पास ही, बुधुमत्ता के साथ-साथ अपने स्वामी को समझने की असाधारण क्षमता होती है। महाराणा प्रताप के पास बहुत घोड़े थे, लेकिन चेतक उनका सबसे पसंदीदा था।

युद्ध के मैदान से जाते समय कुछ घुड़सवार बख्तरबंद मुगल सिपाहियों ने राणा प्रताप का पीछा किया। तब उनका घोड़ा जिसे सब “चेतक” के नाम से जानते थे। उनके इस वफादार घोड़े के बारे में एक घटना सामने आई।

युद्धों में घुड़सवारों को गिराने के लिए घोड़ों, हाथियों, ऊँटों पर आक्रमण करना आम बात थी।

युद्ध के दौरान मुगल सेना ने कई बार चेतक पर भी आक्रमण किया था। अतः युद्ध के दौरान चेतक भी पूरी तरह घायल हो गया था। चेतक का एक पैर गंभीर रूप से घायल हो गया था, और अब वह अपना वजन सहन करने में असमर्थ था। उस समय, चेतक को ठीक होने के लिए वास्तव में इलाज और आराम करने की आवश्यकता थी।

अपने कष्टप्रद दर्द को भूलकर, चेतक अपने स्वामी को युद्धक्षेत्र से कम से कम २ मील दूर ले गया। उसके बाद चेतक ने एक बाढ़ वाली नदी पर छलांग लगाकर उसे पार किया। लेकिन, नदी पर करने पर असहीनय दर्द के कारन चेतक गिर पड़ा और उसकी मृत्यु हो गई।

युद्ध में हमेशा सेना प्रमुख सेनापति और सरदार जैसे महत्वपूर्ण व्यक्ति शत्रु पक्ष के पहले निशाने पर रहते थे। हल्दीघाटी युद्ध में महाराणा प्रताप एक राजा के साथ एक सेना प्रमुख भी थे जिसके कारन आप सोच सकते है वे कितने लोगों के सीधे हमले पर रहे होंगे। ऐसे स्तिति में कोई साधारण अश्व शायद ही चेतक जितना साथ दे पाता।

इस घटना पर महाराणा प्रताप दुखी हुए क्योंकि चेतक उनकी यात्रा के प्रारंभ से ही उनका प्रिय सहयोगी था। चेतक के जाने से राणाजी पूरी तरह से टूट गए थे। तब शक्ति सिंह जो मुगलों के सेनापति थे उन्होंने प्रताप का साथ दिया। राणा प्रताप का पीछा करनेवाले सिपाहियों को प्रताप और शक्ति सिंह द्वारा मरा और शक्ति सिंह ने उनको अपना घोडा दिया, जिससे वे सुरक्षित वहा से निकल सके।

हल्दीघाटी के युद्ध से अकबर का उद्देश्य

निश्चय ही अकबर महाराणा प्रताप को मारना या बन्दी बनाना चाहता था। वह उदयपुर पर कब्जा करना चाहता था, क्योंकि यह गुजरात से दिल्ली तक व्यापार के रास्ते में आता था। उदयपुर मुग़लों के पास नहीं था, यह अकबर के लिए एक काला धब्बा था।

युद्ध के बाद की स्तिति

यह समय उनके साथ उनके परिवारजनों के लिए बहुत सघर्षमय था। उनके बेटे कुंवर अमर सिंह छोटे थे, और उन्हें भूख लगने पर घांस के रोटी के अलावा कुछ दे नहीं पाते थे। महाराणा प्रताप को खुद की फिक्र नहीं थी, लेकिन अपने बेटे और परिवार की हालत उनसे देखी नही जाती थी। कई बार उनको लगता की बस अब और नहीं लेकिन ऐसी स्तिति में भी उनके परिवारजनों ने उन्हें कभी टूटने नहीं दिया।

दानवीर भामाशा कवाड़िया

भामाशा कवाड़िया एक जैन समाज के सेठ थे। “वैश्य – सेठों का अनसुना इतिहास” इस फेसबुक पेज के अनुसार वे सेठ होने के साथ-साथ एक सरदार, मंत्री तथा सल्लागार भी थे। जिन्हे बाद में महाराणा प्रताप द्वारा प्रधान मंत्री बनाया गया।

मेवाड़ के पूर्वजों द्वारा भामाशा के पूर्वजों के पास गुप्त धन रखा था। भामाशा और उनके पूर्वज बरसो से मेवाड़ के राजदरबार में विश्वासु सरदार, मंत्री और कोष रक्षक थे। इसलिए उन्हीको राजसी गुप्त धन की रक्षा करने का दायित्व दिया था।

हल्दीघाटी के भयानक रक्तपात के बाद महाराणा प्रताप का अरवली के जंगल शरण लेनी पड़ी, यह बात भामाशा को पता चली। तब तुरंत उन्होंने वह खजाना लिया जिसमे लगभग २०,००० सोने की अशरफिया थी और राणा प्रताप के सामने प्रस्तुत हुए। क्योंकि यह धन ऐसी ही दुर्गम स्तिती के लिए रखा था। ऐसी विकट परिस्थिति आने पर उससे उबरने के लिए मेवाड़ के पूर्वजों ने ऐसा किया था।

उन्होंने उसके साथ २५,००,००० रुपये जो उनकी जीवनभर की कमाई थी, नवनिर्माण के लिए महाराणा प्रताप को सौंप दी। उनके देशप्रेम और मेवाड़ के प्रति प्रेम और समर्पण देखकर महाराणा प्रताप ने भाउक होकर कहाम, “जबतक आपके जैसे देशभक्त साथ है, मेवाड़ को कोई हमसे छीन नहीं सकता। आपके इस महान त्याग के कारन भविष्य में लोग आपको दानवीर भामाशा कवाड़िया इस नाम से जानेंगे।”

कुम्भलगढ़ किले के राम पोल

अंतिम परिणाम

व्यावहारिक रूप से, मुगलों ने अंत में लड़ाई जीत ली, लेकिन उन्हें इससे कुछ नहीं मिला। निश्चित रूप से महाराणा प्रताप ने अकबर के मंसूबों को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया था।

इसके उपरांत महाराणा प्रताप हार नहीं मानी बल्कि फिर से एक के बाद एक किले जीते। कुछ सालों के अंदर ही उन्होंने उदयपुर के सभी ३६ चौकियों को फिर से जित लिया और साथ में कुम्भलगढ़ किला अपने नियंत्रण में कर लिया।

मृत्यू

कुछ स्रोतों के मुताबिक महाराणा प्रताप की मृत्यू शिकार के दौरान हुए दुर्घटना में वे गंभीर रूप से जखमी हुए। उसके कुछ दिनों बाद उनकी मृत्यू हुई।

महाराणा की मृत्यू की खबर दिल्ली के दरबार में अकबर द्वारा सुनने पर उसने भी उस दिन अपना ताज तख्त पे रखकर शोक व्यक्त किया था।

छायाचित्र का श्रेय

उदयपुर किले में महाराणा प्रताप की मूर्ति, छायाचित्र का श्रेय: Shahakshay58

महाराणा प्रताप का जन्म स्थान – कुम्भलगढ़ | मेवाड़ में कुंभलगढ़ नाम का उदयपुर के पास का किला, छायाचित्र का श्रेय: Rohanguj2

कुम्भलगढ़ किले का राम पोल, छायाचित्र का श्रेय: शिवम चतुर्वेदी

रात के समय चमकता कुम्भलगढ़ किला- राजस्थान, छायाचित्र का श्रेय: Kunal 3405

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